आसमान में भटके जहाज में वाजपेयी ने अपने अंतिम संस्कार की बात की

वरिष्ठ पत्रकार अजित अंजुम पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर उनसे जुड़े कुछ दिलचस्प किस्से बयान कर रहे हैं.

WrittenBy:अजीत अंजुम
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आजाद भारत के सबसे लोकप्रिय नेताओं में एक अटल बिहारी वाजपेयी का आज 93वां जन्मदिन है. आज कोशिश करुंगा कि वाजपेयी से जुड़ी कुछ कहानियां आप तक पहुंचा सकूं. कुछ मेरा लिखा, कुछ दूसरों का लिखा-देखा. वाजपेयी के बेहद करीब रहे पत्रकार और राज्यसभा के पूर्व सदस्य बलवीर पुंज के संस्मरण का एक हिस्सा दैनिक जागरण से साभार-

बात नब्बे के दशक की है, जब हिमाचल प्रदेश में एक चुनावी सभा के लिए मैं वाजपेयीजी के साथ एक छोटे निजी हवाई जहाज से यात्रा कर रहा था. हमें धर्मशाला में उतरना था. मेरे साथ की सीट पर अटलजी आराम कर रहे थे. अचानक मुझे कॉकपिट में बुलाकर को-पायलट ने पूछा- ‘क्या मैं देखकर बता सकता हूं कि नीचे जो शहर दिखाई दे रहा है, वो धर्मशाला ही है?

मेरे लिए ये अनुमान कर पाना असंभव था. हवाई जहाज में बिना रेडियो संचार यंत्र और दूसरे विश्वयुद्ध का दिशा बोधक मानचित्र होने के कारण दोनों पायलट किंकर्तव्यविमूढ़ थे. मैं चिंतित मुद्रा में कॉकपिट से बाहर आया तब अटल जी ने पूछा – ‘कोई परेशानी है?

‘मैंने उन्हें वस्तुस्थिति की जानकारी दी, तब मेरी बात सुनकर वाजपेयी पुन: सो गए. इस बीच हवाई जहाज आसमान में चक्कर काटता रहा. मैं और मेरे साथ के अन्य लोग इस दुश्चिंता में घुले जा रहे थे कि कहीं विमान का ईंधन खत्म न हो जाए और जल्दबाजी में हम चीन की सीमा में न चले जाएं. जब अटलजी उठे तब वह ऐसे गंभीर और खतरनाक क्षण में भी खुशमिजाज थे. उन्होंने मजाक करते हुए कहा- ‘तेल खत्म हो जाने पर हवाई जहाज पहाड़ों से टकराकर चूर-चूर हो जाएगा. मैं देख रहा हूं कि मेरा मृत शरीर राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जा रहा है.’

वाजेपयी पूर्णत: सामान्य थे और वहीं हम सभी के भय से हाथ-पांव फूल गए थे. सौभाग्य से इंडियन एयरलाइंस का एक जहाज हमें उतरता दिखा. उसके पीछे हमारा विमान भी उतर गया. तब ज्ञात हुआ कि हम सभी कुल्लू में थे. यह एक बेहद रोमांचक यात्रा थी. विपदा की उस बेला में वाजपेयीजी की धीरता और साहस को मैं आज भी सलाम करता हूं. अटलजी एक भावुक व्यक्ति और कवि के रूप मे विख्यात रहे हैं किंतु उनमें लौहपुरुष भी छिपा है.

इसका भान तब हुआ जब नवंबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के सिख विरोधी दंगों के दौरान उत्पातियों की एक भीड़ ने उनके रायसीना निवास के सामने स्थित टैक्सी स्टैंड को जलाने की कोशिश की. उस समय अटलजी सांसद नहीं थे लिहाजा उनके साथ एक ही सुरक्षाकर्मी मौजूद था फिर भी वो अकेले ही उपद्रवियों से भिड़ गए. पुलिस के पहुंचने तक दंगाइयों को रोकते रहे और उनकी हिम्मत देख उन्मादी लोग चुपचाप वापस चले गए.

एक सवाल, जिसके जवाब में लगभग रो पड़े थे वाजपेयी

यूं तो मैं कई बार और कई मौकों पर अटल बिहारी वाजपेयी से मिला हूं. जब वो नेता विपक्ष थे तब भी, जब वो 1996 में पहली बार तेरह दिन के लिए देश के प्रधानमंत्री बने तब भी. जब वो 1998 और 1999 में पीएम बने तब भी. टीवी इंटरव्यू के लिए इन मुलाक़ातों के दौरान मैंने संवेदनाओं से भरा वाजपेयी का ऐसा भावुक चेहरा देखा है जो कभी भूल नहीं पाऊंगा.

बात मई 1996 की है. उस दिन अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेकर 6 रायसीना रोड वाले बंगले पर लौटे थे. उसी बंगले पर, जहां वे सालों से रह रहे थे. बंगले का मेन गेट हमेशा खुला रहता था. नेता विपक्ष के नाते उन्हें मामूली सुरक्षा जरूर मिली हुई थी लेकिन उनसे मिलने वालों का वहां आना-जाना लगा रहता था. मुलाक़ातियों के लिए वो सहज उपलब्ध रहते थे.

लेकिन उस दिन सब कुछ बदल गया था. प्रधानमंत्री की सुरक्षा करने वाली एसपीजी ने उनके बंगले को अपने घेरे में ले लिया था. रेल भवन से उनके घर की तरफ जाने वाली सड़क से आम लोगों की आवाजाही रोक दी गई थी. दिल्ली पुलिस के पचासों सिपाहियों का दस्ता उनके घर के आस-पास तैनात कर दिया गया था. जिस बंगले में मामूली पूछताछ के बाद कोई भी दाखिल हो जाता था, उस बंगले के बाहर रस्सियों से दूर तक घेराबंदी कर दी गई थी. गेट से काफी पहले ही मेटल डिटेक्टर लगा दिया गया था. वाजपेयी से अब मिलना तो दूर, उनके बंगले तक पहुंचना भी किसी के लिए आसान नहीं था.

एसपीजी की गाड़ियों से घिरी कार में बैठकर राष्ट्रपति भवन से शपथ लेकर लौटते हुए वाजपेयी ये सब देखते हुए अपने बंगले में दाखिल हुए थे. ये सब देखकर वाजपेयी के जेहन में ऐसी बेचैनियां उग आई थीं, जिसका अंदाजा किसी को नहीं था. खुलकर ठहाके लगाने वाला एक खुला-खुला सा शख्स ‘बंद’ होकर अपने इस बंगले में पहली बार दाखिल हुआ था. उसी शाम प्रधानमंत्री वाजपेयी ने एक टेलीविजन प्रोग्राम ‘रुबरू’ के लिए वक्त दिया था. उस प्रोग्राम के लिए इंटरव्यू करने वाले थे राजीव शुक्ला और शो का डायरेक्टर था मैं. हम दोनों उस बंगले के एक कमरे में कैमरा-लाइट सेट करके वाजपेयीजी का इंतजार कर रहे थे. वो आए और सवाल जवाब का दौर शुरु हुआ.

सवालों के बीच राजीव शुक्ला ने उनसे पूछा- ‘सारी सुरक्षा, सारा तामझाम, मुलाक़ातियों की भीड़, इतना कुछ हो गया तो आप बंधे-बंधे नहीं महसूस करते हैं?’

ये एक सहज सा सवाल था. कोई सहज सा जवाब हो सकता था. लेकिन जवाब देने वाले वाजपेयी थे. कवि हृदय एक भावुक राजनेता. सवाल खत्म होते ही वाजपेयी भावुक हो गए. जवाब में उन्होंने सात शब्द कहे- ‘मैं बहुत बंधा हुआ अनुभव करता हूं.’ वाक्य खत्म करते ही उन्होंने नजरें नीची कर ली. ऐसे, जैसे कैमरे से अपने चेहरे का भाव छिपाना चाह रहे हों. भावुक हो गए. गला रुंध गया. राजीव शुक्ला ने उनसे कहा- ‘आप इमोशनल हो रहे हैं.’

वाजपेयी कुछ सेकेंड तक चुप रहे. फिर तकलीफ भरी मुद्रा में बोले- ‘जब से आया हूं, तब से कह रहा हूं कि इतनी सुरक्षा की ज़रुरत क्या है? रास्ते बंद हैं. सड़कें सुनसान हैं. ऐसा लग रहा है जैसे हड़ताल हो गई है. देशवासी इतनी दूर खड़े कर दिए जाएं कि हमारे अपने लोग पास न आ सकें. उचित प्रबंध तो ठीक है लेकिन उसमें दिखावा नहीं होना चाहिए.’

इतना कहकर वाजपेयी फिर चुप हो गए. नजरें झुका ली. मैंने राजीव शुक्ला को इशारा किया कि उनकी बेचैनी पर उनसे कुछ और बात की जाए. पास ही उनके बेहद करीबी माने जाने वाले पत्रकार बलवीर पुंज खड़े थे. वो नहीं चाहते थे कि वाजपेयी इस क़दर भावुक और परेशान हों या दिखें. उन्होंने बात बदलने को कहा और बात बदल गई. एक -दो सवालों के बाद फिर वाजपेयी थोड़े सहज हुए. जो शख्स प्रधानमंत्री पद की शपथ लेकर कुछ ही मिनट पहले राष्ट्रपति भवन से लौटा हो, वो अपने घर के बाहर सुरक्षा एजेंसियों का ताम-झाम देखकर इस कदर परेशान हो जाए कि सवालों का जवाब आंसुओं से देने लगे तो समझिए कि उसके भीतर कितना भावुक इंसान बसता होगा.

और हां, ये आंसू बनावटी नहीं थे. दिखावटी नहीं थे. सुरक्षा दस्ते और घेरे को अपना स्टेटस सिंबल मानने वाले नेताओं के दौर में वाजपेयी अलग थे. हमने बीते सालों में दर्जनों ऐसे नेता देखे हैं, जो खुद की वीवीआईपी बनाए रखने के लिए अपने इर्द-गिर्द सैकड़ों पुलिस वालों की तैनाती करवाते हैं. सायरन और हूटर के शोर के साथ गाड़ियों के काफिले में चलने को अपनी शान समझते हैं. वाजपेयी ऐसे नहीं थे.

और वाजपेयी ने 13 दिन की सरकार से इस्तीफा दे दिया

ये बात तब की है, जब लोकसभा चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी बीजेपी को 161 सीटें मिली थी. बीजेपी के रणनीतिकार बहुमत जुटाने के लिए जोड़-तोड़ में लगे थे. दूसरी तरफ कांग्रेस, राष्ट्रीय मोर्चा और वामदलों के नेता ग़ैर भाजपा सरकार का विकल्प तलाशने में जुटे थे. बीजेपी संसदीय दल के नेता के रुप में अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया. राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी और तेरह दिन के भीतर बहुमत साबित करने का वक्त दिया. तमाम कोशिशों के बाद भी वाजपेयी बहुमत साबित नही कर सके. उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. फिर जोड़-तोड़ के बाद राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी.

(यह लेख यूसीवेब डॉट कॉम पर भी प्रकाशित हो चुका है)

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