संत नहीं नेता हैं लालू, इसलिए सजा भी राजनीतिक है

लालू यादव को खलनायक घोषित करने से पहले एक बार मार्च 1990 की परिस्थितियों का सिंहावलोकन करना जरूरी है.

Article image

लालू यादव ने बहुत पहले कहा था, “यह सही है कि मैंने आपको स्वर्ग नहीं दिया लेकिन इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि मैंने आपको स्वर नहीं दिया है.” और पिछले शुक्रवार को लालू को चारा घोटाले में जिस बात की सजा मिली वह सिर्फ और सिर्फ वही था कि उसने बिहार के बहुसंख्य दबे-कुचले समाज को स्वर दिया था.

लेकिन ठहरिए, इसका मतलब यह तो कतई नहीं है कि लालू पूरी तरह ईमानदार हैं! मेरा सवाल यह है कि क्या जगन्नाथ मिश्र ईमानदार हैं जिन्हें इसी मामले में बरी कर दिया गया? इसलिए इससे जुड़ा सवाल इतना ही मौजूं है कि राजनीतिक शुचिता की बात तो सब करते हैं लेकिन उस पर अमल कितने लोग करते हैं? दूसरा सवाल यह भी है कि जब शुचिता का कोई पालन ही नहीं करता है तो किसी बहुजन या दलित नेतृत्व को कैसे सजा दे दी जाती है और ताकतवर व सवर्ण नेतृत्व कैसे उसी या उसी तरह के मामले में बरी कर दिए जाते हैं!

दूसरा सवाल यह भी है कि जब शुचिता का पालन कोई भी नहीं करता है तो कुछ गिने-चुने लोगों को ही इसकी सजा कैसे दे दी जाती है और बहुसंख्य लोग कैसे उसी या उसी तरह के मामले में बरी हो जाते हैं?

मौजूदा दौर में बिल्कुल नई पीढ़ी जवान हो चुकी है इसलिए उसे चारा घोटाले से जुड़ी कुछ बातें जानना जरूरी है, वरना धारणाओं के आधार पर विचार बनाने के कई दुष्परिणाम हो सकते हैं. हाल ही में टूजी मामले में भी जज साहब का कुछ ऐसा ही आकलन था. तो चारा घोटाले की हकीकत यही है कि यहा लालू यादव के कार्यकाल से काफी पहले शुरू हो गया था.

जब लालू यादव 10 मार्च, 1990 को सत्तासीन हुए तो रुटीन प्रशासनिक फेरबदल में उस अधिकारी का भी तबादला कर दिया, जिसके नेतृत्व में यह घोटाला चल रहा था. लालू यादव को पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने एक चिठ्ठी लिखी और लालू ने उस अधिकारी के तबादले पर रोक लगा दी. बाद में इसका परिणाम इतनी बड़ी लूट के रूप में सामने आया. वर्ष 1996 में लालू यादव ने इसकी जांच के आदेश दिए. लेकिन लालू यादव को घेरने की तैयारी राजनीति और नौकरशाही का एक बड़ा, सवर्ण प्रभुत्व वाला तबका कर रहा था. ऐसे कई कारण थे जिससे वह समुदाय परेशान था.

अब कुछ बातों पर थोड़ा रुककर गौर करें. लालू यादव ने 10 मार्च, 1990 को बिहार के मुख्यमंत्री का पदभार संभाला था. उन्होंने आकाशवाणी से प्रसारित अपने पहले संदेश में राज्य की जनता से कहा था कि हमारी पहली प्राथमिकता सबको शिक्षा और सबको रोजगार देना होगा, दूसरी प्राथमिकता राज्य से बड़ी संख्या में हो रहे पलायन को रोकना होगा और तीसरा, अब तक हो रहे भ्रष्टाचार पर रोक लगाकर रुके हुए विकास की गति को फिर से शुरु करना होगा.

अगले दिन यानि कि 11 मार्च, 1990 का पटना से निकलने वाले अखबारों का मुख पृष्ठ देखें तो आपको ऐसा लगेगा कि लालू यादव ने मुख्यमंत्री के रुप में शपथ नहीं लिया था बल्कि लालू का अवतार हुआ था जिसके पास कोई चमत्कारिक शक्ति है!

लेकिन कुछ ही महीने बाद 7 अगस्त, 1990 को प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने की घोषणा कर दी. लालू यादव ने उस निर्णय का खुले दिल से स्वागत किया. कारण यह भी है क्योंकि उनकी पार्टी जनता दल ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का चुनावी वायदा किया था.

फिर 15 अगस्त को वीपी सिंह इसी बात को लाल किले की प्राचीर से दोहराते हैं. मंडल आयोग के फैसले को लागू करने का विरोध पूरे देश में हिंसक पैमाने पर शुरू हो गया. पटना के एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री लालू यादव का मंडल विरोधियों ने जोरदार विरोध किया. इसी सभा में लालू यादव ने पहली बार खुले शब्दों में मंडल विरोधियों को यह कहकर ललकारा कि जो भी व्यक्ति आरक्षण का विरोध करेगा उसको बुलडोजर से कुचल देगें.

मुख्यमंत्री के रुप में लालू यादव का यह रौद्र रूप पहली बार बिहार की जनता के सामने आया. अगले दो-तीन दिन के भीतर पटना में ही आरक्षण विरोधियों के एक बड़े प्रदर्शन पर पुलिस फायरिंग में बीएन कॉलेज के छात्र शैलेन्द्र राय की मौत हो जाती है. एकाएक लालू यादव की छवि अखबारों और संचार माध्यमों में खलनायक की बनाई जाने लगी. कुल मिलाकर लालू के पास मात्र 4 महीने 27 दिन का वक्त था जब वह बिहार के मुख्यमंत्री थे. इसके बाद सवर्ण नौकरशाही, सवर्ण मीडिया, सवर्ण अकादमिक, सांमतों और समाज के प्रभावशाली वर्गों के लिए इन साढ़े चार महीनों में ही लालू यादव ऐसा दैत्याकार व्यक्ति बन गए जिसे किसी भी कीमत पर पद से हटाने की मुहिम छिड़ गई.

दूसरी तरफ लालू यादव अपने काम से भी सत्ता पर पकड़ मजबूत कर रहे थे. मंडल की काट के लिए लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा पर निकल पड़े. पटना के गांधी मैदान में लालू यादव ने बतौर मुख्यमंत्री एक सर्वदलीय रैली को संबोधित किया. लालू यादव के उस ऐतिहासिक भाषण को याद कीजिए जिसमें वह आडवाणी से रथयात्रा खत्म करने की अपील करते हुए चेतावनी भी देते हैं कि चाहे उनकी सरकार रहे या चली जाए, हम अपने राज्य में दंगा-फसाद नहीं फैलाने देंगे. जहां बावेला खड़ा करने की कोशिश हुई, उससे सख्ती से निपटा जाएगा. जितनी एक प्रधानमंत्री की जान की कीमत है, उतनी ही एक आम इंसान की जान की क़ीमत है. अंततः लालू ने आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार करवाया.

आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद लालू ने जिस सक्रियता से कानून-व्यवस्था को अपने नियत्रंण में लिया उससे आम लोगों में उनकी छवि एक कुशल प्रशासक की बनी. गांधी मैदान की बुकिंग के लिए कलेक्टर के कार्यालय में जाकर आप पुराने फाइल को पलटें या फिर 1996 तक के पटना से निकलने वाले अखबारों का पृष्ठ पलटें तो आपको पता चलेगा कि पटना के गांधी मैदान में कितनी छोटी-छोटी जातियों की रैली हो रही थी जिसमें मुख्य अतिथि लालू यादव थे. इन रैलियों में उस जाति के नेता लोग मुख्यमंत्री लालू यादव से तरह-तरह की डिमांड करते थे और लालू उसे निबटाने का आश्वासन देते हैं.

लालू अपने पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ हर जगह भाषण में यह बात बोलते थे ‘अगर मैं घूस खाऊंगा तो मैं गाय का शोणित पीऊंगा.’ जनता लालू के भ्रष्टाचार विरोध के नारे को बिल्कुल उसी रूप में ले भी रही थी. मीडिया में यह कहकर प्रचारित किया गया कि लालू कहते हैं ‘भूरा बाल साफ करो’ (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला को खत्म करो) हालांकि लालू यादव ने इस बात का लगातार खंडन किया. लेकिन दमित बिहारी समाज में इसका संदेश यह गया कि लालू एक मात्र नेता है जिसमें उस समुदाय को औकात में रखने की क्षमता है. यह भी एक कारण था कि राज्य के सबसे ताकतवर तबकों के असहयोग के बावजूद उनकी पकड़ सत्ता पर मजबूत होती गई.

लेकिन कई बार ऐसी चूक भी हो रही होती है जो सचेतन उनके मन में भले ही नहीं रहा हो, अवचेतन में वो सारी चीजें कर रहे थे. 1991 और 1996 के लोकसभा चुनाव और 1995 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिली सफलता ने उनको अपने हितैषियों से दूर कर दिया. उसी बीच लालू के दोनों सालों ने मिलकर एक निरकुंश सत्ता की धुरी निर्मित कर ली. इसमें लालू की पत्नी राबड़ी देवी की सहमति थी.

लालू से अनायास कुपित मीडिया ने उस समानांतर सत्ता को ‘जंगल राज’ का नाम दिया. लालू भी कुछ-कुछ निरकुंश या राजा सा व्यवहार करने लगे, बावजूद इसके एकछत्र सवर्ण नौकरशाही, अकादमिक और मीडिया को लालू यादव ने जितनी बड़ी चुनौती दी, वह भारतीय लोकतंत्र में विरल उदाहरण है. इसी से जुड़ी लालू की चूक यह भी रही कि उन्होंने इन ताकतों को चुनौती तो दे दी लेकिन उसके समानांतर कोई संस्था नहीं खड़ा कर पाए.

थोड़ा-बहुत अगर उनका कंट्रोल था तो वह सिर्फ नौकरशाही थी, जिसमें दलितों और पिछड़ों का उनको सहयोग था. नौकरशाही से जुड़ी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि तब तक मंडल की राजनीति तो चल निकली थी लेकिन मंडल से नियुक्त नौकरशाह विभाग में आ नहीं पाए थे और अगर आए भी थे तो उनकी संख्या सीमित थी.

उन थोड़े से दलित-पिछड़े नौकशाहों की बदौलत लालू के कार्यकाल में कुछ ठेकेदार जरूर बने लेकिन वे अधिकांश लालू यादव के स्वजातीय थे. क्योंकि अन्य पिछड़ों और दलितों के पास ठेकेदारी करने के लिए पर्याप्त संसाधन ही नहीं थे. बाद में उन्हीं स्वजातीय ठेकेदारों को नजीर बनाकर लालू की ऐसी छवि पेश की गई कि उन्होंने सिर्फ स्वजातीय लोगों को लाभ पहुंचाया.

‘हथुआ महाराज से भी बड़ा राजा’ बनने की प्रक्रिया इतनी भयावह थी कि उनके अनेक सहयोगी सरेआम गुंडई करने लगे. इसी बीच एक मामले में चारा घोटाले का जिक्र आया और लालू यादव ने इस मामले की जांच के आदेश दे दिए. चारा घोटाला को सवर्ण नौकरशाही, अकादमिक और मीडिया द्वारा दुनिया के सबसे बड़े घोटाले के रूप में पेश किया गया. इसके लिए उन सारी चीजों को लालू के खिलाफ खड़ा कर दिया गया जिसे लालू ने बड़ी मेहनत से तैयार किया था. ‘ग्वाला’ से तैयार शब्द गाय को चारा से जोड़ दिया गया, ‘गाय के शोणित’ की कसम खाने वाले को गौमाता का भोजन चुरानेवाला करार दिया गया. रही-सही कसर सीबीआई ने यूके विश्वास को इसकी जांच सौंपकर पूरी कर दी. यूके विश्वास के दलित पृष्ठभूमि से होने को इस रूप में पेश किया कि ‘पिछड़ों के मसीहा’ ने ऐसी स्थिति बना दी है कि एक दलित को उसके खिलाफ लड़ना पड़ रहा है.

लालू को गिरफ्तार करने के लिए यूके विश्वास जज की सहायता से सलाह-मशविरा लेने लगे, जबकि लालू ने खुद कहा था कि मैं चौबीस घंटे बाद सरेंडर कर दूंगा. यूके विश्वास का यह क़दम पूरी तरह गैरकानूनी, असंवैधानिक और निर्देशित प्रोटोकॉल के खिलाफ था. कायदे से विश्वास के उपर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए थी, लेकिन लालू से चिढ़े संवैधानिक पदों पर बैठे सवर्णों ने इसकी परवाह नहीं की क्योंकि उसे हर कीमत पर लालू यादव से मुक्ति चाहिए थी.

यूके विश्वास के इस कृत्य पर तब पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने संसद में काफी तीखी आलोचना की थी. उन्होंने कहा था- “लालू प्रसाद ने जब ख़ुद ही कहा है कि आत्मसमर्पण कर देंगे, तो 24 घंटे में ऐसा कौन-सा पहाड़ टूटा जा रहा था कि सेना बुलाई गई? ऐसा वातावरण बनाया गया मानो राष्ट्र का सारा काम बस इसी एक मुद्दे पर ठप पड़ा हुआ हो. लालू कोई देश छोड़कर नहीं जा रहे थे. किसी के चरित्र को गिरा देना आसान है, किसी के व्यक्तित्व को तोड़ देना आसान है. लेकिन हममें और आपमें सामर्थ्य नहीं है कि एक दूसरा लालू प्रसाद बना दें. भ्रष्टाचार मिटना चाहिए, मगर भ्रष्टाचार केवल पैसे का लेन-देन नहीं है. एक शब्द है हिंदी में जिसे सत्यनिष्ठा कहा जाता है, अगर सत्यनिष्ठा (इंटेग्रिटी) नहीं है, तो सरकार नहीं चलायी जा सकती. सीबीआई अपनी सीमा से बाहर गयी है, ये भी बात सही है कि उस समय सेना के लोगों ने, अधिकारियों ने उसकी मांग को मानना अस्वीकार कर दिया था. ऐसी परिस्थिति में ये स्पष्ट था कि सीबीआई के एक व्यक्ति ने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया था. अगर पुलिस के लोग सेना बुलाने का काम करने लगेंगे, तो इस देश का सारा ढांचा ही टूट जायेगा.”

सीबीआई को लालू के खिलाफ हद से पार जाने का दुस्साहस और अवसर तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा और बाद में आईके गुजराल ने लालू को कमजोर करने के लिये उसे पर्याप्त छूट देकर की. कर्नाटक कैडर के आईपीएस अधिकारी जोगिन्दर सिंह के नेतृत्व में यूके विश्वास वही सबकुछ कर रहे थे जिससे लालू कमजोर हों. चारा घोटाला के नाम पर लालू की चमक मलीन होने लगी थी. देश भर का मीडिया चटखारे लेकर रपटें छापने लगा कि बिहार में कैसे स्कूटरों पर सांड़ ढोए जाते थे. और कैसे एक चरवाहा गाय का चारा खा गया. इसमें भी लालू की उस कहावत को उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जिसमें लालू कहते थे कि मैं बचपन में भैंस चराता था -चरवाहा था.

लालू अब सजायाफ्ता हैं और चुनाव नहीं लड़ सकते हैं. लेकिन राजनीति में शुचिता की आवश्यकता पर और लालू के भ्रष्टाचार पर ऐसे-ऐसे लोगों के वक्तव्य आ रहे हैं, जिनकी छत्रछाया में हजारों-लाखों करोड़ रुपए के संगठित कॉरपोरेट लूट को अंजाम दिया जा रहा है. लेकिन, इनके खिलाफ सबूत नहीं है और न ही उसके खिलाफ देश को जांच की जरूरत महसूस होती है. लालू के खिलाफ सबूत खोजे गए हैं, क्योंकि राजनीति का तकाजा था कि सबूत हर हाल में जुटाना है.

वर्ष 2014 में देश के भावी प्रधानमंत्री पूरे देश में 453 चुनावी सभाएं करते हैं. अगर एक चुनावी सभा पर औसतन खर्च सिर्फ दो करोड़ रुपए मान लिया जाय तो यह 900 सौ करोड़ रुपए से अधिक का खर्च होता है. जबकि उनकी पार्टी बीजेपी चुनाव आयोग में पूरी पार्टी का टोटल बजट का ब्यौरा ही सिर्फ 714 करोड़ रुपए का बताती है. नरेन्द्र मोदी जब से मुख्यमत्री बने, हमेशा अपने ‘औद्योगिक मित्र’ के चार्टेड प्लेन का ही इस्तेमाल करते दिखे. शुचिता का यही तकाजा है कि जिस देवगौड़ा ने लालू को चारा घोटाला में नेस्तनाबूद कर देने का बीड़ा जोगिन्दर सिंह को सौंपा था, वह जब प्रधानमंत्री नियुक्त होकर पहली बार दिल्ली पधारे थे तो वह चार्टेड प्लेन उनके मित्र विजय माल्या का था.

प्रधानसेवक बनने के बाद अपने निकटस्थ उद्योगपतियों को कितना लाभ पहुंचाया गया है इसका जिक्र इतनी सख्ती के बावजूद कभी-कभार ही मीडिया में आ पाता है. कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकारी बैंकों को दिवालिया तक बनाने की कोशिश शुरू हो गई है. लेकिन 89 लाख रूपए के हेराफेरी के मामले में लालू यादव को जेल में डाल दिया गया है जबकि उसी मामले में जगन्नाथ मिश्रा को बरी कर दिया गया है. न्यायपालिका की जातीय संरचना ने भी उनकी मुसीबतों को काफी बढ़ाया है.

लालू यादव आज सिर्फ एक राजनीतिक व्यक्ति नहीं बल्कि अवधारणा बन गया है. उत्तर भारत की राजनीति में जितना सामाजिक परिवर्तन लालू यादव ने किया है, अगर इसका कोई उदाहरण खोजा जाएगा तो उनके करीब सिर्फ मायावती आएगीं. और इसलिए इन्हीं दोनों से सबसे ज्यादा घबराहट ब्राह्मणवादी ताकतों को होती है. शायद इसी बात को ध्यान में रखकर वीपी सिंह कहते थे, ‘दरवाजे पर नेमप्लेट किसके लगे हैं इसपर मत जाइए, अगर मजलूमों की जिंदगी में सकारात्मक परिवर्तन आता है तो असली परिवर्तन वही है.”

सचमुच लालू यादव ने वही काम किया है. हो सकता है कि आज लालू यादव सत्ता के गर्त में चले गए हों और जेल में डाल दिए गए हों, लेकिन वह सिर्फ लालू यादव का ही योगदान है कि बीजेपी जैसी ब्राह्मणवादी पार्टी को नीतीश कुमार, उपेन्द्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी या रामविलास पासवानों से गठबंधन करने के लिए बाध्य होना पड़ा है. लेकिन हमारे देश के अकादमिक और विद्वतजन भी नैतिक रूप से उतने ही ईमानदार या बेइमान हैं जितना कि इस देश का कोई भी आम इंसान. वरना क्या वजह है कि उन्हें विश्व इतिहास की छोटी से छोटी या फिर लेनिन, बिस्मार्क या नेल्सन मंडेला के हर छोटे-छोटे निर्णय का घटनाक्रम विस्तार से याद रहता है लेकिन लालू यादव द्वारा किए गए क्रांतिकारी परिवर्तन उन्हें ‘जंगलराज’ की याद दिलाते हैं!

लालू के खिलाफ फैसला लोकतांत्रिक व्यवस्था से विश्वास हटाता है. अगर लालू यादव मौजूदा केंद्र सरकार के खिलाफ इतना मुखर नहीं होते तो हो सकता था कि लालू को भी जेल जाने की नौबत नहीं आती. लालू यादव जब भी सत्ता में रहे, दंगाई व जातिवादी ताकतों को औकात में रखा.

इसके पहले भी तमाम फैसले आए हैं जो चकित करते हैं. यह ठीक है कि लालू जननेता हैं लेकिन ऐसे फैसले से वह तबका भी विचलित होता है जिसके पक्ष में लालू आवाज उठाते रहे हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर लालू को चारा घोटाला में न फंसाया गया होता तो हो सकता है लालू की छवि किसी भी महानायक से बड़ी होती क्योंकि उनके दूसरे कार्यकाल के शुरुआत में ही चारा घोटाला ने उन्हें अपने शिकंजे में ले लिया था और तब से उनकी पूरी कोशिश उस फंदे से बाहर निकलने में ही जाया होती रही, न कि सत्ता में बैठकर कल्याणकारी काम करने में.

लालू यादव जैसे नेताओं की मुश्किल यह है कि राजनीति करने के लिये मोटा पैसा चाहिए और चूंकि पिछड़ी या दलित-आदिवासी जातियों से आनेवाले नेताओं के पास जनता का समर्थन तो होता है परन्तु उनके पास पैसे नहीं होते हैं. कॉरपोरेट घराने उन्हें पैसे देने के लिए तैयार नहीं हैं. क्योंकि ‘डील’ करते समय वो ऐसी शर्तें रखता है जो कॉरपोरेट के मनमाफिक नहीं होता और ‘सौदा हो नहीं पाता है! लेकिन तब तक सत्ता का खून उनके मुख में लग गया होता है. और चूंकि सत्ता उन पिछड़े-दलितों को किसी भी कीमत पर चाहिए इसलिए बाद में ‘समझौते’ का मजमून लेकर वे तैयार बैठे रहते हैं.

कभी-कभी बात बन जाती है, ज्यादातर मौकों पर नहीं बन पाती है. इसलिए आप इस विडंबना को पाएगें कि जब कोई भी दलित-पिछड़ा (अपवादस्वरूप मायवती) नेतृत्व पहली बार सत्ता में आता है तो जितनी कल्याणकारी योजनाएं वे अपने पहले कार्यकाल में शुरू कर लेता है, अगले कार्यकाल में वही नेतृत्व उसे खत्म करने की तैयारी कर रहा होता है!

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like