#2017 साहित्य प्रदक्षिणा: गहराता हिंदी साहित्य का सन्नाटा

साल 2017 में भी यही लगा कि किताबें खूब छप रही हैं. हिंदी के विराट संसार में इसके बावजूद पाठकों का सन्नाटा अगर है तो इसकी वजहें जितनी साहित्य में हैं, उससे ज्यादा समाज में हैं.

WrittenBy:प्रियदर्शन
Date:
Article image

साल 2017 ने 92 वर्ष पार कर चुकीं कृष्णा सोबती को ज्ञानपीठ सम्मान दिया और उन्होंने हिंदी को एक आत्मकथात्मक उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ दिया. शीर्षक से भले भ्रम होता हो कि इस उपन्यास का वास्ता मौजूदा गुजरात से है, लेकिन दरअसल यह उपन्यास विभाजन के वक्त दिल्ली से सिरोही गईं कृष्णा सोबती के उस अनुभव की दास्तान है, जिसमें राजशाही के लोकतांत्रिक हस्तांतरण की प्रक्रिया में सियासत, साजिश और सिहरन सभी कुछ शामिल थे. सोबती के जाने-पहचाने जीवट से भरी कलम विभाजन की त्रासदी को भी पकड़ती है और विस्थापन के दर्द को भी.

ममता कालिया का ‘कल्चर वल्चर’ उपन्यास के रुप में आने से पहले किस्तों में ‘तद्भव’ में छप चुका है, मगर समग्र रूप में इसी साल आया. हिंदी लेखन में अपने विशिष्ट तेवर के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाली ममता कालिया के पाठकों का संसार विपुल है, जिसे इस उपन्यास की प्रतीक्षा थी. आलोचक-मित्र पल्लव से बातचीत के दौरान मुझे पानू खोलिया के ‘मुझे मेरे घर जाने दो’ और जयनंदन के ‘विघटन’ नाम के दो और उपन्यासों के प्रकाशन की जानकारी मिली.

बड़े नामों के बीच याद करें तो मनोहर श्याम जोशी की बची हुई कृतियां भी इस साल आईं – ‘एक पेंच और’ नाम की किताब इत्तेफाक से फिर राजमहलों की साजिश के बीच बनती और घूमती है. अंततः एक रहस्यकथा की तरह विसर्जित होती है. निस्संदेह यह मनोहर श्याम जोशी की बड़ी कृतियों में नहीं गिनी जा सकती, मगर उनके गद्य का ठाठ और उनकी किस्सागोई का कमाल यहां भी दिखता है. यहा उनके ‘किस्सा पौने चार यार’ को भी याद किया जा सकता है जो इसी साल छपा है.

इसी कड़ी में मृणाल पांडे का उपन्यास ‘हिमुली हीरामणि कथा’ इस लिहाज से उल्लेखनीय है कि उसमें लेखिका ने शास्त्रीय शिल्प में एक लोककथात्मक आख्यान रचा है, जो दिलचस्प ढंग से समकालीन भी है. कई खंडों में बंटी इस कहानी में जीएसटी और नोटबंदी तक के संदर्भ हैं- लेकिन कमाल यह है कि कहने का ढंग नितांत शास्त्रीय है.

साल के शुरू में आए शाज़ी ज़मां के उपन्यास ‘अक़बर’ के बिना यह चर्चा अधूरी रह जाएगी. मुगल बादशाह अकबर पर शायद इतनी प्रामाणिकता के साथ लिखी गई कोई कथा हिंदी में सुलभ नहीं है. बेशक, कई समीक्षकों ने माना कि इस उपन्यास में तथ्यात्मकता ज्यादा है, औपन्यासिकता कम.

उपन्यासों की इस शृंखला में साल के अंत-अंत में आए कुछ और उपन्यासों की चर्चा अनुचित नहीं होगी. हिंदी साहित्य की अंदरूनी राजनीति को केंद्र में रखकर लिखा गया इंदिरा दांगी का उपन्यास ‘रपटीले राजपथ’ हिंदी के कुछ चर्चित विवादों की याद दिलाता है. राकेश तिवारी के ‘फ़सक’ और संजय कुंदन के ‘तीन ताल’ की भी खूब चर्चा रही. भगवान दास मोरवाल का ‘सुर बंजारन’ हमेशा की तरह एक लोकपक्ष उभारता उनका नया उपन्यास है. गीताश्री का ‘हसीनाबाद’ भी इसी साल आया है. बालेंदु द्विवेदी के ‘मदारीपुर जंक्शन’ नामक व्यंग्य उपन्यास की भी चर्चा हो रही है. भूमिका द्विवेदी का ‘आसमानी चादर’ भी पुरस्कृत हुआ.

वैसे इस साल के सबसे महत्वपूर्ण कथा संग्रह कुछ और रहे. प्रवीण कुमार का संग्रह ‘छबीला रंगबाज और अन्य कहानियां’ नितांत पठनीय है. आकांक्षा पारे के संग्रह ‘बहत्तर धड़कनें, तिहत्तर अरमान’ की भी चर्चा खूब है. इसी कड़ी में पंकज मित्र के ‘वाशिंदा@तीसरी दुनिया’, सुदर्शन वशिष्ठ के ‘पहाड़ गाथा’, हरियश राय के ‘सुबह सवेरे’, प्रितपाल कौर के ‘लेडीज़ आइलैंड’ और नरेंद्र सैनी के ‘इश्क़ की दुकान बंद है’ जैसे संग्रहों का जिक्र भी किया जा सकता है.

कविताओं की दुनिया इस साल कई अच्छे संग्रहों से भरी रही. आर चेतन क्रांति का संग्रह ‘वीरता से विचलित’ हिंदी कविता में नए मुहावरे जोड़ता है. अविनाश मिश्र का संग्रह ‘अज्ञातवास की कविताएं’ उनके बौद्धिक और भाषिक सामर्थ्य और गहराई का नए सिरे से पता देती हैं.

गीत चतुर्वेदी का ‘न्यूनतम मैं’ अपनी विलक्षण संवेदनशीलता के लिए पढ़े जाने योग्य है. प्रचलित धारणाओं को अक्सर झटक देने वाले पवन करण का संग्रह ‘इस तरह मैं’ भी इसी साल आया. इन तीनों से कुछ वरिष्ठ कवयित्री नीलेश रघुवंशी का संग्रह ‘खिड़की खुलने के बाद’ भी उनके जाने-पहचाने लहजे की वजह से उल्लेखनीय है. इस क्रम में विवेक निराला के संग्रह ‘ध्रुवतारा जल में’, विनोद पदरज के ‘अगन जल’ और अनंत भटनागर के ‘वह लड़की जो मोटरसाइकिल चलाती है’ को भी याद किया जा सकता है.

आदिवासी कवि अनुज लुगुन का पहला कविता संग्रह ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ भी इस साल की एक उपलब्धि है. इस साल और भी कविता संग्रह हैं जो ध्यान खींचने वाले हैं. अपनी कविताओं में निहित ऊष्मा और राजनीतिक मंतव्य के लिए ध्यान खींचने वाली निवेदिता का संग्रह ‘प्रेम में डर’ साल के आखिरी दिनों में आया है. इन दिनों लंदन में रह रही शेफाली फ्रास्ट का ‘अब मैंने देखा’ लीक से हटकर, लगभग मुक्तिबोधीय स्वर की याद दिलाता हुआ संग्रह है.

रश्मि भारद्वाज के पास भी बात है और बात को कहने का सलीका भी- ये उनकी कविताएं बताती रही हैं. उनका संग्रह ‘एक अतिरिक्त अ’ इस साल प्रशंसित हुआ है. घनश्याम देवांश का संग्रह ‘आकाश में देह’ और सुजाता का ‘अनंतिम मौन के बीच’ भी इस क्रम में याद किए जा सकते हैं.

वैसे कविता-कहानी या उपन्यास से अलग इन दिनों ‘कथेतर’ विशेषण से संबोधित किए जा रहे गद्य में कई महत्वपूर्ण किताबें आई हैं. गरिमा श्रीवास्तव ने अपने क्रोएशिया प्रवास के दौरान हासिल अनुभवों पर ‘देह की देश’ नाम की जो किताब लिखी है, वह रोंगटे खड़े कर देने वाले ब्योरों के साथ बताती है कि युद्ध या गृह युद्ध किस तरह सबसे बुरे ढंग से औरत के जिस्म पर घटित होते हैं- औरतें ही उसके सबसे ज़्यादा ज़ख़्म ढोती हैं और इसके बावजूद जीवित रहने के रास्ते निकाल लेती हैं.

अशोक भौमिक की एक दिलचस्प किताब ‘जीवनहाटपुर जंक्शन’ भी इस साल आई जो कहने को संस्मरण की किताब है, लेकिन कई मार्मिक कहानियों का दस्तावेज़ है.

2017 के पुस्तक मेले में आई और खूब बिकी नीलिमा चौहान की किताब ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ पूरे साल चर्चा में रही. हिंदी के प्रचलित स्त्री-विमर्श को झटका देती इस किताब को लेकर संवाद-विवाद भी काफी हुए. दूधनाथ सिंह, अजित कुमार और असगर वजाहत जैसे वरिष्ठ लेखकों के संस्मरणों की किताबें भी इस साल आईं. दिवंगत अनुपम मिश्र के लेखों का संग्रह ‘अच्छे विचारों का अकाल’ और सुधीर चंद्र की किताब ‘बुरा वक़्त अच्छे लोग’ इस साल की उन वैचारिक किताबों में रहीं जिन्हें पढ़ना ज़रूरी है.

इस साल अजित कुमार, चंद्रकांत देवताले और कुंवर नारायण जैसे लोग हमसे बिछड़ गए. हिंदी का सन्नाटा कुछ बड़ा हो गया.

दरअसल इस साल ने भी बताया कि किताबें खूब छप रही हैं. हिंदी के विराट संसार में इसके बावजूद पाठकों का सन्नाटा अगर है तो इसकी वजहें जितनी साहित्य में हैं उससे ज्यादा समाज में हैं.

(यह लेख नवजीवन इंडिया डॉट कॉम में प्रकाशित हो चुका है)

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like