नफ़रत के बावजूद भारतीय छात्रों में अमेरिका जाने की होड़

भारतीय छात्रों में अमेरिकी कॉलेजों का मोह कायम है, हालांकि पिछले साल 25 फीसदी की तुलना में इस साल सिर्फ 12 फीसदी का इजाफा हुआ है.

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अप्रवासियों के प्रति अप्रिय माहौल के बीच ट्रंप प्रशासन ने वीसा कानूनों को सख्त बनाने की कोशिश की है. फिर भी भारत अपनी युवा प्रतिभाओं को अमेरिका के विश्वविद्यालयों का रुख करने से रोक पाने में असफल हो रहा है.

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जानकार बताते हैं कि निचले रैंक के भारतीय विश्वविद्यालयों, स्तरहीन पाठ्यक्रम और देश में नौकरी की सीमित संभावनाएं छात्रों के अप्रवास के कुछ अहम कारण हैं. बढ़ता भारतीय मध्य वर्ग और साथ में उसकी बढ़ती महत्वकांक्षाएं इस चलन को और तूल दे रही हैं.

इस वर्ष पिछले वर्ष के 1.66 लाख की तुलना में करीब 1.86 लाख भारतीय छात्रों ने अमेरिकी शिक्षण संस्थानों में उच्च शिक्षा के लिए आवेदन किया है. सोमवार को वाशिंगटन डीसी में गैर सरकारी समूह इंस्टिट्युट ऑफ इंटरनेशनल एजुकेशन द्वारा जारी रपट ‘ओपन डोर्स’ में बताया गया है कि यह आंकड़ा पिछले वर्ष की तुलना में 12.3 फीसदी ज्यादा है.

अप्रवासियों के प्रति अप्रिय माहौल का प्रभाव

भारतीय छात्रों का संख्या प्रतिशत में 2015-16 में 25% की बढ़ोत्तरी हुई जबकि 2014-15 में 29% की रही. इससे यह समझ आता है कि ट्रंप के अप्रवासी विरोधी चुनाव प्रचार के चलते भारतीयों के खिलाफ भेदभाव के मामलों में हिंसक बढ़ोत्तरी देखने को मिली. इसमें करीब आधा दर्जन हत्याएं हो चुकी है. इन सबका का थोड़ा बहुत असर जरूर हुआ है. शिक्षा सलाहकारों का कहना है कि आने वाले दो वर्षों में माहौल और भी खराब होने की उम्मीद है.

ध्यान रहे कि वर्ष 1998-99 में अमेरिकी विश्वविद्यालयों में महज 707 भारतीय छात्र थे. तब से यह संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है.

अमेरिका में चीन के छात्रों की संख्या में बढ़ोत्तरी लगभग एक सी ही रही है. जबकि यह आंकड़ें सिर्फ अमेरिका के हैं, भारतीयों के बीच सबसे लोकप्रिय शिक्षण केंद्र कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड जैसे देश रहे हैं. इन देशों में भारतीय छात्रों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है. आंकड़ें बताते हैं कि विज्ञान, तकनीकी और व्यापार के विषय अमेरिकी कैंपसों में भारतीय छात्रों के पसंदीदा रहे हैं.

दूसरों से बहुत पीछे हैं भारतीय विश्वविद्यालय

“यह चलन इशारा करता है कि भारतीय युवाओं के बीच अमेरिकी विश्वविद्यालयों को लेकर आकर्षण कम नहीं हुआ है. इसका एक बड़ा कारण है कि वहां के विश्वविद्यालयों में शोध पर अच्छा पैसा खर्च किया जाता है. उनके स्नातकोत्तर कार्यक्रम पूरी तरह से शोध पर आधारित हैं. जबकि भारत में स्नातक या शोध की इच्चा रखने वाले छात्रों के पास बहुत कम पाठ्यक्रमों के विकल्प होते हैं,” शिक्षाविद और फार्मा संस्थान की प्रोफेसर मिलिंद वॉग बताती हैं.

विज्ञान और तकनीक में भी आईआईटी, इंडियन इंस्टिट्युट ऑफ साइंस और टाटा इंस्टिट्युट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च जैसे मुट्ठीभर संस्थान ही हैं. यह न सिर्फ स्तरहीन हैं (कोई भी टॉप 200 के ग्लोबल रैंकिंग में भी नहीं है) बल्कि भारत की जनसंख्या के अनुपात में इनकी क्षमता भी काफी कम है. इन कॉलेजों की क्षमता 50,000 सीटों से भी कम है.

कला संकायों की स्थिति और भी दयनीय है. मुंबई विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने कहा, “भारत में प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों की भारी कमी है और कोई भी दुनिया की शीर्ष रैंकिंग में नहीं है. ऐसे में हमारे प्रतिभावान छात्रों के पास विदेश जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता. ज्यादातर को टॉप की कंपनियों में प्लेसमेंट भी मिल जाती है.”
यह भी एक तथ्य है कि भारत में बहुत ही सीमित संख्या में अंतरराष्ट्रीय छात्र पढ़ने के लिए आते हैं, उनमें भी ज्यादातर नेपाल, अफगानिस्तान और ग़रीब अफ्रीकी देशों से.

अच्छी सुविधाएं, कार्य संस्कृति, नौकरी की संभावनाएं

अमेरिकी कॉलेजों में अच्छी रैंकिंग और नौकरी की संभावनाओं के इतर, बेहतर सुविधाएं, लैब और शोध का बेहतर माहौल भारतीय छात्रों को आकर्षित करने के अन्य कारण हैं. छात्रों और शिक्षकों के संदर्भ में कैंपस विविध हैं. छात्र बताते हैं कि भारतीय शिक्षकों के मुकाबले वहां के शिक्षक चर्चाओं और विमर्श को लेकर ज्यादा खुले और सुलभ हैं.

छात्र यह भी कहते हैं कि विदेशी विश्वविद्यालयों से प्राप्त डिग्री भविष्य में सुनहरे अवसर की संभावनाएं बढ़ाते हैं. “अगर हमें स्नातक या डॉक्टरेट की डीग्री चाहिए तो हमारे पास विदेश जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. आईआईटी से एमटेक की डिग्री की उतनी अहमियत नहीं है. नौकरी देने वाले लगभग उतने ही पैसे स्नातक और स्नातकोत्तर दोनों को देते हैं. बाजार में विदेशी संस्थान की डिग्री को ज्यादा अहमियत दी जाती है. भारत में आम बात है,” आईआईटी बॉम्बे के बीटेक फाइनल वर्ष के छात्र रोहन गुप्ता (बदला हुआ नाम) कहते हैं.

युवाओं का कहना है कि दूसरे देशों की तुलना में अमेरिकी कालेजों से स्नातकोत्तर कार्यक्रम मंहगे हैं. जबकि डॉक्टरेट की डिग्री उतनी मंहगी नहीं है. “ज्यादातर रिसर्च स्कॉलर्स को पढ़ाने की फेलोशिप नि:शुल्क ही मिल जाती है.”

भारत का नुकसान अमेरिका का फायदा है

अमेरिका में हर छह विदेशी छात्र में एक भारतीय है. रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 3/5 भारतीय छात्र स्नातक स्तर के और 3/4 विज्ञान, तकनीकी, इंजीनियरिंग और गणित संबंधी क्षेत्रों में हैं.

डिपार्टमेंट ऑफ कॉमर्स के आंकडों के अनुसार विदेशी छात्रों ने वर्ष 2016-17 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में 5.5 खरब का योगदान दिया है. अमेरिकी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे अंतरराष्ट्रीय छात्रों का कुल योगदान 36.9 खरब और साथ ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था में 45,000 नए रोजगार के सृजन में मदद की है.

“दुनिया के टॉप दो सौ कॉलेजों में एक भी भारतीय संस्थान के न होने का नतीजा भारत न सिर्फ अपनी प्रतिभाओं को खो रहा है बल्कि पैसे का भी नुकसान कर रहा है,” आईआईटी कानपुर के एक प्रोफेसर ने कहा.

आव्रजन पर निगाहें

परदेश में पढ़ना हमेशा से ही आव्रजन के ऊपर सफलता के तौर पर देखा जाता है. यूएस नेशनल साइंस फाउंडेशन से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक करीब 80 फीसदी भारतीय या दूसरे एशियाई छात्र जो अमेरिका में पीएचडी पूरी करते हैं वो पढ़ाई के बाद अमेरिका में ही रह जाना पसंद करते हैं. डॉक्टरेट छात्रों का हर जगह स्वागत है.

“कुछ ही छात्र पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत वापस जाते हैं. वे या तो अमेरिका या विदेश में नौकरी करना पसंद करते हैं. पैसों के अलावा वहां के जीवन की गुणवत्ता भी उन्हें बहुत आकर्षित करती है,” इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाने वाले सीएस कुलकर्णी ने बताया.

सउदी अरब का प्रभाव

विदेशी छात्रों के दाखिलों ने जहां अमेरिकी विश्वविद्यालयों की वित्तीय मदद की वहीं अब पिछले एक दशक से इसमें गिरावट देखी जा रही है. अप्रवासियों के प्रति कटुता के माहौल और ट्रंप प्रशासन द्वारा वीसा नियमों को सख्त बनाने की कोशिशों से ताजा दाखिलों में 3.3% की गिरावट आई है.

अमेरिका में पिछले 12 वर्षों में दाखिलों में पहली बार कमी दर्ज की गई है. अभी प्रत्येक देश में दाखिलों का आंकड़ा प्राप्त नहीं हो सका है. हालांकि, सउदी अरब, जो सबसे ज्यादा छात्रों को अमेरिका पढ़ने भेजता है, इस घटते आंकड़ों का बड़ा कारण माना जा रहा है.

एक साल पहले अमेरिका में लगभग 61,000 बच्चे सउदी से थे जो अब घटकर 51,000 पर आ गया है. ब्राजील के छात्रों की 1/3 भागीदारी घटकर अब सिर्फ 13,000 की संख्या बची है.

एलेन इ गुडमैन, आइआइई अध्यक्ष और चीफ एक्सयुक्युटिव ने कहा, यह कहना बहुत जल्दी होगी कि दाखिलों पर ट्रंप की वजह से कोई असर पड़ा है. उन्होंने कहा, “सउदी अरब और ब्राजील दोनों सरकारों ने सरकारी छात्रवृत्ति में कटौती की है जिसकी वजह से बहुत से छात्र अमेरिका से बाहर चले गए.

अमेरिकी कैंपसों में विदेशी छात्रों की संख्या रिकॉर्ड 10.8 लाख है. यह पिछले वर्षों में विदेशी छात्रों की संख्या में कुल 3.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी है, गुडमैन ने कहा.

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