जातिवाद, धार्मिक कट्टरता, महिलाओं का सम्मान, पितृसत्ता सबकी जड़ें धर्म के खाद से मजबूत होती है.
भारत में आस्था और धर्म को लेकर बहसों की अंबार है. धार्मिक भावनाएं आहत होने का जबरदस्त दौर है. जहां आस्था है, वहां तार्किकता को खारिज करने का पूरा इंतजाम है. लेकिन उसका क्या जिसे किसी भी आस्था, भगवान में विश्वास नहीं? उसका इस देश में कोई स्थान है? क्या उसे अपनी बात रखने का अधिकार है? क्या राज्य (स्टेट) नास्तिकों को धार्मिक लोगों से सुरक्षा का भरोसा दे सकती है?
पिछले कई दशकों से भारत में धर्म और धार्मिक पाखंड के खिलाफ जागरूकता बड़े स्तर पर नहीं चलाई गई है या इसके खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ी गई है. सामाजिक सुधार के व्यापक आंदोलन नहीं हुए. कम से कम आजादी के बाद तो बिल्कुल भी नहीं. कई छोटे-छोटे प्रयास हुए, लेकिन वे कारगर साबित नहीं हुए.
मैं ये बात भारत में बह रही ताजा धार्मिक बयार के संदर्भ में कह रहा हूं. जब मैं हिंदुत्व को नकारता हूं तो हिंदू बंधु बिफर जाते हैं. लोगों को मालूम ही नहीं, हिंदू धर्म और हिंदुत्व में बुनियादी फर्क है. धर्म निजी विषय है. उसमें दूसरी मान्यताओं का बराबर सम्मान करने की सीख है. हिंदुत्व एक विचारधारा है. इसमें एक निश्चित जीवन पद्धति लोगों के ऊपर थोप दी जाती है. ये हिंदू धर्म के भीतर की भी विविधताओं को मानने से इंकार करता है. यहां धर्म निजी नहीं होता. यह सबकी मजबूरी बन जाता है. हर बार बताने की कोशिश होती है कि, मेरा वाला तेरे वाले से बेहतर है. इसका अस्तित्व ही दूसरे को नीचा दिखाने पर टिका है. हिंदुत्व कट्टरता का पोषक है. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है- दोनों का आधार अतार्किक है. उसे तर्कों की कसौटी पर जांचा जाना हमारे सिरे से मूर्खता होगी.
चुंकि मैंने हिंदुत्व और उसमें निहित कट्टरता का जिक्र किया है. इसका मतलब यह नहीं कि मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, बौद्धों, जैनों आदि में कट्टरता या धर्म को लेकर पागलपन कम होता है. ऐसा समझने की भूल कतई मत कीजिए कि बाकी धर्मावलंबी उदारवादी होते हैं.
मैं आपका ध्यान फिल्म ‘एस दुर्गा’ को लेकर हुए बवाल की ओर खींचना चाहता हूं. टीवी के एक प्रसिद्ध एंकर ने एक ट्वीट कर दिया- अगर दुर्गा को सेक्सी कहा जा सकता है तो फातिमा या मैरी को क्यों नहीं? इस पर मौलवी मौलाना भड़क उठे. एंकर ने तो जाल फेंका था, मौलानाओं पादरियों की सहिष्णुता की पोल खुल गई. करवा दिया केस.
इधर एंकर के लिए मुसलमानों और ईसाइयों को सांप्रदायिक रंग में रंगना आसान हो गया. शांतिपूर्ण बौद्धों का रोहिंग्या पर अत्याचार दुनिया देख ही रही हैं.
इसलिए ऐसे वक्त में जब धर्म की राजनीति देश के सिर के ऊपर से बह रही है, जरूरत है कि नास्तिकों को भी प्रचार-प्रसार का स्पेस दिया जाए. तर्कपूर्ण तरीके से लोगों के अंदर वैज्ञानिक सोच विकसित कर पाने की कोशिश हो. क्योंकि नास्तिकता ही समाज और मानव के संपूर्ण विकास में अंततः सहायक साबित होगा. भारतीय संविधान ने अगर लोगों को अपने धर्म को मानने, प्रचार प्रसार का अधिकार दिया है. तो क्यों न हमें भी धर्म को नहीं मानने का अधिकार हो?
दक्षिणपंथी तो छोड़िए वामपंथी भी नास्तिकता के विमर्श से भागते हैं. भगत सिंह को सुविधानुसार दोनों अपनाते रहते हैं. एक उनको नास्तिक नहीं मानता दूसरा सिर्फ पहले वाले को चिढ़ाने के लिए उनकी नास्तिकता को प्रोजेक्ट करता है. बाकी अपने जीवन में दुर्गा देवी, दिवाली का प्रचार करता रहता है. उदारवादियों की भी अपनी समस्या है. उदारवादी व्यक्तिवाद के सिद्धांत पर टिके हैं लेकिन उनका आउटरेज सेलेक्टिव होता है. वे दुर्गा पूजा, छठ पर सवाल छेड़ देंगे पर मुहर्रम, ईद पर सांप सूंघ जाता है. ईसा मसीह पर सवाल करने से भागेंगे. वहां अलग औपनिवेशिक मानसिकता काम करती है. भारत में ईसाई धर्म मने ईसाई मिशनरी, अंग्रेजी शिक्षा, क्लास आदि. यही तो चाहिए.
पत्रकार बंधु ही बताएं, फ़ेक न्यूज पर इतनी बात करते हैं, किंदवंतियों को मेनस्ट्रीम में स्पेस देना अपने आप में फ़ेक न्यूज़ का प्रसार है. याद कीजिए नब्बे के दौर में मंदिर, मार्केट और मंडल का दौर था. आजकल धार्मिक चैनलों पर यही धंधा फल फूल रहा है.
पूरी दुनिया में क़रीब 80- 85 करोड़ लोग नास्तिक हैं, जिनमें ज्यादातर एशिया के बाहर के देश हैं. यूरोप के सबसे विकसित देशों में 80 प्रतिशत तक नास्तिक लोग रहते हैं. वहां धार्मिक प्रभाव मानवीय विकास में गतिरोध नहीं बनते हैं. जबकि भारत की आबादी का बहुत कम या न के बराबर नास्तिकता को मानता है (0.50% के आसपास). हमारी सामाजिक संरचना को ही इस तरीके से गढ़ दिया गया है कि हम उसे तोड़ नहीं पाते. अंबेडकर और भगत सिंह को पढ़ तो लेते हैं, लेकिन वे क्या बताना चाहते थे, उसे जीवन में उतारने को तैयार नहीं हैं. मानसिक गुलामी से बाहर आना मौजूदा दौर की सबसे बड़ी जरूरत बनती जा रही है.
ऐसे समय में जब हम हर महीने इसरो के द्वारा अंतरिक्ष में पहुंच जाते हैं, तो देश के लोगों में धार्मिक चीजों को छोड़ वैज्ञानिक तार्किकता का बड़े स्तर पर विकास होना चाहिए था. लेकिन राजनीतिक प्रभुत्व के कारण ऐसा हुआ नहीं. राहुल सांकृत्यायन, अंबेडकर, भगत सिंह, पेरियार जैसे महान नास्तिक विद्वानों की प्रासंगिकता भारत के बड़े हिस्से से गायब है. इन लोगों ने ईश्वर को सिरे से खारिज कर समाज को आगे बढ़ाने का बेजोड़ काम किया है, उनकी रचनाओं और बातों को आम लोगों के बीच लाना बेहद जरूरी है. मौजूदा दौर के तर्कशील विचारक- जैसे यशपाल, गोविंद पाणसरे, एमएम कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, कांचा इलैया की रचनाएं बहुत कम लोगों तक पहुंच रखती है.
आज भारत में जो लोग नास्तिक हैं, वे भी धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ सही और तार्किक लड़ाई लड़ने के बदले अहंकार भाव में जी रहे हैं. हमें जरूरत है कि खुद के बलबूते पर संगठन बनाकर या व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास करने की, जिससे लोगों में आसानी से वैज्ञानिक सोच की वृद्धि हो. क्योंकि ये काम हमारी सरकारें कभी नहीं कर सकती.
राजनीतिक सत्ता के मकड़जाल से बाहर निकालने के लिए लोगों को धार्मिक चीजों के खिलाफ खड़ा करना ही होगा. लोगों को नास्तिकता की तरफ मोड़ना या उनके सामने बातें करना झटके जैसा हो सकता है, क्योंकि उस वक्त वे एक बड़े सामाजिक बंधन को तोड़ने के लिए बाध्य होंगे, जो झूठ पर आधारित रहा है. लेकिन उन्हें वैज्ञानिक आधार पर सच का सामना कराना होगा.
लोगों को भारतीय सामाजिक व्यवस्था के दुष्परिणाम के कारणों को समझाना होगा. लोगों के अंदर विश्वस्तरीय उदाहरणों को भरना होगा और इतिहास की बिगड़ती शक्ल की सच्चाईयों को किताबों और विचारों के माध्यम से बताना होगा. इसके लिए कथित धर्मनिरपेक्ष चादर ओढ़ना समाधान नहीं है. नास्तिक दोस्तों से आग्रह है कि लड़ाई शुरु कर दें. यही सबसे अच्छा समय है, जब धर्म की राजनीति समाज में हावी है. नास्तिकता से भारत की आधी समस्याएं खत्म हो जाएगी. जातिवाद हवा में उड़ जाएगा. धर्म के नाम पर मार काट खत्म हो जाएगा. महिलाओं को सम्मान मिल जाएगा. आखिर पितृसत्ता की नींव कहां है- धर्म में.