पद्मावत: 21वीं सदी में 12वीं सदी की अज्ञानता फैलाने वाली फिल्म

सिनेमा हॉल के बाहर पुलिस का पहरा, अंदर अनहोनी की आशंका से सशंकित दर्शक और जौहर के दृश्य पर खड़े होकर ताली बजाने वाले दर्शक, पद्मावत समाज के बहुस्तरीय कचरे का दर्पण है.

WrittenBy:Rohin Kumar
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दिल्ली के वसंत कुंज इलाके में स्थित पीवीआर प्रिया. सिनेमा हॉल के बाहर दिल्ली पुलिस की भारी बैरिकेडिंग के बीच राजपूतों के अपमान और सम्मान का प्रश्न बन चुकी फिल्म पद्मावत लगी हुई है. 2डी स्क्रीन पर संजय लीला भंसाली निर्मित पद्मावत गुरुवार रिलीज हुई. सुबह नौ बजे का यह शो फिल्म का पहला शो था.

सिनेमा हॉल के बाहर से ही माहौल में पसरे तनाव और आशंकाओं के चिन्ह दिखने लगे. सिनेमा हॉल के प्रबंधकों ने वोडका डायरीज़, पैडमैन और टाइगर जिंदा है, जैसी हालिया रिलीज़ सभी फिल्मों के पोस्टर सिनेमा हॉल के बाहर चिपकाए, लेकिन कहीं भी पद्मावत का कोई पोस्टर नहीं लगा है. करीब पचास की संख्या में पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स के जवान तैनात थे.

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सिनेमा हॉल के गेट पर जांच-पड़ताल के बाद अंदर पहुंचना हुआ. राष्ट्रगान हुआ (हालांकि अब यह जरूरी नहीं है) और फिर सिनेमा की शुरुआत हुई. शुरुआत में ही एक डिस्क्लेमर आता है जो बताता है कि यह फिल्म प्रसिद्ध कवि मलिक मोहम्मद जायसी की रचना पद्मावत से प्रेरित है. जो कि एक काल्पनिक चरित्र है और इस फिल्म का मकसद किसी जनसमूह, समुदाय, सांप्रदाय आदि की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है.

जायसी से माफी सहित

फिल्म के पहले ही दृश्य में जलालुद्दीन खिलजी (रज़ा मुराद). मांस का बड़ा सा टुकड़ा हाथ में पकड़े अपने सिंहासन पर बैठा है. उसी दौरान अलाउद्दीन खिलजी (रणबीर सिंह) शुतुरमुर्ग को कैद करते हुए फिल्म में शामिल होता है. इससे जलालुद्दीन खिलजी खुश होता है और उसे तोहफा मांगने को कहता है. अलाउद्दीन उसकी बेटी से निकाह की मांग रखता है. एक तरफ अलाउद्दीन की शादी का जश्न मन रहा है उसी बीच वह किसी अन्य महिला के साथ इश्क कर है. यह दृश्य जलालुउद्दीन की सेना का एक सदस्य देख लेता है. अलाउद्दीन उसकी जान ले लेता है. जलालुद्दीन को भी मार देता है. फिर अलाउद्दीन तख्तापलट कर खुद बादशाह बन जाता है.

मतलब फिल्म के शुरुआती आधे घंटें में ही सामान्य दर्शक के मन में यह बोध पैदा कर देती है कि तुर्क-मुगल बेदर्द, जालिम और अय्याश हुआ करते थे.

दूसरी तरफ राजपूत राजा रतनसिंह की मुलाकात सिंघल के जंगलों में राजकुमारी पद्मिनी से हो जाती है. ये समझ से परे है कि मेवाड़ का राजा श्रीलंका के जंगलों में किस उद्देश्य से गया हुआ है! ख़ैर कल्पना साहित्य का अभिन्न हिस्सा है सो इस पर सवाल खड़ा करने का कोई मतलब नहीं है.

राजकुमारी जंगल में शिकार कर रही है और इसी क्रम में हिरण को लगने वाला तीर राजा रतन सिंह को लग जाता है. यहां से मेवाड़ के राजा और सिंघल (अब श्रीलंका में) की राजकुमारी प्रेम में पड़ते हैं. हालांकि रतन सिंह पहले से शादी-शुदा है वह रानी पद्मिनी से दूसरी शादी करता है. चूंकि पद्मावत (आई हटाकर) पर पूरा विवाद ही राजपूतों के इर्द-गिर्द घुम रहा है इसलिए यह जानना अवश्य हो जाता है कि, सिंघल की रानी कौन सी जाति अथवा समुदाय से ताल्लुक रखती थीं?

क्या यह अंतरजातीय/अंतरधार्मिक विवाह था? क्या रानी ने अपनी जाति या धर्म बदला? आज से करीब 900 साल पहले के राजपूत घराने इतने प्रगतिशील शायद ही रहे होगें कि किसी भी जाति या धर्म की लड़की को ससुराल के घराने या व्यक्तिवाद के सिद्धांत पर कबूल करेंगे. ऐसे में पद्मावति का सिंघल वाली राजकुमारी, उसी जाति, सांप्रदाय की बने रहना अगर संभव होता तो पूरा विवाद ही खत्म हो जाता.

पितृसत्तात्मक, बहुविवाह, लड़के की पहचान से लड़की की पहचान जुड़ना, यह सब फिल्म स्पष्ट तौर स्थापित करती जाती है.

इसकी एक झलक चित्तौड़ पहुंचने पर राघव चेतन (रतन सिंह का सलाहकार और युद्धनीति का जानकार) और पद्मिनी के संवाद से मिलता है. राघव चेतन रानी की परीक्षा लेता है. सोचिए, पद्मिनी मेवाड़ के राजा की पत्नी बनकर आई है. लेकिन राजा का एक कर्मचारी उसकी परीक्षा लेता है. पूरे सिनेमा में राजपूत की जय-जय हो रही है फिर भी वहां का राजा अपनी रानी की बुद्धिमता को वैध साबित करने के लिए एक ब्राह्मचारी के जरिए परीक्षा लेता है.

राधव चेतन और रानी पद्मिनी का रैपिड फायर राउंड सवाल:

राघव चेतन: क्या महत्वपूर्ण है, रूप या गुण?

रानी पद्मिनी: गुण

राघव चेतन: और रूप?

वो तो देखने वालों की आंखों में होता है.

अर्थात?

किसी को पत्थर में शिवलिंग दिखता है और किसी को शिवलिंग में पत्थर.

जीवन का वर्णन तीन शब्दों में?

अमृत, प्रेम और त्याग.

प्रेम क्या है?

ईश्वर की आंखों में उभरा हुआ आंसू.

आंसू क्या है?

सुख-दुख की हद.

रणभूमि में सबसे बड़ा शस्त्र?

हिम्मत.

जीवन में सबसे कठिन घड़ी?

परीक्षा के बाद परिणाम की.

यह पूरा दृश्य हमारे वर्तमान से गहराई से जुड़ता प्रतीत होता है. मानो वहाट्सएप के मोटिवेशनल मैसेज को फिल्म के अंश में तब्दील कर दिया गया है. रैपिड फायर में दनादन जबाव देती दीपिका के ज्ञान पर हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता है.

लेकिन रानी पद्मिनी की परीक्षा लेने वाला ब्रह्मचारी एक गलीच हरकत कर जाता है. वह रानी और राजा के निजी पलों को खिड़कियों के पीछे से देखने की कोशिश करता है. दंपत्ति को आभास हो जाता है, फलस्वरूप रतन सिंह तलवार चला देता हैं. ब्रह्मचारी चेतन को देश निकाला दे दिया गया. इस दृश्य से समझ आता है कि आधार कार्ड के पहले भी निजता का विमर्श था!

इस अपमान के बदले में अब राघव चेतन का एक ही उद्देश्य है- बदला. अपमान का बदला.. इसके बाद टिपिकल नब्बे के दशक की फिल्मों का रिपीट शुरू हो जाता है. पौने तीन घंटा बदले में कट जाता है. इसमें भव्य सेट, खूबसूरत लोकेशन, कैमरे के शानदार करतब और निर्देशक के मन में गहरे तक बैठी “इतिहास में सबकुछ महान है” टाइप भावना मिलकर भी इसे बोरिंग, उबाऊ फिल्म बनने से नहीं रोक पाती.

ब्रह्मचारी राघव चेतन अलाउद्दीन से मिल जाता है. अलाउद्दीन को पद्मिनी की खूबसूरती के बारे में बताता है. लेकिन ब्रह्मचारी रानी का जबाव भूल जाता है- “रूप तो देखने वाले की आंखों में होता है”. यहां देखते हुए दर्शक को ध्यान आना चाहिए कि भारतीय कॉमर्शियल सिनेमा और तार्किकता दो अलग बातें हैं.

अब अलाउद्दीन का सारा ध्यान रानी पद्मिनी को पाने पर केंद्रित हो जाता है. दोनों पक्षों के बीच युद्ध होता है. किसी की जीत-हार नहीं होती. इसे फिर भी 1-1 माना जा सकता है क्योंकि एक बार अलाउद्दीन चित्तौड़गढ़ के किले आता है. लेकिन जब रतन सिंह, अलाउद्दीन के पास मिलने जाता है, अलाउद्दीन उसे कैदी बनाकर दिल्ली सल्तनत लेकर चला जाता है.

सिनेमा रहे-रहे बताती चलती है कि राजपूत अपने उसूलों पर चलते हैं. बात-बात पर रतन सिंह राजपूत घराने से होने का गर्व करता है. फिल्म में एक डायलॉग-

जो चिंता को तलवार की नोक पर रखे, वो राजपूत

जो रेत की नाव लेकर समंदर से लड़ जाए, वो राजपूत

जो सर कटे तो भी धड़ लड़ता रहे, वो राजपूत.

राजपूत न हुआ, जिन हो गया!

फिल्म का अंतिम दृश्य बेहद दर्दनाक है

रतन सिंह और अलाउद्दीन के बीच युद्ध चल रहा है. तलवारबाजी में रतन सिंह अलाउद्दीन की तलवार गिरा देता है. लेकिन उसूलों पर न चलने वाले सल्तनत के सिपाही धोखे से रतन सिंह की पीठ पर बाण मार देते है और रतन सिंह वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं. यह सीन स्लो मोशन में है और निर्देशक ने इसमें पूरा प्रभाव छोड़ने में सफलता पाई है.

तीर लगने के बाद रतनसेन घुटनों पर बैठ जाता है लेकिन वह आगे की तरफ न गिरकर पीछे की तरफ बाणों पर टिक जाता है. ऐसा वर्णन हमने महाभारत में भीष्म के साथ सुना है जब वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में बाणों की शैय्या पर जीवित रहे. खैर यहां यह दृश्य दिखाने का मकसद था कि रतन सिंह एक राजपूत राजा हैं और वह अलाउद्दीन जैसे क्रूर, धूर्त के पैरों में कैसे गिर सकते हैं.

इस बीच चित्तौड़ के किले में रानी पद्मिनी हजारों रानियों के साथ जौहर करने का आह्वान करते हुए कहती है, “जब मेवाड़ के वीर बलिदान दे रहे होंगे तो यहां औरतें भी एक युद्ध लड़ेगीं. यह युद्ध जौहर का होगा.”

अलाउद्दीन चित्तौड़गढ़ के किले में इधर रानी पद्मिनी की एक झलक पाने के लिए दौड़ा, और उधर रानियां खुद को आग में सती करने को आगे बढ़ीं.

यह एक ऐसे समाज का चित्रण है जहां बिना मर्द के औरत का वजूद ही संभव नहीं है. इस एक दृश्य के साथ सिनेमा हॉल में जो हुआ वह समाज का भयावह विद्रूप सामने लाता है.

समाजिक या ऐतिहासिक घटनाओं पर फिल्म बनाने की अपनी सीमाएं होती है. फिल्मकार एक सीमा से अधिक हेरफेर कथा में नहीं कर सकता. लेकिन, 21वीं सदी में दिल्ली जैसे मेट्रो शहर में बैठी, हर संभव ऐशो-आराम की जिंदगी जी रहे मध्यवर्ग का इस दृश्य पर ताली बजाना, पद्मावति के जौहर पर सीट छोड़कर उठ खड़ा होना, अलाउद्दीन का पद्मावति की झलक पाने से वंचित रह जाने पर गर्व से सीटी बजाना, परेशान करने वाला दृश्य है.

कटु सत्य है कि यह फिल्म अज्ञानता का विस्तार करती है, जातीय दंभ को सशक्त करती है, साथ ही अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा को पुष्ट करती है. यह फिल्म हमारे वर्तमान के तमाम पूर्वाग्रहों को सिर्फ मजबूत करती है.

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