कांग्रेस-बसपा: कर्नाटक की पुकार, गठबंधन की दरकार

तीन कारण जिनकी वजह से मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के पहले कांग्रेस और बसपा को साथ आना चाहिए.

WrittenBy:रविकिरण शिंदे
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ठीक 15 साल पहले, 2003 की गर्मियों में, लाल कृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी ने बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) को चुनाव से पूर्व राष्ट्रीय गठबंधन में लाने की अथक कोशिशें की थी. इसके बदले में भाजपा उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा होने पर बसपा को समर्थन देने की बात थी.

यह गठबंधन उस साल राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनावों के पूर्व बनाया जाना था. यह बेहद कठिन तोल-मोल था.

मायावती को अहसास हुआ कि उनके वोट बैंक में सेंध लग जाएगी और वो भाजपा की तरफ मुड़ सकता है, लेकिन भाजपा बसपा को अपना वोट नहीं दिला सकती. भाजपा को बसपा के जुझारू कार्यकर्ताओं की मेहनत का अंदाजा था लेकिन मायावती को यह गठबंधन का फार्मूला पसंद नहीं आया.

पंद्रह साल बाद फिर से संयोग है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव नज़दीक हैं. कर्नाटक में, कुछ ही दिनों पहले कांग्रेस-जेडी(एस) ने चुनाव बाद गठबंधन बनाकर सत्ता हासिल की है. कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री का पद देकर राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सत्ता में आ सकी है.

उत्तर भारत के तीन राज्यों में जरूरत है कि विपक्षी पार्टियां आपसी मतभेद भूलकर चुनाव पूर्व गठबंधन बनाएं. जैसी तत्परता चुनाव के बाद कांग्रेस और जेडी(एस) ने कर्नाटक में दिखाई, वैसी ही उत्तर भारत के राज्यों में भी जरूरत है. सवाल यह है कि क्या कांग्रेस और जेडी(एस) पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पाएंगें? क्या यह गठबंधन 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए भी जारी रहेगा?

स्थितियों को देखते हुए लगता नहीं कि कांग्रेस अकेले भाजपा को 2019 तक हरा पाएगी, पार्टी को अपने चुनावी सिद्धांतों में अमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे- एक तो यह कि उसे बसपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियों से चुनाव पूर्व गठबंधन करना होगा.

लेकिन ऐसे गठबंधनों की जरूरत क्यों हैं?

1) लंबे समय के बाद, बसपा चुनाव पूर्ण गठबंधन के लिए अनुकूल दल है.

संभवत बसपा को अहसास हो गया है कि भले ही वह वोट शेयर के लिहाज से भारत की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी हो लेकिन 2014 लोकसभा चुनावों में गठबंधनों के आभाव में वह एक भी सीट नहीं जीत सकी. रणनीति में बदलाव वोटों को सीटों में तब्दील करने के लिए जरुरी है. उत्तर प्रदेश के फूलपुर और गोरखपुर में सामाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन रहा हो या कर्नाटक में जेडी(एस) के साथ- दोनों ही उदाहरण बताते हैं कि दूसरी पार्टियों का बसपा के साथ गठबंधन चलता है. और अच्छा चलता है. 2019 के लिए बसपा ने सपा के साथ गठबंधन किया है, वहीं हरियाणा में राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन तय हुआ है.

इस मौके पर कांग्रेस को बिना समय गंवाए मायावती से बात करना चाहिए और इस साल राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के पूर्व गठबंधन बनाया जाना चाहिए. ये चुनाव 2019 के पहले सेमी फाइनल है. कांग्रेस को अपने सभी कमजोर पक्षों पर काम करना चाहिए.

उत्तर भारतीय राज्यों में बसपा की दलितों के ऊपर महत्वपूर्ण पकड़ एक निर्णायक फैक्टर हो सकता है. मायावती की पार्टी 2 से 10 लाख वोट हर राज्य में लाने में समर्थ है और लगभग सभी उत्तर भारतीय राज्य में उनकी मौजूदगी भी है. यह कड़े मुकाबलों में कांग्रेस के पक्ष में जा सकता है. 2014 में, बसपा 2.3 करोड़ वोटों के साथ तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. उनका वोट प्रतिशत 4.1 था, जो मुख्यत: उत्तर भारत के राज्यों में मिला था.

2013 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान बसपा को 6.42 प्रतिशत वोट शेयर के साथ पांच सीटें मिली थी. बुंदेलखंड क्षेत्र में बसपा का वोट शेयर 10 प्रतिशत के आसपास तक गया था. बसपा बतौर गठबंधन सहयोगी कांग्रेस को बहुमत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है.

2) कोई भी ‘गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई’ चुनाव पूर्व गठबंधन कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगा.

यह मुश्किल लगता है कि कांग्रेस टीडीपी (आंध्र प्रदेश), तृणमूल (पश्चिम बंगाल), सीपीएम या वाईएसआर कांग्रेस (आंध्र प्रदेश) जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन बनाएगी. ये पार्टियां गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा गठबंधन की ओर बढ़ती दिख रही हैं.

लेकिन कांग्रेस का कोई भी गठबंधन बिना बसपा के कारगर नहीं होगा. जेडी(एस) और बसपा ने कर्नाटक चुनाव के ठीक पहले ऐसा ही गठबंधन किया था लेकिन नतीज़े स्पष्ट नहीं मिले.

कांग्रस-जेडी(एस)-बसपा का गठबंधन इस चुनाव में 57 प्रतिशत वोट अपने पक्ष में कर जाता. लेकिन 36 प्रतिशत वोटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. कर्नाटक का परिणाम साबित करता है कि कांग्रेस को चुनाव पूर्व गठबंधन करना चाहिए. उन क्षेत्रों में भी जहां कांग्रेस मजबूत है, वहां उसे गठबंधन करना चाहिए.

भाजपा ने उत्तर प्रदेश चुनाव में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल जैसी छोटी पार्टियों से गठबंधन किया था. यह भी छोटी पार्टियों के लिए एक सबक के तौर पर लिया जाना चाहिए. मौजूदा वक्त में, कांग्रेस का सिर्फ एक ही पुख्ता गठबंधन है और वह है राष्ट्रीय जनता दल (राजद) से. चूंकि वह बिहार में है जहां कांग्रेस कमजोर और चौथे नंबर की पार्टी है.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पीछे वाला सीट लेना चाहिए. मतलब कि सपा-बसपा गठबंधन के साथ जुड़ना चाहिए. लेकिन दूसरे प्रदेशों में बसपा के साथ गठबंधन कांग्रेस को वाजिब सीटें दिला सकता है.

3) बसपा के साथ आने पर कांग्रेस दलित-बहुजन केंद्रित पार्टी के तौर पर उभरेगी

कांग्रेस को ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की राजनीति त्याग देना चाहिए और एक मजबूत बहुजन गठबंधन खड़ा करना चाहिए, जिसमें ओबीसी, दलित और मुसलमानों की भागीदारी हो. कांग्रेस अपने तरह की सोच की पार्टियों के साथ गठबंधन में तेजी दिखाती है तो भाजपा हिंदू-मुसलमान को बांटने वाले मुद्दे निकालेगी. कांग्रेस, सपा और बसपा को मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाली पार्टियों के तौर पर पेश करेगी. भाजपा हिंदू वोटरों को अपने पक्ष में करने की भरपूर कोशिश करेगी.

हालांकि कांग्रेस गठबंधन, इन मुद्दों के बरक्स एससी-एसटी एक्ट या यूजीसी के नए नियमों से आरक्षण नीतियों पर फर्क जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उठा सकती है. ये मुद्दे भाजपा को बचाव की मुद्रा में ला देंगे.

बसपा कांग्रेस के नेतृत्व बनी यूपीए का 2004 से समर्थन करती रही है. केंद्र और कई राज्यों में जैसे उत्तराखंड में बसपा ने कांग्रेस को बचाया है. कर्नाटक में भी मायावती ने ही सोनिया गांधी और जेडी(एस) के मुखिया एचडी देवगौड़ा के बीच गठबंधन कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि मायावती भी प्रधानमंत्री बनने के सपने देखती हैं. 2019 का लोकसभा चुनाव उनके लिए भी महत्वकांक्षाओं की पूर्ति का अवसर है. लेकिन कांग्रेस इस प्रश्न को चुनाव के बाद तय करने पर छोड़ सकती है. कांग्रेस राहुल गांधी को एकमात्र प्रधानमंत्री उम्मीदवार न बताकर पद की उम्मीदवारी को खुला छोड़ सकती है.

बसपा से गठबंधन के मसले पर कांग्रेस के भीतर से विरोध हो सकता है. वो बसपा की वापसी से घबरा सकते हैं. कारण यह कि 1980 के दौर में उत्तर प्रदेश में बसपा का उभार कांग्रेस के राजनीतिक पतन का कारण बना. लेकिन कांग्रेस को अहसास होना चाहिए कि 2019 चुनावों में दावेदारी और उम्मीदें काफी ज्यादा हैं.

कर्नाटक ने एक बार फिर से विपक्षी एकता की जरूरत को रेखांकित किया है. कांग्रेस पार्टी को इस पर ध्यान देना चाहिए.

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