मीडिया की तार-तार विश्वसनीयता को चुनौती देती “द पोस्ट”

बेजोड़ अभिनय, कसी हुई पटकथा और जीनियस निर्देशक के तालमेल से बनी द पोस्ट पत्रकारिता की दुनिया में खिंची पत्थर की वह लकीर है जिसे हर पत्रकार को देखना चाहिए.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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खरामा-खरामा टॉम हैंक एक आदर्श संपादक के रूप में हमारे दिलों में उतरते चले जाते हैं. बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के मेरिल स्ट्रीप किसी भी संपादक की सबसे चहेती मालकिन का खिताब पाने की पायदान पर अवस्थित हो जाती हैं. और यह सब सिर्फ बेजोड़-झमाझम अदाकारी का करिश्मा नहीं है. यह स्टीवेन स्पीलबर्ग के जीनियस का एक और विस्तार है.

एक ऐसी कहानी जिसके सिरे दो दशकों में छिटके हुए थे, ऐसी कहानी जिसमें चार-चार राष्ट्रपतियों की भूमिका रही हो उसे एक बंधी हुई, जीवंत कहानी में पिरोने के लिए स्पीलबर्ग के जीनियस का साथ मिलना उस सुहागे की तरह रहा जो सोने की चमक को एक नई उंचाई प्रदान करता है.

आम तौर पर पत्रकारों की कहानियां बेहद उबाऊ होती हैं लेकिन पत्रकारों द्वारा की गई कहानियां इतिहास का हिस्सा बन जाती है. मेरिल स्ट्रीप पत्रकारिता की दुनिया में मशहूर उसी जुमले को अपने मरहूम पति के जरिए बयान करती हैं- “न्यूज़ इतिहास का पहला रफ ड्राफ्ट होता.”

न्यूज़रूम की अंदरूनी कशमकश, व्यावसायिक स्पर्धा, पत्रकारीय मूल्यों में भरोसा, बाजार और ख़बर की सनातन तनातनी, मालिक-संपादक का संवेदनशील रिश्ता, संवैधानिक मूल्यों के संरक्षक के रूप में एक पत्रकारिता संस्थान की भूमिका आदि वो सभी विषय जिनसे आज की पत्रकारिता जूझ रही है, द पोस्ट उन सबसे मुठभेड़ करती है.

आज भारत या पूरी दुनिया जिस तरह की राजनीतिक उथल-पुथल, कट्टरता के बीच से गुजर रही है उस समय में द पोस्ट एक हद तक बेहद उच्च नैतिक आदर्शों की ज़मीन पर अपनी बात कहने की कोशिश करती है. और इसे समय की जटिलता को देखते हुए गलत भी नहीं कहा जा सकता. हालांकि इस उच्च आदर्श की दहलीज पर खड़े होते हुए भी स्पीलबर्ग ने किसी उपदेशक की भूमिका नहीं चुनी.

वाशिंगटन पोस्ट द्वारा स्टोरी छापने के बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचता है और कोर्ट अंतिम फैसला सुनाती है, वह दृश्य पत्रकारिता के किसी भी संस्थान की आदर्श मूर्ति हो सकती है. निर्देशक ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को न्यूज़रूम में एक साथी महिला पत्रकार द्वारा टेलीफोन पर सुनकर डिक्टेट करने का रास्ता चुना. और जस्टिस ने जो आदेश लिखा वह मोटी-मोटा कुछ इस तरह रहा- “हमने (वाशिंगटन पोस्ट ने) यह केस 6-3 से जीत लिया है. जस्टिस ब्लैंक ने कहा कि हमें प्रेस की आजादी को बनाए रखना है. यह हमारे महान देश के संस्थापकों द्वारा तय किए गए मूल्य हैं. प्रेस की स्वतंत्रता किसी भी राजनीति से परे होनी चाहिए.”

अब इस बयान को वर्तमान भारतीय राजनीति के संदर्भ में देखें तो हमारे देश के वही मूल्य संकट में दिखाई देते हैं. राजनीति का असर मीडिया से लेकर न्यायपालिक की स्वतंत्रता पर हावी है.

ऐसा समय आता है जब संस्थागत मूल्यों पर ख़तरा होता है और अपनी बात पूरी ताकत और शिद्दत से कहने की जरूरत होती है. पेंटागन पेपर्स को छापने से पहले वाशिंगटन पोस्ट के ऊपर भी इसी तरह के दबाव थे. संपादक-मालिक के बीच एकराय नहीं थी. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन प्रशासन का पूरा दबाव था कि ख़बर न छपने पाए. हर तरह के क़ानूनी हथकंडे अपनाए गए. ऐसे समय में अंतिम मूल्य की रक्षा करने और उसके प्रति पूरी स्पष्टता से अडिग रहने की भूमिका आज किसी गप्प का हिस्सा लग सकती है, लेकिन तत्कालीन वीशिंगटन पोस्ट के एक्ज़क्युटिव एडिटर बेन ब्रैडली पूरी दृढ़ता और साफगोई से उन मूल्यों को न सिर्फ पकड़े रहते हैं बल्कि उसके लिए अंत तक लड़ते भी रहते हैं.

ख़बर छपती है. ख़बर यह है कि अमेरिका को पहले से पता था कि वह वियतनाम युद्ध नहीं जीत सकता. इसके बावजूद अमेरिका न सिर्फ अपने नागरिकों को अंधेरे में रखता है बल्कि वहां नए सैनिक भेजना जारी रखता है. जनता के टैक्स का अरबों रुपया युद्ध पर खर्च करता है. यह सारी बात एक कमीशन की रिपोर्ट में दर्ज होती है. यह रिपोर्ट ही कहानी के केंद्र में है.

जब मीडिया पर चौतरफा हमले हो रहे हैं, जब बड़ी पूंजी और झूठ के कॉकटेल से सच को तोप देने की संगठित कोशिशें हो रही हैं, जब मीडिया का एक हिस्सा ख़बर और प्रोपगैंडा के बीच की रेखा को लगातार धुंधला करने पर आमादा है, जब कुछेक संपादक सरकारी धुन पर ख़बरें पढ़-लिख रहे हैं तब द पोस्ट हमें पत्रकारिता के कुछ बेहद मौलिक आधारभूत मूल्यों की याद दिलाता है जो इस हड़बोंग में कहीं नीचे दब गई थीं.

पत्रकारिता के मूल्यों में भरोसा रखने वालों को यह फिल्म नए सिरे से ऊर्जा से भरने वाली फिल्म है. फिल्म का वह दृश्य किसी भी पत्रकार के लिए एक कसक की तरह हो सकता है कि काश ऐसा मेरी स्टोरी पर होता, वह दृश्य है जब ख़बर छप जाती है, सुप्रीम कोर्ट से निर्णय आ जाता है तब व्हाइट हाउस का एक बड़ा अधिकारी अपने प्रेस सेक्रेटरी को टेलीफोन पर आदेश देता है- “आगे से वाशिंगटन पोस्ट का कोई भी रिपोर्टर व्हाइट हाउस में घुसने न पाए. किसी कीमत पर वाशिंगटन पोस्ट के पत्रकार की एंट्री नहीं होनी चाहिए, यह प्रेसिडेंट निक्सन का आदेश है.” यह एक दृश्य अपने चरम फ्रस्ट्रेशन में पत्रकारिता की जीत की मुनादी करता है.

इस मुकाम पर पहुंच कर जब लगता है कि दर्शक घर जाने के लिए आज़ाद है तभी स्पीलबर्ग अपने जीनियस से पुन: सबको चौंका देते हैं. यह फिल्म का आखिरी दृश्य है जो पत्रकारिता के एक गौरवपूर्ण अध्याय से दूसरे गौरव पर चुपचाप शिफ्ट हो जाती है. फिल्म वाटरगेट स्कैंडल के पहले दृश्य पर चल जाती है. इस लिहाज से द पोस्ट देखने के बाद आप चाहें, या आपको चाहिए कि आप ऑल द प्रेसिडेंट्स मेन भी एक बार देख लें. अगर पत्रकारिता में यकीन है तो यकीन मानिए ये फिल्म देखने के बाद आपका यकीन कंक्रीट की तरह पुख्ता हो जाएगा.

हमें नहीं पता कि द पोस्ट उन लोगों तक पहुंचेगी या नहीं जिन तक यह हर हाल में पहुंचनी चाहिए. भारत की पत्रकारिता में इस तरह की कहानियां तो बहुत हैं पर फिल्में एक भी नहीं. तेजी से फैल रहे अंधकार में द पोस्ट रोशनी और उम्मीद दोनों है. इसलिए पहली फुरसत में इसे देख आएं.

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