केदारनाथ सिंह की कविता में लोक का ठाठ और कलात्मक ऊंचाई दोनों एक साथ मिलते हैं.
पहला मौका है जब अपने किसी प्रिय की मौत पर कोई बड़ी बात कहने का मन नहीं कर रहा है. केदारनाथ सिंह की देह का कद भी हल्का था. वह बड़े होने से बहुत-बहुत अधिक तरल, मार्मिक, अनौपचारिक और जीवंत थे.
The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.
Contributeतरलता और हल्केपन की वजह से वह जहां पहुंच जाया करते थे वहां ज्ञान, प्रचार और प्रायोजित धारणाओं की सिंचाई से खिलाया गया कोई आदमी नहीं पहुंच सकता. भले ही वह सचमुच का एक कवि ही क्यों न हो.
यहां सचमुच, कहना जरूरी लगता है क्योंकि इन दिनों फेसबुक और पत्रिकाओं के पन्नों पर कविता का हैजा फैला हुआ है. कुछ काम का कहने से ज्यादा खुद की फोटो को आक्रामक ढंग से लोगों की स्मृति में बिठाने की बेहया कोशिश करने वाले प्लास्टिक के कवि-कवियित्रियों की भरमार है.
केदारनाथ सिंह से आखिरी मुलाकात दो साल पहले एक रात, नखलऊ के एक होटल में हुई थी जिसका निर्माण अवैध घोषित कर गिराने का आदेश हो चुका था. कमरे ही कमरे थे लेकिन सब खाली. पार्किग की जगह में रिक्शा खड़ा करने वाले एक गरीब से फीस के रूप में बेयरा का काम लिया जा रहा था.
अकेले एक कमरे में बत्ती जल रही थी जिसमें वह ठहरे थे. जैसे यह एक जिंदा फिल्म का दृश्य था जिसमें फरेब, तिकड़म, गुंडागर्दी और अन्याय के वर्चस्व के बीच में एक कवि ठहरा हुआ था, जिसकी तड़प थी:
क्या करूं?
क्या करूं, कि लगे कि मैं इन्हीं में से हूं,
इन्हीं का हूं, कि यहीं हैं मेरे लोग,
जिनका मैं दम भरता हूं कविता में/
और यही, यही जो मुझे कभी नहीं पढ़ेंगे.
जो उन्हें कभी नहीं पढ़ेंगे, वही थे जिन्हें धमकी-लालच और अंततः जबरन पैसे देकर अपने घरों से भगाए जाने के बाद यह होटल बनाया गया होगा. यह ज़रा देर की जिंदा फिल्म विचित्रताओं के सामंजस्य से बने हमारे समाज में कवि और कविता की वास्तविक जगह दिखाती थी.
उस मुलाकात में वह अपने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की विद्वता के बारे में नहीं बल्कि अपने चेले को नींद से जगाने के ढंग के बारे में बता रहे थे. आचार्य ने उन्हें एक सुबह गाड़ी पकड़ने की हड़बड़ी के बावजूद गमछे की झालर से पैरों पर छूकर जगाया था.
उन्हें गमछे और तौलिया का फर्क पता था जो एक कविता में इस तरह आता है:
तू हिंदी में सूख रहा है, सूख,
मै अंग्रेजी में झपकी लेता हूं.
उनकी कविता में लोक का ठाठ और कलात्मक ऊंचाई दोनों एक साथ मिलते हैं. भाषा से जीवन और जीवन से भाषा में आना-जाना बहुत आसान लगने लगता है लेकिन यह एक विरल बात है. आमतौर पर कवि या तो नारे लिखने लगता है या फिर भाषा के सलमे-सितारे टांकने का अदद कारीगर होकर खर्च हो जाता है.
जो भोजपुरी बोली उनके लिए गर्व थी, मेरे लिए एक वक्त डर और कमजोरी का कारण थी. मैने इसे अजीब ढंग से जाना. मैं ऐसे वक्त में उत्तर-पूर्व गया था जब वहां यूपी-बिहार के हिंदी भाषियों की उल्फा (यूनाइटेट लिबरेशन फ्रंट आफ अहोम) के उग्रवादी हत्याएं कर रहे थे.
कायदे से देखें तो ये लोग हिंदीभाषी नहीं भोजपुरिया थे. उन दिनों मैं अपना परिचय इस तरह देता था- हमारा नाम अनील यादव है… फिर डर जाता था कि कहीं भोजपुरिया टोन के कारण पहचान न लिया जाऊं. खुद पर झुंझलाता था कि आदत से मजबूर होकर मैं कितने लोगों की तरफ से अपना परिचय देता हूं.
बाद में उनकी कविता “भोजपुरी” पढ़कर जाना कि यह तो गुमान की चीज थी:
लोकतंत्र के जन्म से बहुत पहले का,
एक जिन्दा ध्वनि-लोकतंत्र है यह,
जिसके एक छोटे से ‘हम’’ में,
तुम सुन सकते हो,
करोड़ों ‘मैं’ की घड़कनें.
तब पता नहीं था कि एक दिन बलिया के केदारनाथ सिंह की कविता मुझे अपनी गाजीपुरिया जड़ों से इस तरह मिलवाएगी.
एक आम आदमी किसी कवि को कैसे जाने? यह एक अष्टावक्र किस्म का सवाल है क्योंकि हिंदी के ज्यादातर कवियों को पढ़कर ब्रह्मांड के बारे में गूगल जितनी जानकारी मिल जाती है लेकिन खुद उनके बारे में कुछ पता नही चलता क्योंकि वे भारी भरकम शब्दों के पीछे छिप जाते हैं. तब पाठक कवि और कविता दोंनों पर यकीन नहीं करता. इसकी तस्दीक प्रकाशकों से की जा सकती है जो आजकल कविता की किताब छापने से भागने लगे हैं.
लेकिन केदारनाथ सिंह की बात कुछ और है. आम लोग उन्हें अगर पढ़ें तो अपने डर और शर्म में पा सकते है:
मुझे थाने से चिढ़ है,
मैं थाने की धज्जियां उड़ाता हूं,
मैं उस तरफ इशारा करता हूं,
जिधर थाना नहीं है.
भूमंडलीकरण, बाजार और प्रकृति से अलगाए जाने पर बहुत कुछ कहा जा रहा है लेकिन आदमी और प्रकृति के बीच के संबंध के बारे में इस अदा में किस कवि ने कहा है:
कैसा रहे,
बाजार न आए बीच में,
और हम एक बार,
चुपके से मिल आएं चावल से,
मिल आएं नमक से, पुदीने से,
कैसा रहे एक बार सिर्फ…एक बार.
केदारनाथ सिंह का जाना लोक और राजनीति के बीच के लचकहवा पुल का टूट जाना है. उन्हें खूब चाहकर भी भूला पाना मुश्किल होगा क्योंकि उनकी कविताएं आदमी की जैविकता में. उसकी आदिम आदतों में बहुत दिनों तक बहती रहेंगी.
General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.
Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?