स्वायत्तता की आड़ में सरकारों के पास अब कहने का विकल्प होगा कि वे सभी स्वायत्त संस्थाएं हैं और हम कुछ नहीं कर सकते.
पहले से ही सत्ता की नकारात्मकता को झेल रही उच्च शिक्षा में स्वायत्तता लेकर एक बड़ा फैसला किया गया है. मोदी सरकार इसे एक ऐतिहासिक फैसला मानते हुए दावा कर रही है कि इससे शिक्षा की गुणवत्ता सुधरेगी और हमारी संस्थाएं नई ऊंचाइयों को छू सकेंगी. उनका भी नाम दुनिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में शुमार होगा.
इसी को ध्यान में रखते हुए 62 उच्च शिक्षा संस्थानों को जिसमें निजी और सार्वजनिक दोनों शिक्षण संस्थाएं शामिल है को स्वायत्तता दे दी गई है. पहले यूजीसी के नियंत्रण में रहकर यह संस्थाएं काम कर रही थी जो अब यूजीसी के नियंत्रण से बाहर होंगी. ये अब अपना पाठ्यक्रम और अपनी क्षमता के हिसाब से विषयों और पाठ्यक्रम का चयन कर सकेंगी, शिक्षकों की नियुक्ति कर सकेंगे और 20 फीसद विदेशी शिक्षकों को भी नियोजित कर सकेंगी.
एक हिसाब से शिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण होगा और हमारी संस्थाएं विश्व मानचित्र पर अपनी अमिट छाप छोड़ सकेंगी. इस तरह बहुत जल्द ही भारत विश्व गुरु बनेगा. इन्हीं संभावनाओं से नए और शक्तिशाली भारत का निर्माण होगा.
श्रेणीबद्ध स्वच्छता के तहत संस्थानों को एनएएसी रैंकिंग को आधार बनाकर उन्हें रोजमर्रा के प्रशासन में यूजीसी से मुक्ति दे दी गई है. सकारात्मकता के साथ भी इस क़दम की विशेषता और खामियों पर प्रकाश डालें तो इस नए कानून में खूबी कम और ख़ामी ज्यादा नजर आती है.
श्रेणीबद्ध सहायता का सरकारी फरमान जल्दी ही उच्च शिक्षा को महंगा कर देगी. अतः संस्थानों को चलाने और उनकी गुणवत्ता को सुधारने के लिए छात्रों से ज्यादा से ज्यादा फीस वसूला जाएगा तभी ये संस्थाए चल पाएंगी. अब ये अपनी प्रशासनिक और अकादमिक जरूरतों के लिए सरकार से गुहार नहीं लगा सकेंगे क्योंकि सरकारें उच्च शिक्षा का खर्च उठाने में अपने को असमर्थ बता रही हैं.
आने वाले वर्षों में युवा जनसंख्या में बढ़ोत्तरी की संभावना को देखते हुए देश को और अधिक उच्च शैक्षिक संस्थानों की आवश्यकता होगी साथ ही सीटों को बढ़ाने की आवश्यकता भी होगी. इस लिहाज से यूजीसी द्वारा दी गई स्वायत्तता शिक्षण संस्थानों और सरकारों की ढाल बन जाएगी. सरकारें कहेंगी अपना संसाधन खुद जुटाओ, फीस बढ़ाओ, सीट बढ़ाओ.
ऐसी स्थिति में सरकारी संस्थानों की अपनी सीमा होगी, जाहिर है बढ़ी हुई छात्रों की संख्या को इसमें समायोजित नहीं किया जा सकेगा. उस स्थिति में युवाओं के पास निजी संस्थानों के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचेगा. इस तरह लंबे समय से चल रही शिक्षा के निजीकरण की सरकारी कोशिश अपने मुकाम पर पहुंच जाएगी. जो सक्षम होगा वो शिक्षा पाएगा, जो अक्षम होंगे वे अपने सपने को संसाधनों की कमी के भेंट चढ़ा देंगे.
सरकार के पास अब कहने का विकल्प होगा कि वे सभी स्वायत्त संस्थाएं हैं और हम कुछ नहीं कर सकते. कुछ हिम्मत जुटाकर अपने ख्वाबों को संभालने के चक्कर में रोजगार से पहले शिक्षा के लिए लोन के कर्ज के चक्कर मे फंस जाएंगे और कोर्स पूरा होने के बाद अगर नौकरी नहीं मिली तो कर्ज वापसी के लिए या तो जुर्म करेंगे या आत्महत्या.
तब तक शिक्षा का बाजारीकरण इतना ज्यादा होगा कि पकौड़ा बेचकर भी लोन चुका पाना संभव नहीं होगा और हवाई जहाज पकड़कर विदेश भागने की बात तो भूल ही जाए. इन सब से बच गए तो कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने पड़ेंगे, लोन माफी के लिए. तब शायद किसानों की तरह सरकार शिक्षक और छात्रों का भी कर्ज माफ कर दें.
पिछले कुछ वर्षों से संक्रमण के दौर से गुजर रही उच्च शिक्षा में हिफ़ा (HEFA- Higher Education Funding Agency) की स्थापना के बाद अब सातवें वेतन आयोग के साथ संसाधन जुटाने का 70 : 30 फार्मूला जैसी पिछड़ी शिक्षा नीति मील का पत्थर साबित होगा या नहीं यह तो सरकारें अपनी सुविधा से बताती रहेंगी लेकिन वंचित वर्गों के लिए उच्च शिक्षा में दखल के दृष्टिकोण से यह क़दम ताबूत में अंतिम कील जरूर साबित होगा.
भारत की उच्च शिक्षा रिपोर्ट-2016 के अवलोकन से पता चलता है कि सार्वजनिक शिक्षा के लिए संदेश साफ है. भारत जो अभी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उच्च शिक्षा व्यवस्था का धारक है, जहां करीब 700 से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं, 40 हजार से ज्यादा कॉलेज हैं और 33 करोड़ से ज्यादा विद्यार्थी हैं जो इन शिक्षण संस्थानों में दाखिल है.
इनमें से बहुत से संस्थान सरकारी अनुदान पर चल रहे हैं. जनसंख्या ग्राफ बताता है कि 2020 के दशक में भारत में सबसे ज्यादा युवा होंगे और उच्च शिक्षा की मांग भी सबसे ज्यादा होगी. तब अगर सरकारी संस्थाएं नहीं होगी तो अभूतपूर्व असमानता वाले इस देश में उच्च शिक्षा में भी काफी असमानता दिखेगी.
इतिहास बताता है कि दुनिया के जिन मुल्कों में उच्च शिक्षा का दायरा छोटा रहा है वहां अमूमन अर्थव्यवस्था छोटी रही है लोगों की प्रति व्यक्ति आय कम रहती है. ऐसे समाजों में सामाजिक असंतोष ज्यादा रहता है. इसके उलट उन देशों में जहां उच्च शिक्षा सार्वजनिक है, लोग आसानी से पा सकते हैं, वहां की आर्थिक स्थिति भी ठीक है. लोग खुशहाल हैं और समाज प्रगतिशील है.
एक तरफ हम बड़े-बड़े आर्थिक विकास के दावे कर रहे हैं वहीं 21वीं शताब्दी में भी हम शिक्षा पर खर्च बढ़ाने से डरते हैं. शैक्षिक संस्थानों को उनके मर्जी मुताबिक बढ़ावा देने से घबराहट होती है. क्या ऐसी स्थिति में भारत सही में विश्व गुरु बन सकता है यह बहुत बड़ा सवाल है.
पिछले हफ्ते भर से दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक हड़ताल पर हैं और अब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी और शिक्षक जेएनयू परिसर से पार्लियामेंट तक मार्च कर रहे हैं. चिलचिलाती धूप में छात्रों का मार्च सिर्फ जेएनयू प्रशासन के प्रति आक्रोश नहीं है बल्कि सरकार की नीतियों के प्रति विरोध है. इनसे आज की ही नहीं, कल आने वाली पीढ़ियां भी परेशान होंगी जब सस्ती और अच्छी शिक्षा उनके बूते के बाहर होगी.
स्कूली शिक्षा पहले ही निजीकरण की भेंट चढ़ चुकी है. स्थिति ऐसी ही बनी रही तो आने वाले समय में विश्वविद्यालय शिक्षा का भी वही हाल होगा जो स्कूली शिक्षा का हुआ है. यही समय है जब सरकार की उच्च शिक्षा विरोधी नीतियों का विरोध किया जाए और एक व्यापक चर्चा के बाद उच्च शिक्षा नीतियों में परिवर्तन करते हुए जन सहभागिता को बढ़ाते हुए ऐसी शिक्षा व्यवस्था के बारे में सोचा जाए जो ज्यादा से ज्यादा लोगों को सिर्फ कौशल ही ना सिखाएं बल्कि जीवन की कुशलता के गुण भी सिखाए. महान शिक्षाविद जॉन डेवी ने ठीक ही कहा है शिक्षा जीवन जीने के लिए तैयारी नहीं बल्कि अपने आप में जीवन है.