जंतर-मंतर: लोकतांत्रिक तरीके से घोंट दिया गया असहमतियों का गला

एनजीटी ने जंतर-मंतर पर होने वाले सत्याग्रहों को रोक कर दिल्ली में लोकतांत्रिक विरोध का स्पेस खत्म कर दिया है.

WrittenBy:इंद्रेश मैखुरी
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असहमति या विरोध प्रकट करने का अधिकार, किसी भी लोकतंत्र का आधारभूत तत्व है. लेकिन दिल्ली में विरोध प्रदर्शन के लिए नियत स्थल, जंतरमंतर को नेशनल ग्रीन ट्राइब्युनल (एनजीटी) के आदेश के बाद धरनाप्रदर्शन के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया है.

पांच अक्टूबर, 2017 को एनजीटी ने वरुण सेठ एवं अन्य बनाम पुलिस कमिश्नर, दिल्ली एवं अन्य के मामले में जंतरमंतर को विरोध प्रदर्शनों के स्थल के तौर पर प्रतिबंधित करने का फैसला सुनाया. याचिकाकर्ताओं ने न्यायमूर्ति राघवेन्द्र सिंह राठौर की खंडपीठ के सामने कहा कि वे जंतरमंतर के आसपास के निवासी हैं और यहां होने वाले प्रदर्शन, उनके लिए परेशानी का सबब हैं. याचिकाकर्ताओं ने प्रदर्शनों के दौरान अत्याधिक ऊंचे स्वर में बजने वाले माइक के शोर, भीड़भाड़, गंदगी आदि का सवाल उठाया था. उनका तर्क था कि ये स्थितियां, इस क्षेत्र में उनका जीना मुहाल किये हुए हैं.

याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि कुछ लोग बरसोंबरस से जंतरमंतर पर ही रह रहे हैं और उन्होंने वहां स्थायी ढांचे खड़े कर दिए हैं, उन्होंने कहा कि एनडीएमसी ने वहां केवल दो अस्थायी शौचालयों की व्यवस्था की है, जिसके चलते वहां गंदगी का साम्राज्य पसरा रहता था. अपने जवाब में दिल्ली पुलिस ने एनजीटी को बताया कि जंतरमंतर पर केवल पांच हजार की भीड़ वाले प्रदर्शनों को ही अनुमति दी जाती है. इससे अधिक संख्या वाले प्रदर्शन रामलीला मैदान में होते हैं. दिल्ली पुलिस का यह भी कहना था कि पूर्व में धरना, प्रदर्शन आदि के लिए बोट क्लब नियत था. लेकिन वहां लोगों की बढ़ती संख्या के चलते ट्रैफिक आदि की समस्या को देखते हुए 1990 के शुरूआती वर्षों में ही धरना, प्रदर्शन के स्थल को जंतरमंतर स्थानांतरित कर दिया गया था.

वादियों और प्रतिवादियों के तर्क सुनने के बाद एनजीटी ने जंतरमंतर को धरना, प्रदर्शनों के स्थल के तौर पर प्रतिबंधित कर दिया.

एनजीटी ने जंतरमंतर के निकट रहने वाले वाशिंदों की चिंता की, यह तो ठीक है. पर अपनी मांगों को देश की सरकार के सामने लाने के लिए यहां इकट्ठा होने वालों की चिंता भी तो किसी को करनी चाहिए थी. जंतरमंतर पर धरनाप्रदर्शन के विरुद्ध याचिकाकर्तओं ने तर्क दिया कि जंतरमंतर पर कुछ लोग तो लम्बे अरसे तक जमे रहते हैं. इस फैसले को देखें तो लगता है कि एनजीटी ने भी इस बात को स्वीकार किया. पर प्रश्न यह है कि लोग क्यूं लम्बे समय तक जंतरमंतर पर रहते हैं? उनकी मांगों की सुनवाई नहीं होती, इसलिए रहते हैं. यह बताने वाला भी कोई नहीं होता कि उनकी मांग पर कोई कार्यवाही होगी कि नहीं. गंदगी, शोर, ट्रैफिक जाम आदि के सवाल भी व्यवस्थागत सवाल ही हैं. ये सभी यदि समस्याएं हैं तो ये नियामक एजेंसियों जैसेपुलिस, एनडीएमसी आदि की लापरवाही या अक्षमता को ही प्रदर्शित करते हैं. इसलिए यह मुमकिन था कि बजाय जंतरमंतर को धरना, प्रदर्शनों के स्थल के तौर पर पूर्ण रूप से प्रतिबंधित करने के सभी नियामक प्राधिकारियों पर सख्ती से अपने कर्तव्यों के पालन के लिए जोर डाला जाता. इससे जंतरमंतर प्रदर्शनों के स्थल के तौर पर कायम भी रखा जा सकता था और इस क्षेत्र के आसपास के बाशिंदों के सवालों को हल भी किया जा सकता था. बहरहाल दिल्ली पुलिस ने एनजीटी के आदेश का अनुपालन करते हुए पूर्व सैनिकों समेत सभी प्रदर्शनकारियों को जंतरमंतर से खदेड़ दिया.

जंतरमंतर पर सुनवाई होती थी कि नहीं, कहा नहीं जा सकता. लेकिन देश के तमाम हिस्सों से अपनी आवाज बुलंद करने और अपनी पीड़ा व्यक्त करने लोग जंतरमंतर पर आते थे. देश सुधारने के विचित्रविचित्र विचारों के तम्बू भी वहां लगे होते थे. बहुत साल पहले देखा था किजूता मारो आन्दोलनका तम्बू वहां लगा था. इनका सूत्रीकरण यह था कि देश में बढ़ते भ्रष्टाचार से निपटने के लिए जूता मारना ही समाधान रहा गया है! है तो विचित्र, इससे सहमत भी नहीं हुआ जा सकता. पर जंतरमंतर में ये भी जगह पा जाते थे.

3-4 साल पहले देखा था कि जम्मू के ऐसे लोगों का धरना लगा हुआ है, जिनका दावा था कि उन्होंने भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के लिए काम किया है. पर ये एजेंसियां उनको मान्यता नहीं दे रही हैं. मैंने उनसे पूछा कि सीमा पार भी आपके जैसे लोग हैं? तो उनके नेता ने बताया कि उस पार वालों की तो हमसे बुरी हालत है, वे तो अपनी बात हमारी तरह कह भी नहीं सकते. मैंने पूछा कि आपने कैसे सोचा कि आपको, यह काम करना चाहिए? आदमी सोचता है कि डाक्टर, बनूंगा, वकील बनूंगा, दुकानदार बनूंगा, पर खुफिया एजेंसी का एजेंट बनूंगा? इस पर उनके नेताजी हत्थे से उखड़ गये और कहने लगेआपकी भाषा तो एजेंसी के लोगों वाली है! इनका दावा थाहम तो देशभक्त लोग हैं, इसलिए सरकार को हमारी बात सुननी चाहिए.

देश भर के जनांदोलनों की मंजिल था जंतरमंतर. जाने कितने ही जुल्म के मारे, जिनकी कहीं सुनवाई नहीं होती थी, वे जंतरमंतर पर सुनवाई की आस में बैठे रहते थे. संभवतः यह सोच होती होगी, देश के किसी सुदूर हिस्से में तो हमारी आवाज सरकार के ऊंचे कानों तक नहीं पहुंच रही है. क्या पतासंसद के नजदीक जा कर ही हमारी आवाज सुन ली जाए

लेकिन अब यह जंतरमंतर प्रदूषण के नाम पर छीन लिया गया है. प्रदर्शन के लिए नयी जगह बतायी गयी हैरामलीला मैदान. दिल्ली पुलिस ने एनजीटी के सामने तर्क दिया कि पांच हजार से अधिक संख्या वाले प्रदर्शनों की अनुमति रामलीला मैदान में दी जाती है. एनजीटी ने अपने फैसले में लिखा कि सारे ही धरना, प्रदर्शनों की जगह रामलीला मैदान, अजमेरी गेट हो. यह वर्तमान में उत्तरी दिल्ली नगर निगम के पास है.अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस  में छपी रिपोर्टों के अनुसार उत्तरी दिल्ली नगर निगम कह रहा है कि वो एक समय पर एक ही पार्टी को यह स्थल दे सकते हैं और इसका प्रतिदिन का शुल्क 50,000 रुपए है. निगम ने यह रेट तय किया है. सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करना चाहें तो पहले सरकार के एक अंग को पचास हजार रुपया चुकाएं! वरना आपको अपनी आवाज उठाने का भी हक़ नहीं है. यानि विरोध प्रदर्शन को भी हमारे लोकतंत्र में एक विलास में तब्दील किया जा रहा है.

आप चुनाव लड़ना चाहते हैं तो उसकी प्राथमिक शर्त है कि आपके पास विधानसभा के नामांकन के लिए दस हजार रुपये होने चाहिए और लोकसभा के लिए पच्चीस हजार! और अब यह नया फरमान कि विरोध प्रदर्शन करने के लिए पचास हजार रुपये चाहिए! हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं और इस लोकतंत्र के सरकारी पहरुएसबसे बड़े वसूली एजेंट!

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