सुप्रीम कोर्ट में बीते एक महीने के दौरान घटी कुछ घटनाओं पर कानून के एक विद्यार्थी का नज़रिया.
हमारी न्यायपालिका, हमारे देश के संविधान का अभिभावक और हमारे अधिकारों की रक्षक भी है. ल्यूटियन जोन में अवस्थित सुप्रीम कोर्ट का करीने सजा खूबसूरत भवन अपनी भव्यता, प्रतिष्ठा और महत्व का एहसास देता है. लेकिन हाल के दिनों में यहां कुछ ऐसी बातें हुई, जिसने इस महत्वपूर्ण संस्था की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाई. हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई कुछ याचिकाओं ने इस चर्चा को हवा दी है.
सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली सरकार और यहां के उपराज्यपाल के बीच अधिकारों की सीमा तय करने का मामला चल रहा है. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन इस मामले में दिल्ली सरकार के पक्षकार के रूप में शामिल थे. मामले की सुनवाई के दौरान उन्होंने पीठ से कुछ नए तथ्यों पर बहस करने की इजाज़त मांगी, लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने साफ़ मना कर अपना फैसला सुरक्षित कर दिया. इससे आहत हुए राजीव धवन की मुख्य न्यायाधीश से कोर्ट में बहस भी हुई. इस घटना के बाद राजीव धवन ने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर वकालत से संन्यास लेने की घोषणा कर दी. 70 साल के धवन ने विरोध में अपना सीनियॉरिटी गाउन भी चीफ जस्टिस को वापस देने की बात कही. निश्चित रूप से इस घटना से न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को धक्का लगा है.
यह भी संयोग है कि कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के भीतर हुए एक और घटनाक्रम ने काफी नकारात्मक सुर्खियां बटोरी. कैम्पेन फ़ॉर ज्यूडीशियल एकाउंटबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर), जो कि एक गैरसरकारी संगठन है, द्वारा मेडिकल कॉलेज घोटाले के खिलाफ दायर की गई याचिका में जजों की घूसखोरी का मामला आ गया. इस मामले में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण का पीठ के साथ टकराव हो गया. यह मामला कहीं न कहीं न्यायपालिका की प्रतिष्ठा से भी जुड़ा हुआ था. हमारे देश में सीबीआई का जो हाल है उसे ध्यान में रखें तो कहना होगा कि इस तरह के संवेदनशील दस्तावेज अगर सीबीआई के हाथ लग जाएं तो सरकार के हाथ में खेलने वाली सीबीआई से सरकार क्या-क्या करवा सकती है. बल्कि बिना सबूत के भी सरकार न्यायाधीशों पर दवाब बना सकती है.
सहारा-बिरला डायरी, कलिखो पुल सुसाइड नोट ऐसी स्थितियों का ही सटीक उदाहरण है. प्रशांत भूषण और दुष्यंत दवे मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्र से नहीं बल्कि न्यायपालिका की प्रतिष्ठा के लिए टकराव मोल ले रहे थे. चीफ जस्टिस द्वारा जस्टिस चेलमेश्वर के निर्णय को पलटना क़ानूनी परंपरा और प्रोटोकॉल से ज्यादा अहं का टकराव लगता है. इसकी वजह यह भी है कि संविधान का आर्टिकल 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को एक विशेष शक्ति मिली हुई है. संविधान का यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को किसी भी कानून के किसी भी प्रावधान की उपेक्षा करने में सक्षम बनाता है, लेकिन सिर्फ तभी जब कि उन्हें लगे कि किसी मामले में पूर्ण न्याय कर पाना इसके बिना संभव नहीं है. यह बड़ा सवाल है कि अगर सुप्रीम कोर्ट इस घोटाले की निष्पक्ष जांच सुनिश्चित नहीं करता है तो सरकारी नियंत्रण वाली सीबीआई के भरोसे क्या इसकी उम्मीद की जा सकती है?
नेमो जुडेक्स इन कॉज़ा सुआ (Nemo Judex in Causa Sua), यह न्याय तय करने के कुछ मूलभूत सिद्धांतों में से एक है. जिसका मतलब है कि कोई भी जज खुद अपने मामले में बेंच पर नहीं बैठ सकता है. फिर चाहे उसकी न्यूनतम आशंका ही क्यों ना हो. सीजेएआर के केस में तो मुख्य न्यायधीश ने खुद मेडिकल स्कैम की कई सुनवाई की थी. इसीलिए उनका उस बेंच में होना न्याय के उस सिद्धांत से टकरा रहा था.
बार और बेंच का तालमेल इतना गाढ़ा हो चुका है कि दोनों एक दूसरे की पीठ थपथपाते दिखते हैं. परिस्थिति ऐसी है कि बार द्वारा बेंच की आलोचना की संभावना ही नहीं दिखती. देश भर के वकीलों को बार के इतिहास से कुछ सीख लेनी चाहिए. पूर्व मुख्य न्यायधीश एचएल दत्तु के कार्यकाल में ढेरों पुराने लटके हुए मामले बिना नोटिस के एक झटके में ख़ारिज कर दिये गये थे. उस समय सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे थे.
दवे बताते हैं कि इस फैसले के खिलाफ जस्टिस दत्तु के खिलाफ पूरे बार एसोसिएशन के तरफ से प्रस्ताव पास होने वाला था. प्रस्ताव पारित होने से पहले ही जस्टिस दत्तु ने दवे को बातचीत करने के लिए बुलाया. बातचीत में मुख्य न्यायाधीश को हड़बड़ी में लिये गए निर्णय का एहसास हुआ और उन्होंने कोर्ट की कार्यप्रणाली में सुधार करते हुए अपने पुराने फैसले को पलट दिया. मामला सुलझने के बाद जस्टिस दत्तु ने सभी को अपने घर चाय के लिए आमंत्रित किया. इस क़दम से बार और बेंच के रिश्ते में और मजबूती आयी.
यह इसलिए संभव हो सका क्योंकि बार ने मुख्य न्यायाधीश के फैसले के खिलाफ एक हिम्मती फैसला किया. जबकि बार के पास अंदरखाने में समझौता करने का अवसर था. ‘बार और बेंच’ के रिश्तों की परतें अब दिनोंदिन उघड़ रही हैं. यही हाल देश की तमाम हाईकोर्ट का भी है.
सुप्रीम कोर्ट में हुए हंगामे के बाद बार में अलग-अलग विचारों वाले कई गुट बन गए हैं. उनमें से कुछ न्यायपालिका की गरिमा का तर्क देकर इसमें मौजूद खामियों को दबाने में लगे हुए हैं. उनका तर्क उसी तरह खोखला है जैसे इन दिनों लोगों को देश और सरकार के बीच फर्क को भुलाया जा रहा है. नेता सरकार की आलोचना करने वाले को देश की आलोचना बना देते हैं. ये लोग न्यायपालिका की गरिमा की आड़ में इसमें मौजूद कुछेक गलत जजों को बचाने का काम कर रहे हैं. बहुत से ऐसे लोग भी यहां मौजूद हैं सब कुछ समझ कर भी चुप्पी साध लेते हैं.
संपर्क और सूत्र का खेल
जुगाड़ टेक्नोलॉजी के महत्व वाले इस देश में ‘जुगाड़’ के मुख्य स्रोत ‘संपर्क और सूत्र’ ही हैं. न्यायालय के गलियारों में अक्सर किस्से सुनाये जाते हैं कि कैसे सालों पहले की बात का बदला भी जज बनते ही लोग ले लेते हैं. कानून पढ़ने वाले विद्यार्थियों के मन मे सफल होने का फार्मूला ‘संपर्क और सूत्र’ बन गया है. यह स्थिति लोकतंत्र के इस स्तम्भ के लिए आश्वस्तकारी नहीं है.
‘संपर्क और सूत्र’ न्यायिक भ्रष्टाचार के समुद्र को पार करने का रामसेतु बनता जा रहा है. आज बेहद प्रभावशाली हो चुके सोशल मिडिया पर भी लोगों ने इन घटनाओं पर टिप्पणियां की और अपनी चिंता जताई.
सीजेएआर ने अपने ऊपर लगे 25 लाख के जुर्माने की कमी पूर्ति करने के लिए ऑनलाइन क्राउडफंडिंग की शुरुआत कर दी है. जिसमे लोगों ने सिर्फ 4 दिनों में 5.45 लाख का राशि का योगदान दिया है. इसका एक संकेत यह भी है कि देश के एक तबके में न्यायिक सुधार के लिए पर्याप्त जागरूकता है और वह इसके लिए खर्च करने को भी तैयार है.
सुप्रीम कोर्ट में बना टकराव का माहौल और बेंच के भीतर खिंची बंटवारे की रेखा इस देश के जिम्मेदार लोगों को सवाल पूछने का मौका देती है. वरना फिर ये कलिखो पुल सुसाईड नोट, जस्टिस लोया की मौत और ऐसी ही तमाम अनकही कहानियों की तरह दबा दिए जायेंगे. जैसे सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकीलों ने हिम्मत दिखा कर न्यायपालिका की जवाबदेही और संप्रभुता के लिए एक संघर्ष की शुरुआत की है. हमें सवाल पूछने की प्रथा अदालतों में भी पैदा करनी होगी साथ ही अदालतों को सवाल सुनने की आदत भी डालनी चाहिए. इससे न्यायपालिका में विश्वास को और गहरा बनाया जा सकेगा.
न्याय की स्याही संविधान के डब्बे में सूख रही है, इसे संघर्ष में भिंगो कर एक लम्बी लकीर खींचने की जरुरत है.