राजकमल स्थापना दिवस: अनियंत्रित झटकों में लापता वक्त की आहट

राजकमल प्रकाशन समूह ने उनहत्तरवीं सालगिरह पर हिंदी के नामचीनों को अरूंधति रॉय के नजरिए से "वक्त की आहट" सुनने के लिए इंडियन हैबिटाट सेंटर में बुलाया था.

WrittenBy:अनिल यादव
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रूखी होती हवा और झरते पत्तों के बीच फागुन की उस शाम, राजकमल प्रकाशन समूह ने एक कम सत्तरवीं सालगिरह पर हिंदी के नामचीनों को अरूंधति रॉय के नजरिए से “वक्त की आहट” सुनने के लिए इंडियन हैबिटाट के सिल्वर ओक सभागार में बुलाया था. बहुमत में समान्य जन ही थे, वे जिन्हें सामान्य कहे जाने पर मिर्च लगती है लेकिन सम्मानित सुनने पर झेंप होती है. इन दोनों में से क्या कहें. इस अनिर्णय में समूह के सीईओ आमोद माहेश्वरी ऐसे हकलाए कि लगने लगा कि अब जल्दी से कुछ भी कह दें. किसे परवाह है. यह लम्हा किसी तरह बीत जाए बस!

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वार्ताकार आलोक राय थे. हिंदी की श्रेष्ठ मीनार प्रेमचंद के पोते. तीसरी पीढ़ी आते-आते इतना तो हुआ है कि वह अंग्रेजी में सोचने और इलाहाबाद में पैदा होकर सोनिया गांधी की तरह बोलने लगे हैं- “रजकमाल प्रकाशन हैं और वे अच्ची चीजें प्रकाशित करते हैं.”

खैर उन्हें अंग्रेजी में बात करने के लिए ही बुलाया गया था. शायद लिटरेचर डीएनए में आ चुका है सो हर भाव के साथ भीतर एक गुप्त खटका दबता था और रस के चलायमान होते समय झटके से शरीर में स्फुरण-दोलन-आलोड़न-संकुचन-प्रक्षेपादि होने लगते थे. अनियंत्रित झटकों की अधिकता, अर्ध-अकादमिक चिल्ल-पों और उससे जनित आश्चर्य के बीच वक्त की आहटें दुबक गईं. कुछ हाथ नहीं लगा, हालांकि उन्होंने खोखली औपचारिकता नहीं गंभीर बातचीत आयोजित करने के लिए राजकमल को बधाई भी दी थी. आदमी, बैल और सपने के लेखक रामशरण जोशी ने कहा, “आलोक जहां बैठ जाएं वहीं पढ़ाने लगते हैं.”

कहां तो लोग आए थे कि अरुंधति रॉय हमारे वक्त के बारे में बोलेंगी. वे पीएनबी के मेहुल भाई, मोदी के भगवा पकौड़े, अमित शाह के सत्तर साल गहरे गड्ढे, मोहन भागवत के संविधान बदलने को व्याकुल कट्टर “अहिंसक” हिंदुत्व, तीन दिन में भारतीय सेना से कारगर निक्कर सेना, राजनीति से जनरलों के फ्लर्ट, अर्थव्यवस्था की बेवा हालत और भीड़ द्वारा की जा रही व्हाटसैप हत्याओं से आती आहटों को सुनेंगे. और कहां मंच पर लेखक का भेजा एवं यकृत पढ़ाया जाने लगा!

आलोक राय को खुद की आवाज़ के झटकों में मजा आ रहा था लिहाजा मामूली चीजों के देवता और परमप्रसन्नता के मंत्रालय में बीस साल के अंतर, उपन्यास की संरचना, कहानी को कैसे बूझें पर ही बात हो पाई जिसमें कुछ भी नया नहीं था. इससे अधिक दिलचस्प तो नामवर सिंह का न आना था. उन्हें सानिध्य देने के लिए आना था. आशीर्वाद के लिए बुलाते तो आते भी. ढलान पर सानिध्य देने तो क्या आते!

आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा, यदि आलोक राय ने सीधे सीधे वर्तमान सत्ता और राजनीति के प्रश्नों के साथ अरुंधति से संवाद किया होता तो वे लोग भी इसमें अधिक रुचि के मानसिक भागीदारी कर पाते जिन्होंने उनके उपन्यासों को नहीं भी पढ़ा है.

क्या सचमुच सिर्फ एक आलोक राय के कारण वक्त की आहट को अनसुना कर दिया गया?

नहीं, बिल्कुल ऐसा नहीं है. कॉकटेल फॉलोड बाइ डिनर में एक आयोजन सूत्र ने बताया, आखिरी दिन खेल हो गया. संवाद तो ठीक है लेकिन यह सब अंततः किसके हक में जाता समझा जाएगा. कांग्रेस के ही न. सरकार इस समय बहुत बौखलाई हुई है और मूड कर्रा है. राजकमल विस्तार कर रहा है. कई क्षेत्रीय भाषाओं में किताबों का प्रकाशन होने वाला है. एक अंग्रेजी प्रकाशन से करार हुआ है. चुनिंदा किताबें एक ही साथ दोनों भाषाओं में आया करेंगी. एक छापा पड़ेगा. यह जोखिम अभी नहीं लिया जा सकता. जैसे संवाद पहले हुआ करते थे. कुछ समय बाद फिर से होंगे. उसमें क्या है. देखा नहीं, अरूंधति को भृंगराज का पौधा दिया गया है. कभी पेड़ बनेगा.

लोगबाग चौंके जब राजकमल समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम ने स्व. राजेंद्र यादव के हवाले से कहा, “हिंदी साहित्य का इतिहास राजकमल प्रकाशन का इतिहास है.” कहा होगा कभी राजेंद्र यादव ने लेकिन उसे एक आंख बंद कर ऐतिहासिक तथ्य की तरह इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है. यह तो वैसा हुआ कि घाट पर छतरी के नीचे बैठा बनारस का कोई पंडा किसी अंग्रेजिन से सनातन धर्म का परिचय देने के लिए सामने रखी मूर्ति दिखाकर कहे- दिस शिवा. दिस पार्वती हिज वाइफ. दिस लिटिल एलीफैंट किड गनेसा हिज सन. वेरी नॉटी. उछल के फ्राम दिस साइड टू दिस साइड. वन मोर ब्रदर बट दिस टाइम गॉन टू सर्किल द अर्थ.

इतने से कोई परिचय नहीं बस एक मनोरंजक तस्वीर बनती है क्योंकि हिंदी का पहला उपन्यास और अखबार राजकमल से नहीं छपा था. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की कसम, छपता तो भी बात वही रहती. किसी भाषा का इतिहास आखिर एक छापेखाने का इतिहास कैसे हो सकता है!

मार्केटिंग का भूत वाकई सिर चढ़कर बोल रहा है. जो कुछ भी ठीक से नहीं पढ़ते, वे भी लिखाई में मार्केट देख ले रहे हैं. एक श्वेतकेशी पाठक ने अरुंधति से सवाल पूछा, “आपने अपने पहले उपन्यास मामूली चीजों का देवता में कई वाहियात काम किए हैं. एक- कम्युनिस्टों को लंपट दिखाया है. दो- किस उम्र की औरत कैसे पेशाब करती है उसकी लय का वर्णन किया है. तीन- एक बच्चे को हस्तमैथुन करते दिखाया है. क्या आपने ये सब मार्केटिंग के लिए किया है?”

उपन्यास में कोई हस्तमैथुन नहीं करता बल्कि एक अबोध बच्चे से सिनेमा हाल का एक वेंडर करवाता है. जो बच्चे का यौन शोषण है. जो समाज में हर कहीं दिखाई देता है. अरुंधति ने कहा, इंसान ये सब काम करते हैं इसलिए किताबों में वही करते हुए दिख जाते हैं.

यह उस वक्त की आहट नहीं सदेह उपस्थिति थी जहां चीजों को बिना समझे बड़े-बड़े नतीजे निकाले जाते हैं. यहां तक कि एक पूर्ण बहुमत की सरकार तक चुन कर पछताया जाता है.

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