कविता कोई पहनावा नहीं बल्कि, कविता शब्दों की अदालत में मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का हलफनामा है.
लिखने-पढ़ने वालों के बीच एक सवाल जो सबसे ज्यादा जगह पाता है वो है कि कविता कोई क्यों लिखे? कविता का सामाजिक महत्व क्या है? साहित्य के नवरसों में छंदों के बंधन से बनने वाली कविताएं मानवीय जीवन को कैसे प्रभावित करती हैं. साहित्यकारों ने समय-समय पर अपने युग के आग्रहों के आधार पर कविता को परिभाषित किया है. उनके महत्व के बारे में बताया है. कविता क्रांति के संसाधनों के बतौर भी प्रयुक्त हुई और प्रेम की अभिव्यक्तियों के लिए भी. कविता ठंडे-बुझे चुल्हों की पीड़ा भी बनी और कविता स्वांतः सुखाय के उद्देश्यों का परिणाम भी बनी. ये सभी चीजें कविता के महत्व को बताती ही हैं साथ ही कविता की जरूरतों पर भी बल डाल जाती हैं.
कविता को अक्सर प्रतिभा के बीज का पौधा माना जाता है. ऐसा कहा जाता है कि कोई कवि बनता नहीं है बल्कि कवि पैदा होता है. निराला ने इस संबंध में कहा कि जो लोग यह समझते हैं कि कवि पैदा होता है, बनाया नहीं जाता, वे इसका वैज्ञानिक तात्पर्य नहीं जानते. काव्य-पाठ, सूक्ष्म अध्ययन, भाषा-ज्ञान से कवि संस्कार पैदा होते हैं.
निराला की मानें तो (और मानना भी चाहिए) कविता कोई सभ्यता नहीं है, कविता संस्कार है. भाषा-संस्कार. यह भाषा चाहे लिखित हो या मौखिक. लिखित भाषा के जानकार ही केवल कवि नहीं हो सकते. कबीर बोलचाल की भाषा के विशेषज्ञ थे. ‘मसि कागद छूयो नहीं, कलम गह्यो नहीं हाथ.’ लेकिन आज के समय में उनके जैसी चेतना वाला दूसरा कोई कवि नहीं है. इसलिए कविता करना लेखन और प्रकाशन जैसी औपचारिकताओं के अधीन है ही नहीं.
कविता अंतर्मन की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है. किसी का मौन पिघलकर कागज पर उतर जाए तो वह कविता बन जाता है. कविता मनुष्य के आत्म-वार्तालाप का भी साधन है. धूमिल के शब्दों में कहें तो “कविता घेराव में किसी बौखलाए हुए आदमी का संक्षिप्त एकालाप है.”
कविता अपने-अपने युगों का एक विश्वसनीय गवाह है, जिसमें उसके दौर की प्रतिनिधि पीड़ा, आक्रोश और जीवनशैली का प्रतिबिंब होता है. कुंवर नारायण शायद इसीलिए कह गए कि- “कविता वक्तव्य नहीं गवाह है, कभी हमारे सामने, कभी हमसे पहले, कभी हमारे बाद.”
रघुवीर सहाय के शब्दों में ‘कविता सृजन की आवाज है.’ उनके लिए कविता सारी दुनिया के मरघट बनने के बाद भी जीवित रहने वाली शाश्वत, अमरकृति है. कविता आत्मा की तरह अजन्मा है और अजर भी. भावनाएं सनातन हैं जिन्हें किसी युग का कोई संवेदनशील रचनाकार पहले तो अनुभव के उपकरण से आविष्कृत करता है बाद में लिख देता है. गोपालदास नीरज भी तो कहते हैं- ‘आत्मा के सौंदर्य का शब्द-रूप है काव्य.’
तुलसीदास ने स्वांतः सुखाय रामचरितमानस रच डाला. भाषा के इस्तेमाल का ऐसा उदाहरण बेहद दुर्लभ है जैसा तुलसी ने मानस में प्रयुक्त है. इस काव्य के पीछे वीरगाथाकाल के कवियों की तरह आश्रयदाताओं के आश्रय का उद्देश्य नहीं था.
आज के वक्त की बात करें तो कविता स्वांतः सुखाय के लक्ष्यों से भी लिखी जा रही है और व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी. वक्त के साथ कविता के उद्देश्य भी बदले हैं. मा निषाद की व्यथा से निकली कविता की धारा आज भवानी प्रसाद मिश्र के जी हां हुजूर! मैं गीत बेचता हूं, तक आ पहुंची है.
अब कवि सम्मेलनों का दौर है. मंचों पर हल्की और मनोरंजक कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं. इन सबके बीच भी कविता के पुराने उद्देश्य नेपथ्य में नहीं हैं. उन सब पर भी लगातार काम हो रहा है. क्रांति, शांति, पीड़ा, अभिव्यक्ति आदि भावों की गंभीर कविताएं अब भी चलन से बाहर नहीं गईं.
मेरे लिए कविता एक विवश मौन की अभिव्यक्ति है. मैं जब शुरु-शुरु में लिखता तो मुझे नहीं पता होता कि जो मैं लिख रहा हूं वो कविता है या नहीं. मुझे ऐसा लगता कि छंदों और अलंकारों के अनुशासन से सज्जित रचनाएं ही कविता होती हैं. इस कसौटी पर मेरा लिखा कहीं खारिज न हो जाए.
खारिज होने का डर अब नहीं है, क्योंकि कविता पढ़ते-लिखते एक बात स्वतः समझ आ गई कि कविता या कवि धर्म को संस्थाएं संचालित नहीं कर सकतीं. यह तो एक प्राचीन सनातन धारा है जो मनोभावों और अनुभूतियों के हिम से निकलती है. कविता केवल शब्दों से लिखी जाने वाली कोई इबारत नहीं. इस बारे में धूमिल से पूछिए तो बताएंगे कि कविता कोई पहनावा, कुरता, पायजामा नहीं बल्कि कविता शब्दों की अदालत में मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का हलफनामा है. कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है.