रेणु की जयंती पर साल भर पहले हुई उनके गांव की एक यात्रा का विशेष वृत्तांत.
फणीश्वरनाथ रेणु अपनी किताब के साथ सेल्फी पोस्ट कर तृप्त हो जाने वाले लेखक नहीं थे. न राजनीति से मौका देखकर बिदकने और चिपकने वाले मौकापरस्त बुद्धिजीवी.
उनका मानना था कि खुद पहन कर देखूं कि जूता कहां काटता है. 1972 में फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़े. अपने वक्त के तीन बडे जनआंदोलनों में- आजादी के आंदोलन, राणाशाही के खिलाफ नेपाल की क्रांति और आपातकाल के खिलाफ सदेह रहे. जेल गए. पटना में जयप्रकाश नारायण पर लाठीचार्ज के विरोध में पद्मश्री को पापश्री कहते हुए लौटा दिया था.
अपने उपन्यासों में उन्होंने जाति, गरीबी, अंधविश्वास, विचारधाराओं का पांखड, राजनीति के तहखानों का हाल, लोकजीवन की रंगीनियां और देहातियों की जिजिविषा को उस लोकगीत की लय में लिखा जो अब तक साहित्य में अनसुनी थी. भारतीय लोकजीवन का वैसा कोई और गद्यकार नहीं हुआ.
बिहार के अररिया जिले में उनका गांव औराही हिंगंना अब एक साहित्यिक तीर्थ बन चुका है जहां अक्सर रेणु के पाठक, शोधार्थी, लेखक और तस्वीरबाज पहुंचते रहते हैं.
पिछले साल बिहार के बाढ़ग्रस्त इलाकों में बाइक से घूमते हुए मैं और अखिल रंजन रोज ही बारिश और कीचड़ में नहा रहे थे लेकिन रेणु के गांव जाकर उनकी यादों में डुबकी लगाना बहुत खास था. हमें उस वक्त की धार, टूटते तटबंध, तबाही और हाहाकार का अंदाजा हुआ जिसमें हम जी रहे हैं.
हम सात सितंबर की दोपहर रेणु के दरवाजे पर पहुंचे. उस दिन अररिया समेत सात जिलों में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई थीं क्योंकि बाढ़ में डूबकर मरे पशुओं के शव को बकरीद पर काटा गया बताते हुए फोटोशाप तस्वीरें व्हाटसैप पर वायरल की जा रही थीं. दो दिन पहले एक मंत्री ने बिहार विधानसभा में बयान दिया था कि बाढ़ चूहों के कारण आई है क्योंकि उन्होंने कोसी नदी के बांध में लाखों छेद बना दिए हैं. यह सड़कों और रेल की पटरियों पर शरण लिए बेघरबार बाढ़ पीडितों को हिंदू-मुसलमान में बांटकर लड़ाने और राहत के काम में हो रही लूट को चूहों के नाम पर भटकाने का एक और जहरीला नाटक था.
दरवाजे पर एक ओर रेणु के बेटे, पूर्व विधायक पद्मपराग राय वेणु की गाड़ी खड़ी थी जिसके आगे संवदिया लिखा था. संवदिया रेणु की एक कहानी है जिसमें हरकारा सिर्फ संदेशा नहीं पहुंचाता बल्कि संदेश भेजने वाले या वाली की भावनाओं की तर्जुमानी भी करता है. हम खुश हुए कि रेणु की कहानी को कितना सही जगह उपयोग किया गया है. एक जनप्रतिनिधि विधानसभा या संसद में जाकर जनता की भावनाओं का शासकीय भाषा में अनुवाद ही तो करता है.
लंबे ओसारे के एक ओर पेन्ट से लिखा था- “आप नहीं रहे लेकिन आपके सुशासन का सपना साकार हो गया.”
ओसारे में रेणु के दो बेटों पद्मपराग राय वेणु और उनसे बीस साल छोटे दक्षिणेश्वर प्रसाद राय उर्फ पप्पू से मुलाकात हुई. वेणु 2010 में भाजपा के टिकट पर फारबिसगंज से रिकार्ड 70400 वोटों से चुनाव जीतकर विधायक हुए थे. अगली बार टिकट नहीं मिला तो सुशासन बाबू (नीतिश कुमार) की पार्टी जद (यू) में चले आए थे.
सबसे छोटे बेटे पप्पू, रेणुजी की स्मृति में एक संग्रहालय और सभागार बनवाने में लगे थे और दिल्ली जाने वाली सीमांचल एक्सप्रेस का नाम मैला आंचल एक्सप्रेस करने की मांग कर रहे थे.
पद्मपराग राय वेणु ने भात और पोस्तो का झोल खिलाया. मैंने पूछा, “आप भाजपा से कैसे चुनाव लड़ गए.” जवाब में उन्होंने एक छोटा सा किस्सा सुनाया-
“बाबूजी ने रास्ता दिखाया था. वह भी सन बहत्तर में फारबिसगंज से निर्दल चुनाव लड़े थे. वह बांग्लादेश के नेता शेख मुजीबुर्रहमान को बहुत मानते थे जिनका चुनाव चिन्ह नाव हुआ करता था. इसीलिए बाबू जी ने भी इलेक्शन कमीशन से कहकर चुनाव चिन्ह नाव लिया था. वो बताना चाहते थे कि समाज बदलने की इच्छा रखने वाला एक लेखक भी चुनाव लड़ सकता है. चार हजार के करीब वोट मिले. हार गए क्योंकि नाव कादो (कीचड़) में फंस गया था. लेकिन उसी नाव से एक कमल का बीज कादो में गिर गया था जो आकर सन् 2010 में खिला और हमको इतने वोट मिले जितने आजादी के बाद यहां किसी को नहीं मिले थे. इस बार टिकट मिलता तो एक लाख से ज्यादा वोट मिलते.”
वेणु ने बताया, “सबसे बड़े होने के चलते बाबूजी का जितना प्यार हमें मिला उतना दूसरे भाई बहनों को नहीं मिल पाया. हाईस्कूल में थे तो फारबिसगंज मैटिनी शो देखने जाते थे. वहां देखते थे कि दुकान पर गुलशन नंदा का उपन्यास दिखता है लेकिन बाबूजी का नहीं दिखता, लेकिन जीके में पूछा जाने लगा था कि रेणु कौन हैं. बाद में समझ आया कि बहुत बड़े आदमी थे. मैला आंचल पढ़ने के बाद मैंने उनसे पूछा था- आप कभी डाक्टरी करते थे क्या? बाबूजी हंसे- “समय ऐतै त सबकुछ जान जैबे”. आप नहीं जानते होंगे मैला आंचल के डा. प्रशांत बाबूजी खुद हैं और परती परिकथा के इंजीनियर भी वही हैं.”
पप्पू ने बताया- “बाबूजी काली के बहुत बड़े उपासक थे इसीलिए मेरा नाम दक्षिणेश्वर रखा. कलकत्ते के दक्षिणेश्वर में शक्तिपीठ है. बहुत दुख होता था कि वे कभी मेरे स्कूल में पैरेंट-टीचर मीटिंग में नहीं जाते थे. एक बार मैंने उनका मोदक (भांग) खा लिया था जिसके कारण दो दिन बेहोश रहा. हाईस्कूल में उनकी कोई कहानी ठेस पहली बार पढ़ी और बहुत रोया. इसके बाद साहित्य पढ़ने लगे. अब मुझे भी कुछ कुछ हो रहा है, मैं भी लिखना चाहता हूं.”
हम चलने लगे तो पद्मपराग राय वेणु भेंट में देने के लिए उस गाछ के दस नींबू तोड़कर लाए जो बाबू जी ने लगाया था. हम रास्ते भर भेंट को बांटते हुए किशनगंज-सिलीगुड़ी-कूचबिहार होते हुए भूटान की ओर बढ़ गए.
आज रेणु की जयंती पर वह तीर्थयात्रा याद आई. मैं रास्ते में सोच रहा था. मान लीजिए अगले चुनाव में वेणु वापस भाजपा में चले जाएं तो क्या औराही हिंगना की किसी दीवार पर लिखा मिलेगा- आप नहीं रहे लेकिन आपका अच्छे दिन का सपना साकार हो गया है.