यूपीए के दौर में मंत्रालयों से एडवायजरी आती थी, एनडीए के दौर में प्रधानमंत्री कार्यालय या भाजपा मुख्यालय से फोन आ जाता है.
शनिवार शाम को दिवंगत पत्रकार आलोक तोमर की याद में “यादों के आलोक” कार्यक्रम का आयोजन किया गया. कार्यक्रम आलोक की पत्नी सुप्रिया तोमर हर साल आयोजित करवाती है. चर्चा का विषय था- “सत्यातीत पत्रकारिता भारतीय संदर्भ.” विषय इतना क्लिष्ट की पत्रकार बिरादरी से बाहर वालों को समझ न आए तो कोई आश्चर्य नहीं. सत्यातीत माने पोस्ट ट्रुथ का हिंदी अनुवाद. कार्यक्रम में मौजूद ज्यादातर लोगों की तरह इस रिपोर्टर ने भी यह शब्द पहली बार सुना.
कार्यक्रम में पत्रकारिता के कई पुराने दिग्गज जमा हुए. कुछ जमे हुए, कुछ उखड़ चुके. अतिथियों के सामने कार्यक्रम की विषयवस्तु पेश करने की जिम्मेदारी थी भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली के प्रोफेसर आनंद प्रधान पर. मुख्य वक्ता के तौर पर वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, एनके सिंह, पुण्य प्रसून बाजपेयी, राजदीप सरदेसाई और राम बहादुर राय को शामिल होना था लेकिन एनके सिंह कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सके.
सभी वक्ताओं ने बारी-बारी से अपनी बात रखी. सत्यातीत पत्रकारिता को लेकर सबकी अलग-अलग राय थी. किसी ने कहा कि यह भारतीय पत्रकारिता में नया नहीं है, वहीं कुछ ने इसके विपक्ष में भी तर्क दिए. एक वक्ता ने तो सत्यातीत पत्रकारिता विषय को ही खारिज कर दिया. लेकिन कार्यक्रम के बाद खासकर पुण्य प्रसून बाजपेयी के कथन का एक हिस्सा कुछ डिजिटल पोर्टल्स और अख़बार वाले ले उड़े.
दरअसल राजदीप सरदेसाई के बाद पुण्य प्रसून बाजपेयी बोलने आए. उन्होंने अपने पहले बोले गए वक्ताओं पर तंज कसते हुए कहा- “ऐसा लग रहा है सत्यातीत पत्रकारिता पर चर्चा न होकर मोदी विरोध का मंच हो गया है.” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए पुण्य प्रसून ने कहा- “टीवी न्यूज़ चैनलों की स्थिति पहले भी दूभर थी और अब भी वही है. फर्क सिर्फ तरीके में आया है. यूपीए की सरकार में मंत्रालय से एडवायजरी जारी कर दी जाती थी. उसके बाद संपादक उस ख़बर को हटा लेते थे. आज यह डर बना रहता है कि कहीं से भी फोन आ सकता है. वह फोन प्रधानमंत्री कार्यालय, भाजपा मुख्यालय, सूचना व प्रसारण मंत्रालय या फिर सेक्रेटरी लेवल के किसी अधिकारी का भी हो सकता है.”
प्रसून ने अपनी बात जारी रखी. उन्होंने उदाहरण दिया कि एक सेक्रेटरी लेवल के अधिकारी ने न्यूज़रूम में फोन कर पूछा कि फलां तथ्य या फलां जानकारी आपको कहां से मिली. इस ख़बर का सोर्स क्या था. न्यूज़ रूम में मौजूद पत्रकार उस अधिकारी को सोर्स और जानकारी के बारे में बता रहा होता है. इसपर पुण्य प्रसून ने ही तंज किया कि इसका मतलब है कि सेक्रेटरी भी अपना काम नहीं कर रहा है, सिर्फ टीवी ही देख रहा है.
पुण्य प्रसून ने यह भी कहा कि मान लीजिए भारत में कोई लोकतंत्र नहीं है. ऐसा मान लेने से मीडिया भी कोई ‘फोर्थ स्टेट’ नहीं रहेगा क्योंकि दरअसल कहीं पत्रकारिता हो ही नहीं रही है. उन्होंने यूपीए के दौर में भ्रष्टाचार के मामले की बात करते हुए कहा कि हमारे पास सारे दस्तावेज थे लेकिन कोई भी अख़बार या चैनल उसे चलाने को तैयार नहीं था.
इसके बाद कई डिजिटल पोर्टल्स ने पुण्य प्रसून के व्याख्यान को सनीसनीखेज बनाने की चक्कर में सम्रगता से बात नहीं पहुंचाई. ज्यादातर लोगों ने हेडिंग चलाई- “अब संपादक को सीधे पीएमओ से फोन आ जाता है.” जबकि प्रसून ने पूरी बात बिल्कुल दूसरे संदर्भ में और समग्रता में कही जिसमें यूपीए से लेकर एनडीए तक की सरकारें एक जैसा ही बर्ताव करती हैं.
इसके पहले बोलने वाले वक्ताओं ने भी लोकतांत्रिक संस्थानों के ढहने पर चिंता जताई. उर्मिलेश ने अपने पुराने दिनों के अनुभव साझा करते हुए सत्यातीत पत्रकारिता की चर्चा की. उन्होंने बताया, कैसे पटना के पास पुनपुन से एक दफ़े ख़बर आई की उग्रवादियों ने पुल गिरा दिया है. जब वे वहां पहुंचे तो देखा पुल जस का तस है. जब वे तथाकथित उग्रवादियों (जैसा मेनस्ट्रीम मीडिया में लिखा जा रहा था) से मिले तो उन्हें मालूम चला कि वे लोग मुसहर और गरीब मजदूर हैं. उस क्षेत्र के ठेकेदार चाहते थे कि पुल ढहा दिया जाए.
राजदीप ने भी मीडिया एथिक्स की चर्चा की. उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों से सत्यातीत पत्रकारिता के संदर्भ में उदाहरण दिए- “जब देश के प्रधानमंत्री ही गणेश के सूंड़नुमा नाक को प्लास्टिक सर्जरी बताते हैं तो किससे उम्मीद की जाय.” साथ ही उन्होंने कहा कि हिंदी और अंग्रेजी के पत्रकारों को ज्यादा से ज्यादा मंच साझा करना चाहिए ताकि भाषाओं के बीच की दूरी पाटी जा सके.
सबसे आखिरी में बोलने आए वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय. उन्होंने आपातकाल के दिनों को याद किया और बहस के विषय को ही खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि सत्यातीत पत्रकारिता जैसी कोई चीज नहीं होती सिर्फ सत्य होता है. उनके भाषण का लब्बोलुआब रहा कि मीडिया को अब रेगुलेशन की जरूरत है और यह मीडिया कमीशन बनाने से ही हो सकेगा. राय साब खुद सरकार से जुड़े एक महत्वपूर्ण पद पर हैं, सत्ता में उनकी पहुंच है, उनकी वरिष्ठता का सम्मान है, तो फिर प्रेस कमीशन का महान और जरूरी काम वे अपनी ही सरकार के चार सालों में क्यों नहीं करवा पाए?
मनमोहन सिंह सरकार को आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने तबके प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे को याद करते हुए बताया, कि यूपीए सरकार ने प्रेस कमीशन बनने में कोई योगदान नहीं दिया. पर उन्होंने ये नहीं बताया कि मोदी सरकार ने क्या काम किया इस दिशा में. इस सरकार में प्रधानमंत्री ने एक अदद मीडिया सलाहकार तक रखने की जहमत नहीं उठाई, बावजूद इसके राय साब को हरीश खरे और मनमोहन सिंह ही निशाना साधने के लिए मिले.
राम बहादुर राय ने राजदीप सरदेसाई पर व्यंग करते हुए कहा, “इतना तो मोदी सरकार का असर हुआ ही है कि राजदीप जैसे पत्रकारों को आत्मा की याद लगी है.” इसपर दर्शक दीर्घा तालियों से गूंज उठी.