समय-समय पर देश भर में होने वाले चुनावों और दूसरे सरकारी फरमानों को लागू करने के लिए शिक्षकों और स्कूली स्टाफ को तैनात करना जारी है.
शिक्षा बेहद महत्वपूर्ण है. इसमें भी प्राथमिक शिक्षा तो सर्वोपरि है. अगर किसी के दिमाग में इसको लेकर कोई शंका है तो समय-समय पर आए सुप्रीम कोर्ट के बयानों से उसे दूर किया जा सकता है. अपने विभिन्न फैसलों में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है, “..हम मानते हैं… कि शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 21 के जीने के अधिकार में अंतर्निहित है. हजारों वर्षों से न सिर्फ अपने देश में बल्कि दुनिया भर में, शिक्षा के अधिकार को व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन के महत्वपूर्ण कारक के रूप में माना गया है.”
इसको बल देने के लिए, उन्होंने अमेरिका के चीफ जस्टिस इर्ल वैरेन का उल्लेख किया है, जिन्होंने अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के लिए बोलते हुए शिक्षा के अधिकार को निम्मलिखित तरीकों से चिन्हित किया:
“आज, राज्य व स्थानीय सरकारों के लिए शिक्षा मुहैया कराना बेहद महत्वपूर्ण कार्य है. शिक्षा मुहैया करवाना हमारी सबसे जरूरी गतिविधियों में शामिल होना चाहिए यहां तक की यह सैन्य सेवा से भी ज्यादा जरूरी होना चाहिए. यह बेहतर नागरिकता का आधार होना चाहिए. आज यह बच्चों के भीतर सांस्कृतिक गुणों को पनपाने का मुख्य साधन बन गया है. उन्हें व्यवसायिक ट्रेनिंग और ज़रूरत के अनुरूप माहौल में ढलने के लिए तैयार करता है. मौजूदा समय में यह कहना ठीक रहेगा कि जिन बच्चों को शिक्षा के अधिकार से महरूम किया जाएगा वो अपने जीवन में बाकियों से पीछे छूट जाएंगे.”
यह बात सच है कि शिक्षा का अधिकार जीवन के अधिकार में निहित है. इसके बावजूद भारत में शिक्षा की स्थिति कुछ इस तरह की है–
लेकिन अगर आप अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं तो माफ कीजिएगा, सरकारी स्कूल के शिक्षक किसी न किसी सरकारी काम में लगा दिए गए हैं या फिर उनके पद खाली पड़े हैं. या कक्षाओं में फर्नीचर नहीं हैं, छत टपक रही है, पानी नहीं है, बिजली नहीं है, किताबें नहीं हैं या पहुंची नहीं हैं. या…
जीहां… ऊपर दिए सभी उदाहरण भारत में विभिन्न सरकारों द्वारा की जाने वाली चिकनी–चुपड़ी बातों के बरक्स शिक्षा के प्रति उसकी गंभीरता को दर्शाता है. हालत जस के तस बने रहते हैं, चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो.
सभी केंद्र व राज्य सरकारों और चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संस्थाओं ने शिक्षकों के साथ बदली मजदूरों– (दिहाड़ी मजदूरों) की तरह बर्ताव किया है. उनके जिम्मे पढ़ाई–लिखाई के आलावा बाकी सारे ग़ैर–शैक्षणिक कार्य सौंप रखा है.
यह हालत तब है जबकि शिक्षकों को इस तरह के अशैक्षणिक कामों पर लगाने संबंधी सरकारों की कई याचिकाएं कोर्ट में खारिज हो चुकीं हैं. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी है जिसमें चुनाव आयोग की अपील को खारिज करते हुए न्यायाधीश ने कहा–
“हम निर्देशित करते हैं कि सभी शिक्षकों को रोल रिवीजन और इलेक्शन के कामों पर छुट्टियों और पढ़ाई न होने वाले दिनों में ही लगाया जाए. शिक्षकों को ड्यूटी और पढ़ाई के समय में काम न दिया जाए. हालांकि, नॉन टिचिंग स्टाफ को किसी भी दिन या किसी भी समय काम में लगाया जा सकता है (अगर कानून इसकी इजाजत देता है).”
दुर्भाग्यवश सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश में भी तीन कमियां रह गईं, जिसका दुरुपयोग अधिकारियों ने जमकर किया. एक शब्द है– सामान्यतया. दूसरा है परमिट शिक्षकों को छुट्टी के दिनों में काम पर लगाया जाय और तीसरा, ‘गैर–शिक्षण कर्मचारी’ की परिभाषा.
सरकार के लिए सभी परिस्थितियां सामान्य है और जब चाहे इसका उपयोग कर सकती हैं. इसलिए निर्देश को अपने हिसाब से तोड़–मरोड़ लेना आसान है.
तो, क्या शिक्षकों को छुट्टी नहीं चाहिए? अगर साल के 90 दिन– गैर शिक्षण कार्य के अनुमानित दिन– उन्हें अपने निजी समय की कुर्बानी देनी पड़ेगी जो दूसरे नहीं देंगे. क्या उनका शिक्षण कार्य और परिवार को यह नहीं भुगतना पड़ेगा?
शारीरिक शिक्षा, कला शिक्षक, पुस्तकालयाध्यक्ष, लैब एसिस्टेंट, योगा ट्रेनर आदि को गैर शिक्षण कर्मचारियों की श्रेणी में परिभाषित किया गया. ये शिक्षक सम्रग शिक्षण माहौल के अभिन्न अंग हैं. सरकारी स्कूल के पुस्तकालयों को इस दौर में क्यों बंद रखा जाए? छात्रों को शारीरिक शिक्षा की ट्रेनिंग क्यों नहीं मिलनी चाहिए? इस दौरान स्कूल के कर्मचारियों को प्रशासकीय कार्य क्यों बंद कर देना चाहिए?
पहले सरकार ने दूसरे संगठनों से कर्मचारियों की मांग करने की कोशिश की. हालांकि, 2004 में, सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि 1951 के अनुच्छेद 26 के अनुसार स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के कर्मचारियों को अधिग्रहित न करने की बात कही. (CIVIL APPEAL NO. 5659 OF 2007[Arising out of S.L.P. (Civil) No. 21963 of 2004). सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसी तरह की एक और घोषणा की जरूरत है जो गैर शिक्षण कर्मचारियों के अलावा सभी स्कूल के कर्मचारियों के लिए हो.
चुनाव आयोग अपना काम करवाना चाहता है. पोलियो अभियान होना है. वोटर कार्ड बनाए जाने हैं. प्रदूषण राहत अभियान भी जरूरी हैं. अगर शिक्षकों और स्कूल के बाकी कर्मचारी इन कामों को नहीं करेंगे तो ये सब कैसे पूरा किया जाएगा?
इसका आसान सा जबाव है, यह स्कूलों की दिक्कत नहीं है. ये समस्या भारत सरकार को ठीक करने की जरूरत है. समाधान भी, आसान है. पढ़े लिखे, युवा लोगों के काडर को स्थाई रूप से स्थापित किया जाए. इसके साथ यह भी कि उन्हें जब और जैसी जरूरत पड़ने पर देश के किसी भी हिस्से में भेजा जा सकता हो. भारत सामान्य सेवा की स्थापना हो जिसमें सेवाओं को बेहतर सुविधाएं और तरीकों के लिए नियमित किया जा सके. इन कर्मचारियों को समूचे भारत में लगा दीजिए. इन सेवाओं के लिए विभिन्न विभागों को भुगतान करना होगा. उन्हें मैनपावर के हिसाब से प्रति घंटे के काम के एवज के पैसे दिए जाएं. इसे प्रति वर्ष संशोधित किया जाएगा.
भारत में 29 राज्य व 7 केंद्र शासित प्रदेश हैं. हमारे यहां राष्ट्रीय चुनाव, राज्य स्तर के चुनाव व निकाय चुनाव होते हैं. तब हमारे यहां सर्वेक्षण कार्य, वोटर कार्ड, व अन्य राष्ट्रीय सर्वेक्षण, आधार कार्ड संबंधी काम, पोलियो और अन्य स्वास्थ्य अभियान, स्वच्छ भारत अभियान व अन्य काम भी होते हैं. इन कामों में लगे लोगों की संख्या से भारत के सामान्य सेवाओं में लगने वाली जनशक्ति का आकलन किया जा सकता है.
सेवाओं के उद्देश्य से हमारे पास विभिन्न क्षेत्र हो सकते हैं– मान लीजिए उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और मध्य और इन क्षेत्रों में नोडल सेंटर स्थापित किए जा सकते हैं. काम की मांग को ध्यान में रखते हुए अधीक्षकों की बहाली करने की जरूरत होगी.
मेरे हिसाब से हम ऐसे समय में पहुंच चुके हैं जहां शिक्षा बहुत लंबे समय से उपेक्षित है. भारत को अपने कीमती शिक्षण संसाधनों को इन दौड़भाग वाले कामों में बर्बाद करने से बचाना चाहिए. हमें याद रखना चाहिए, शिक्षित होना जीने के अधिकार का हिस्सा है और यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि हम शिक्षा को बढ़ाने के हर संभव प्रयास करें. शिक्षण कर्मचारियों को अन्य कामों में लगा देना इसे करने का कोई तरीका नहीं है.
हमारे संसाधनों पर पहला अधिकार, जैसा हमारे एक प्रधानमंत्री ने कहा, कि भारत के युवाओं का है. अगर हम उनके शिक्षा को द्वितीय वरीयता देंगे, तो जाहिर है हम भविष्य को अक्षम्य अंधकार में रखने की कोशिश कर रहे हैं.