एक ख़त मीडिया को प्रेस्टिट्यूट/प्रेश्या कहने वालों के नाम

यह खुला ख़त प्रेस्टिट्यूट जैसे शब्दों के उस पहलू को छूता है जिसे पढ़ने के बाद इस शब्द के समर्थक खुद थोड़ा असहाय महसूस करेंगे, पर जरूरी है.

WrittenBy:रीवा सिंह
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आपको ‘प्यारे’ लिखकर ख़त की शुरुआत करना न कोई औपचारिकता है और न ही मैं इसके लिए बाध्य हूं. मुझे वाकई आपकी मासूमियत पर तरस आता है जब आपके संकुचित शब्द-भण्डार को देखती हूं, और देखती हूं कि कैसे अपने आवेश, अपनी दृढ़ता, अपनी भावनात्मकता को ज़ाहिर करते हुए आप अक्सर मीडिया को एक ही शब्द में समेट देते हैं- प्रेस्टिट्यूट/प्रेश्या.

आपको प्रेस/मीडिया के काम करने के तरीके पर आपत्ति होती है, आपको लगता है कि मीडिया पक्षपाती हो रही है. कई बार आप अपनी वॉट्सऐप युनिवर्सिटी से बिना ओर-छोर की ख़बरें चलाकर ख़ुद ही पत्रकार और पत्रकारों की पाठशाला हो जाया करते हैं और मीडिया को पानी पी-पीकर कोसते हैं.

आप में से कुछ राइट विंग के समर्थक हैं कुछ लेफ़्ट विंग के लेकिन एक समानता दोनों में देखने को मिलती है और वो यह कि आपको जिस मीडिया हाउस की ख़बर के प्रकाशन / प्रसारण का तरीका नहीं पसंद आता उसे आप तुरंत ही ‘प्रेस्टिट्यूट’ कहकर ब्लैक-लिस्ट कर देते हैं.
बुद्धिमता, संवेदना, निष्पक्षता, विवेकशीलता की बात करने वाले आप महानुभावों को प्रेस के प्रति अपनी दर्जनों भावनाओं को जाहिर करने के लिए एक ही घिसा-पिटा शब्द मिलता है- प्रेस्टिट्यूट.

जो ग़लत लिखता है, ग़लत दिखाता है उसे बहिष्कार करने की ज़हमत उठाये बिना आप समूची पत्रकारिता जमात को एक साथ तोल देते हैं और अपमान, तिरस्कार व अपशब्द के रूप में आप जो क्रूरतम शब्द ढूंढ पाते हैं वो होता है प्रेस्टिट्यूट. आपकी बुद्धि यहीं आकर शिथिल हो जाती है.

प्रेस्टिट्यूट क्यों? क्योंकि वो प्रेस+प्रॉस्टिट्यूट को मिलाकर बनाया गया है और आपका विवेक दस बार गोते लगाने के बावजूद प्रॉस्टिट्यूशन से घटिया शब्द नहीं तलाश पाता है. आप ख़बरों की ख़रीद-फ़रोख़्त को, समाचार के व्यापारीकरण को भी एक स्त्री की देह के व्याकरण के साथ जोड़े बिना निम्नतम साबित नहीं कर पाते.

आपको धरा की सबसे जटिल क्रिया वेश्यावृति लगती है और स्त्रियों के प्रति आपका सम्मान कुछ ऐसा है कि आम बहस-मारपीट से लेकर प्रेस को लताड़ने के लिए भी आपको एक स्त्री की योनि ही याद आती है. यहां पहुंचे बिना आपके उद्वेग को सुकून नहीं मिलता.

विश्व में व्याप्त किसी भी तत्व को घटिया साबित करने के लिए आपकी व्याकुलता तबतक शांत नहीं होती जबतक आप उसमें औरत-जाति का तत्व शामिल नहीं करते. अपनी सबसे बुरी स्थिति में भी प्रेस का संबंध कलम, माइक, न्यूज़रूम, घटनास्थल, पेडन्यूज़, पीत-पत्रकारिता तक ही रहता है लेकिन आपकी कुंठा को शांत करने के लिए पीत-पत्रकारिता जैसा अभिशापित शब्द कोई मायने नहीं रखता है, आपके मन को तभी शांति मिलती है जब आप उसे एक औरत के जिस्म से जोड़ते हैं क्योंकि आपकी मंद बुद्धि अब तक इससे घिनौना कुछ भी तलाश नहीं पायी है.

एक बात और जोड़ दूं, वेश्यावृति में कुछ भी अच्छा नहीं है. जबरन धकेला जाना तो अभिशाप है लेकिन कभी फ़ुर्सत में उनकी जिजीविषा को समझने का प्रयास करें. आपके पास मरने के हज़ार बहाने हैं, वो जीने की इच्छा को बचाए रखने के लिए अपना जिस्म भी बेच देती हैं. उनसे भी आपको बहुत कुछ सीखने को मिलेगा अगर आप हाड़-मांस के लोथड़े के अतिरिक्त कुछ और देखने के लिए नज़रें उठा सकें.

भारत के अतुल्य होने में किसी कमी की गुंजाइश नहीं थी लेकिन जनरल वीके सिंह जैसे कर्णधारों ने सोने पर सुहागा लगा दिया. देश के रक्षा विभाग के मुखिया होने के बावजूद प्रेस्टिट्यूट जैसे शब्द के इस्तेमाल ने पहले से ही कटघरे में खड़ी मीडिया को पता नहीं कितना बदनाम किया होगा लेकिन जनरल वीके सिंह के मानसिक उथलेपन को उजागर ज़रूर किया है.

आप किसी से असहमत हों तो विमर्श करें, विरोध करें लेकिन यह सब करने के लिए एक सही सलीका, कुछ सही शब्द चुनें क्योंकि आपकी अभिव्यक्ति आपको परिभाषित करती है.

आपको प्रेस के काम पर आपत्ति हो सकती है, उसे उजागर करें, खारिज करें. प्रेस्टिट्यूट कहकर कुंठा निकालना कोई समाधान नहीं है. समाधान तब निकलेगा जब आप किसी भी चीज़ को कमतर साबित करने के लिए उसमें स्त्रीत्व की तलाश बंद कर देंगे. समाधान तब निकलेगा जब आपका दिमाग औरत की योनि के बाहर निकलकर मुक्त भाव से सोच सकेगा. इससे आपके शब्दकोष में भी वृद्धि होगी और आपका तर्क भी वज़नदार लगेगा.

(साभार: फेसबुक पोस्ट)

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