मोदी और शाह ने वाजपेयी का वो ‘चिमटा’ कूड़ेदान में फेंक दिया

हपनी हर गड़बड़ी, हर नाकामी का जवाब बीते साठ सालों के कांग्रेस शासन में देने वाली भाजपा ही मोदी-शाह की भाजपा है.

WrittenBy:अजीत अंजुम
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‘पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा.’ 28 मई, 1996 को लोकसभा में बहुमत हासिल न कर पाने पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण के इस अंश का इस्तेमाल एक बार फिर भाजपा को आइना दिखाने के लिए किया जा रहा है. कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद वाली नीति को भाजपा का नैतिक पतन साबित करने के लिए वाजपेयी के इस चर्चित बयान को सोशल मीडिया पर वायरल किया जा रहा है.

भाजपा से बार-बार सवाल पूछे जा रहे हैं कि 104 सीटों वाली पार्टी बहुमत के लिए बाकी विधायकों का जुगाड़ कहां से करेगी? खुलेआम खरीद-फरोख्त करने में जुटी पार्टी की नौतिकता कहां चली गई? कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन मौकापरस्त ही सही लेकिन जब उनके पास बहुमत से ज्यादा नंबर है तो भाजपा विधायकों की मंडी लगाने क्यों उतरी? दूसरे दलों को तोड़-फोड़कर अगर आठ-नौ विधायक जुटा भी लिए तो भाजपा के लिए ये सत्ता कलंक की तरह क्यों नहीं होगी?

ये सवाल मौजूं हैं. लेकिन भाजपा से अब ये सवाल बेमानी हैं. ऐसे सवाल पूछने वालों को अब ये समझ में आ जाना चाहिए कि ये अटल-आडवाणी वाली भाजपा नहीं है.

ये मोदी और शाह की भाजपा है. ये वो भाजपा है, जिसका मूल मंत्र ही है- सत्ता हर हाल में. बीते दो सालों में मोदी और शाह की भाजपा ने उत्तराखंड से लेकर गोवा, मणिपुर और मेघालय तक में जिस ढंग के ऑपरेट किया, वो इस बात का सबूत है कि जोड़तोड़ वाली सत्ता को चिमटे से न छूने वाले विचार को उसी चिमटे से उठाकर कूड़ेदान में कब का डाल दिया गया है.

विरोधी को हर तरह से बुलडोज करना और चुनाव के बाद सरकार बनने की एक फीसदी भी गुंजाइश हो तो पूरा जोर लगा देना इस भाजपा का एक मात्र उसूल है. कुछ भी करो, कैसे भी करो, विरोधी को तोड़कर करो, खरीदकर करो, डरा कर करो, सत्ता में हिस्सेदारी देकर करो लेकिन करो. सत्ता हासिल करो. जब तक विरोधी सचेत हो उससे पहले करो. जैसे गोवा और मणिपुर में किया.

जब तक कांग्रेस राज्यपाल के दरवाजे तक पहुंचने का प्लान बनाती, तब तक भाजपा कुर्सी को अपनी तरफ खींच चुकी थी. उत्तराखंड में रावत सरकार को गिराने के लिए क्या नहीं किया, ये अलग बात है कि कोर्ट से सरकार फिर बहाल हो गई. हां, चुनाव के बाद फिर भाजपा पूरे दमखम के साथ वापस जरुर आ गई.

कर्नाटक भाजपा की इसी रणनीति का क्लाइमेक्स है. वैसे इसे आप 2019 का ट्रेलर भी समझ सकते हैं. जैसे ही कर्नाटक के नतीजे भाजपा को लटकाने वाले आए, अमित शाह ने अपने सिपहसालारों को बंगलुरू में तैनात कर दिया. हर तरह के हथियारों से लैस ये सिपहसालार बहुमत जुटाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. नाम तो आप जानते ही होंगे.

शाह के इस ऑपरेशन कर्नाटक में धर्मेंन्द्र प्रधान हैं, प्रकाश जावड़ेकर हैं, जेपी नड्डा हैं, अनंत कुमार तो हैं ही. ये चार वहां आठ की तलाश कर रहे हैं. हर मिनट, हर पल शाह के संपर्क में हैं और जुगाड़ के लिए गोटियां बिछा रहे हैं. कर्नाटक के राज्यपाल वजूवाला और पीएम मोदी की निकटता की तमाम कहानियों के बीच इसमें तो किसी को शक नहीं है कि राज्यपाल भाजपा की जितनी मदद कर सकते हैं, कर ही रहे हैं. नहीं कर रहे होते तो गोवा की तर्ज पर बहुमत वाले गठबंधन को सरकार बनाने के लिए बुलाते न कि भाजपा को. अगर बड़ी पार्टी के नाते भाजपा को बुलाना भी था तो शपथ दिलवाने से पहले बहुमत के आंकड़ों और विधायकों की लिस्ट मांगते. उन्होंने दोनों काम नहीं किया.

राज्यपाल अपने फैसले की वजह से कांग्रेस के निशाने पर हैं. भाजपा के इस सत्ता मोह को लेकर सोशल मीडिया में लानत-मलानत हो रही है. कांग्रेस और जेडीएस के नेता धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं. मोदी और शाह को नैतिकताओं का पाठ पढ़ाने के लिए सड़क पर उतरे हैं. लेकिन इन सबसे उनके कदम पीछे नहीं हटने वाले हैं. उन्हें भी पता था कि बहुमत से आठ कदम दूर होने के बाद भी सरकार बनाने का दावा पेश करने के बाद क्या-क्या करना होगा और क्या-क्या सुनना होगा. तो अब इंतजार कीजिए कि कैसे भाजपा दूसरों के घरों को तोड़कर अपने महल की मीनार को मजबूत करती है. अब कोसना छोड़ दीजिए कि ये वो भाजपा नहीं जो वाजपेयी छोड़ गए थे.

तेरी गलती पर मेरी गलती वाजिब

भाजपा और उनके समर्थकों के पास अब एक ही तर्क है- कांग्रेस ने यही तो साठ साल तक किया. कांग्रेस ने भी तो ऐसे ही राज्यपालों का इस्तेमाल किया. कांग्रेस ने भी तो ऐसे ही जोड़-तोड़ से सरकारें बनाई और गिराई. कांग्रेस काल के ऐसे कारनामों की फेहरिस्त उनके बचाव का कवच है. सोशल मीडिया पर ही देख लीजिए. भाजपा की नैतिकताओं पर उठने वाले हर सवाल का जवाब कांग्रेस काल में हुए कारनामे का हिसाब है.

गोया कांग्रेस से कंपटीशन हो. जो-जो कांग्रेस ने किया, वो सब करना है. कांग्रेस ने कब-कब ऐसी सरकारें बनाई और गिराई, उसके हिसाब वाली एक टाइप्ड पर्ची सोशल मीडिया पर घूम रही है. कोई भी ऐसा सवाल करता है तो उसके जवाब में यही पर्ची आकर चिपक जाती है.

अब अगर कांग्रेस के धतकर्म का मुकाबला करने के लिए धतकर्म ही करना है तो एक सवाल तो बनता है कि क्या चुनाव के पहले भाजपा ने कहा था कि कांग्रेस ने जो-जो साठ सालों में किया है, वो सब हम भी करके दिखा देंगे? क्या भाजपा ने कहा था कि कांग्रेस ने संवैधानिक संस्थाओं और राजनीतिक नैतिकताओं को जितना कुचला है, उतना हम भी कुचलेंगे? और जब तक कांग्रस से इन मामलों में हम आगे न चले जाएं, तब तक पूछना मत. भाजपा ने यही कहकर वोट मांगा था क्या?

बीते महीनों में अगर देखें तो तमाम घपलेबाज और दागदार छवि वाले नेताओं को भाजपा ने अपने ठीहे में ठिकाना दे दिया है. सुखराम, मुकुल रॉय से लेकर नरेश अग्रवाल तक को. राज्यवार गिनती करें तो सौ का आंकड़ा भी पार हो सकता है. इन सबको को शामिल करने के बाद भी जब भाजपा से सवाल हुए तो नेता या समर्थक दलील के इसी रास्ते पर चले कि कांग्रेस ने साठ साल में क्या-क्या नहीं किया, आप सवाल हमसे क्यों पूछ रहे हैं?

नीरव मोदी और चौकसी के घोटालों ने सिस्टम की सड़ांध को सड़क पर ला दिया तो तर्क आने लगे कि कांग्रेस राज में तो टूजी, थ्री जी, सीडब्लयूजी, कोलगेट जैसे घोटाले हुए. ये कहा गया कि ये भी उन्हीं लोगों के बनाए नियमों की वजह से घोटाले कर गए. क्या-क्या गिनाया जाए. तभी तो पहले ही कह दिया कि ये वाजपेयी और आडवाणी की भाजपा नहीं, मोदी और शाह की भाजपा है.

अटल बिहारी वाजपेयी का वो चिमटा कब का कूड़ेदान में फेंका जा चुका है. अब उस चिमटे की दुहाई देना बंद करिए और तमाशा देखिए. न देख पाएं तो चुप रहिए.

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