दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को प्रेस की स्वतंत्रता पर दिनोंदिन बढ़ते जा रहे ख़तरे से बचाने के तरीके ढूढ़ने चाहिए.
1989 में, माओ के उत्तरार्ध चीन में बेतरतीब विकास के खिलाफ, थियेनआनमेन चौक पर छात्रों का प्रदर्शन हुआ. वे आर्थिक नीतियों, प्रेस की आज़ादी, अभिव्यक्ति और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग व चिंता जाहिर कर रहे थे.
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Contributeआंदोलन बढ़ता गया और समूचे देशभर से इसे समर्थन प्राप्त होने लगा, तब चीन के नेता डेंग ज्यॉ पिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चीन (सीपीसी) के सदस्यों के सहित इस आंदोलन को काउंटर-रिवॉल्यूशनरी बताया और बल प्रयोग से प्रदर्शन खत्म करवाना चाहा. पार्टी ने सेना को आदेश देकर प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलवाई, टैंकों से हमले किए. बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुई.
पार्टी और जनता के बीच के रिश्ते तीखे होते चले गए, कैसे व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं पर लगाम लगाया गया और उनकी आवाज़ दबाई गई- सबका एक ही लक्ष्य था कि कैसे डेंग चीन पर अपना नियंत्रण वापस पाते हैं.
सरकार के इस बर्ताव की विश्वस्तर पर चहुंओर निंदा हुई. अमेरिका और यूरोप ने इसे निंदनीय बताया. एशियाई देश, हालांकि, शांत रहे. विरोधाभास देखिए, जहां चीन में प्रेस की आजादी के लिए प्रदर्शन हो रहे थे, भारत सरकार ने चीन में हो रहे प्रदर्शन को भारतीय मीडिया में कम से कम को दिखाने का आदेश दिया.
चीन की आंतरिक गड़बड़ियों को न दिखाकर राजीव गांधी ने संदेश देने की कोशिश की- ऐसा कर के भारत यह संदेश दे पाएगा कि इस क्षेत्र में वह कूटनीतिक गठबंधन बनाने को प्रतिबद्ध है. तब से आज तक भारत में सेंसरशिप की समस्या जटिल ही होती गई है.
प्रेस को नियंत्रित करने की सरकारी कोशिशों के संदर्भ में अगर प्रेस स्वतंत्रता के इतिहास पर गौर करें तो यह हमारी सिकुड़ती स्वतंत्राओं की ओर इशारा करता है. 15 अप्रैल, 2018- यह थियेनआनमेन चौक की घटना की 29वीं सालगिरह थी. यह अभिव्यक्ति की आजादी और प्रेस की स्वतंत्रता पर नए सिरे से सोचने का अवसर होना चाहिए.
भारतीय संविधान के अनुक्षेद 19 के अनुसार हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. इसके साथ यह भी लिखा है कि अगर यह राज्य की संप्रभुता, अखंडता, सुरक्षा, पब्लिक ऑर्डर आदि को प्रभावित करने वाला होगा, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ जरूरी पाबंदियां लगाई जाएगी.
गौरतलब है कि भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 499 से 502 में, मानहानि के खिलाफ सज़ा और आईटी एक्ट, 2000 के अंतर्गत कंप्यूटर या किसी अन्य माध्यम से भेजे गए अपमानजनक संदेशों पर कारवाई का प्रावधान है.
जबकि आईटी एक्ट, 2000 के अनुच्छेद 66 (अ) को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक बताकर निरस्त कर दिया था. साथ ही कहा था कि यह फ्री स्पीच की मूल भावना के लिए खिलाफ है.
ऊपर बताये गए सभी कानूनों को मद्देनज़र, यह स्पष्ट है कि जब राष्ट्रहित की बात आती है तो नागरिकों की अभिव्यक्ति पर जरूरी नियंत्रण लगा दिए जाते हैं. और ऐसे सरकारी हस्तक्षेप अक्सर होते हैं.
2017 में रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर ने वर्ल्ड फ्रीडम इंडेक्स में भारत को 180 देशों में से 136 वें स्थान पर रखा. इस रिपोर्ट में मारे गए पत्रकारों की विस्तृत जानकारी है. इसी रिपोर्ट से यह भी मालूम चलता है कि जमीनी स्थितियां कितनी बुरी हैं.
इस सूची में चीन को 176वें स्थान पर रखा गया है. यह सिर्फ सीरिया, तुर्कमेनिस्तान, इरिट्रिया और उत्तर कोरिया से बेहतर स्थिति है. चीन सहित इन सभी देशों को नागरिकों के मौलिक अधिकारों के बारे में बताया जाना चाहिए.
कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) ने दुनियाभर में प्रेस पर हमले के बाद दंड मुक्ति सूची जारी करते हुए लिखा, “फिलिपीन्स, मेक्सिको, ब्राजील, रूस और भारत- ये लोकतांत्रिक देश हैं पर हमेशा इस सूची का हिस्सा रहे हैं. सरकारी अधिकारी, गैर सामाजिक तत्व पत्रकारों पर हत्या के आरोप होने के बावजूद, उन्हें सजा नहीं हो पाती.”
यह रिपोर्ट हमारा ध्यान इस ओर भी आकर्षित करता है, यूनेस्को ने जब भारत सरकार से पत्रकारों की हत्या की जांच के बारे में जानना चाहा तो कैसे सरकार ने यूनेस्को का हस्तक्षेप पसंद नहीं किया.
यहां हमारे देश में मीडिया पर नज़र रखने वाली संस्था द हूट ने ‘द इंडिया फ्रीडम रिपोर्ट’ तैयार किया था. उन्होंने जनवरी 2016 से अप्रैल 2017 तक के मीडिया की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी का विश्लेषण किया था. रिपोर्ट में बताया गया कि इस दौर में 46 पत्रकारों पर हमले हुए. हमलावर पुलिस, राजनेता, पार्टी कार्यकर्ता, दक्षिणपंथी संगठन, खनन माफिया, डेरा सच्चा सौदा के कार्यकर्ता आदि थे.
रिपोर्ट में मीडिया और कला के क्षेत्र से जुड़े लोगों को धमकियों का भी जिक्र था. ऐसे मामले कुल 20 थे. कुछ उदाहरण के रूप में ये हैं-
1- जून के महीने में छत्तीसगढ़ के बिजापुर में वन मंत्री, स्थानीय अधिकारियों और रिपोर्टरों को धमकाने वाले पोस्टर लगाये गए थे. कहा गया कि इन लोगों ने मुठभेड़ की गलत रिपोर्टिंग की है.
2- एनडीटीवी इंडिया, फर्स्टपोस्ट, द क्विंट, द न्यूज़ मिनट और कोवई पोस्ट के पत्रकारों को सोशल मीडिया पर रेप की धमकियां मिलीं.
3- फरवरी में, यूपी के मंत्री राधे श्याम सिंह पर स्थानीय पत्रकार को जिंदा जलाने की धमकी देने का कथित आरोप लगा. बताया गया कि उक्त पत्रकार ने मंत्री को विधानसभा चुनावों के दौरान मदद नहीं की.
इंटरनेट और फ्री स्पीच के बारे में, रिपोर्ट में बताया गया कि इंटरनेट बंद किए जाने के कुल 77 मामले हुए. रिपोर्ट के मुताबिक, जम्मू कश्मीर में साल के सिर्फ तीन महीने ही ऐसे थे जब इंटरनेट नहीं बंद किया गया.
इंटरनेट बंद किए जाने का कारण रहा, “जातीय हिंसा,” “अफवाहों से बचने के लिए,” “सुरक्षा के हेतु लिए गए कदम,” “शांतनु भौमिक की हत्या के बाद” आदि.
यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने वाले ये तरीके भारत के लिए नए नहीं हैं. यह भी सच है कि आज के समय में विचारधारात्मक लड़ाईयां तेज़ हो गई हैं. केंद्र सरकार के व्यवहार के कारण ये टकराव ज्यादा उग्र होता जा रहा है.
आर्थिक जानकार, पत्रकार और राजनेता अरुण शौरी प्रेस के ऊपर भारी दबाव के संदर्भ में कहते हैं, “यह आने वाले महीनों में और भी तेज़ होगा, पहला, चूंकि वर्तमान सरकार का रवैया ऐसा है. सरकार की प्रकृति तानाशाही की है. दूसरा, विज्ञापनों और भाषणों के दावों और जमीनी हकीकत में बहुत बड़ा अंतर है, चाहे एक किसान हो या बेरोजगार हो, यह खाई बहुत गहरी हो चुकी है. ऐसी स्थिति में सरकार न सिर्फ मीडिया प्रबंधन करेगी बल्कि विरोधी स्वरों को दबाने का भी प्रयास करेगी.”
भारत, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का ख्याति प्राप्त है, उसे अपने नागरिकों का मौलिक अधिकार सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए. मौलिक अधिकार सुनिश्चित करने की राह में आने वाली बाधाओं को खत्म करने की कोशिश की जानी चाहिए.
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