झारखंड में संतोषी कुमारी की मौत ने देश में बच्चों के कुपोषण की गंभीर समस्या को फिर से सामने ला दिया है.
अमर्त्य सेन का बहुचर्चित कथन है, “किसी जीवंत लोकतंत्र में अकाल नहीं पड़ता है.” चुनावी स्पर्धा के जरिए देश के नागरिक ऐसे नेताओं की नकेल कस सकते हैं जो भुखमरी की समस्या पर काबू पाने में असमर्थ रहते हैं. सेन के विश्लेषण का एक अहम पक्ष है आज़ाद मीडिया: मीडिया के जरिए भूख को दुनिया के सामने लाया जा सकता है, लोगों को इसके खिलाफ गोलबंद कर राजनीतिक कार्रवाई के लिए मजबूर किया जा सकता है. इसके बावजूद भारत एक गुप्त हत्यारे के चंगुल में है: कुपोषण. बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में भारत का प्रदर्शन सबसे बुरा है. दुनिया में कुपोषित बच्चों की सूची में भारत का स्थान बहुत ऊंचा है (लगभग 50 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं). सहारा मरुस्थल के अफ्रीकी देशों से भी ज्यादा कुपोषित बच्चे भारत में हैं. ये आंकड़े हमारे राजनीतिक नेतृत्व को पता होते हैं पर शायद ही यह कभी जनता के बीच विमर्श का मुद्दा बन पाता है.
यही कारण है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र आकाल मुक्त देश तो बना रहता है लेकिन भीतर से भूख की भयानक जकड़ में रहता है. यह दोनों सच्चाईयां झारखंड के सिमडेगा जिले के जलडेगा ब्लॉक में दिखाई देती हैं, जहां से हाल ही में एक बच्ची की भूख से मौत की खबरें आई थी. करिमाती बस्ती गांव के दलित परिवार से आने वाली 11 वर्षीय संतोषी कुमारी की मौत 27 सितंबर को हो गई. मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया कि संतोषी की मौत भूख से हुई.
सामुदायिक मीडिया संस्था वीडियो वॉलिन्टियर्स के सदस्य 18 अक्टूबर को गांव में तथ्यों की पड़ताल के लिए पहुंचे. इस यात्रा में एक और जटिल कहानी सामने आई- कि भुखमरी से होने वाली मौतें तभी सार्वजनिक बहस का मुद्दा बन पाती हैं जब इस तरह की झकझोरने वाली मीडिया रिपोर्ट आते हैं. यह भुखमरी की विकृत राजनीति को दर्शाता है.
संतोषी की मां, कोयली देवी ने बताया कि बच्ची की मौत के आठ दिन पूर्व से समूचे परिवार ने कुछ भी नहीं खाया था. जो समस्या उन्होंने बताई, उनके पास राशन कार्ड नहीं है. उनके पास आधार कार्ड है लेकिन जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) से न जुड़े होने के कारण उन्हें अनाज नहीं मिल सकता. उन्होंने बताया कि संतोषी भात मांगते-मांगते मर गई. पड़ोसी और स्थानीय स्वयं सहायता समूह (जिसकी सदस्य कोयली देवी भी हैं) से बातचीत में एक अलग ही कहानी सामने आई. उनके मुताबिक संतोषी बहुत बीमार थी और लोगों ने एक डॉक्टर को उसे दवाईयां देते हुए भी देखा था. हमने उस डॉक्टर से भी सवाल पूछा. नारायण सिंह (बीएमएस, आरएमपी) ने बताया कि संतोषी को सेरेब्रल मलेरिया था. हमने संतोषी के कब्र के पास दवाईयों का पैकेट भी देखा.
वास्तविकता यह है कि संतोषी की मौत हुई है. यह भुखमरी से हुई या नहीं यह विवादास्पद बन गया है या बना दिया गया है. लेकिन कुछ तथ्य स्पष्ट है. एक जवान लड़की मर चुकी है और उसके परिवार के पास राशन कार्ड नहीं था. वह निश्चित तौर पर ही कुपोषित थी- उसी तरह हमने परिवार के बाकी सदस्यों और पड़ोस के बच्चों को भी कुपोषित पाया.
लेकिन इन लापरवाह परिस्थितियों की ओर लोगों का ध्यान उस तरह नहीं जाता जैसे कि भुखमरी शब्द की तरफ जाता है. जैसे ही भुखमरी से मौत की ख़बर आई मीडिया में होड़ लग गई (आमर्त्य सेन के तर्क को पुष्ट करते हुए) और भुखमरी के खिलाफ खबरें चलने लगी. बाहरी दुनिया कारीमाती बस्ती की ओर दौड़ पड़ी: रिपोर्टर, नेता, प्रशासन, स्वंयसेवी संगठन, सभी गांव पहुंचने लगे. हमारे दौरे के दिन, एक राजनीतिक दल, एक राष्ट्रीय अखबार, एक सरकारी मेडिकल कैंप और करीब 15 सेना के जवान पूर्व मुख्यमंत्री के दौरे के लिए सुरक्षा बंदोबस्त कर रहे थे. यह अव्वल दर्जे का राजनीतिक मेला था.
भुखमरी की मौतें हेडलाईन बनाती हैं लेकिन रोज़िंदा हालात को नज़रअंदाज करने वाली राजनीति हमेशा अदृश्य ही रहती है- करामाती बस्ती भी इससे अलग नहीं था. गांव से निकलने के पहले, हमने गांव के मुखिया से बात की जो अपने स्मार्ट फोन से रिकॉर्डिंग कर रहीं थी. हमने उनसे गांव की सबसे गंभीर समस्या के बारे में जानना चाहा. वो काफी सोचते हुए बोलीं- सड़कें. हमने उनसे भारत में कुपोषण की दर के बारे में पूछा जिसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं थी, न तो देश के बारे में न अपने खुद की पंचायत के बारे में. संतोषी की मौत और उस पर राष्ट्रीय मीडिया का पूरा ध्यान होने के बावजूद मुखिया ढांचागत खामियों की तरफ नहीं देख पा रही थीं.
इंस्टिट्युट फॉर फूड पॉलिसी रिसर्च के मुताबिक, झारखंड में पांच वर्ष से कम उम्र के 57 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं. बच्चों को पर्याप्त कैलोरी, बचपन की अवस्था का कम होना और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर- इन पैमानों पर झारखंड की स्थित जिम्बाब्वे और हैती जैसों देशों से भी नीचे है. यह ख़बर नही बनती, ये स्थापित तथ्य हैं पर मीडिया का ध्यान भी इस पर नहीं जाता और लोगों को भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ता.
वीडियो वॉलिंटियर्स अपने कार्यक्रम इंडिया अनहर्ड के तहत इस तरह के अनछुए मामलों को सामने लाने और उनका मानवीय पक्ष जानने की पहल करता है. वीडियो वॉलिंटियर्स के रिपोर्टर वार्ल्स सुरिन करिमाती बस्ती से पांच किलोमीटर की दूरी पर रहते हैं और गांव के भीतर अधिकार और उपलब्ध सुविधाओं के ऊपर चार वीडियो बनाई, जिसमें से की तीन सुलझाए जा चुके हैं. चौथा मुद्दा- जो कि अनसुलझा रहा है- वो है राशन कार्ड का. उन्होंने करीब डेढ़ साल पहले यह रिपोर्ट की थी. उन्होंने वैसे 70 परिवारों के बारे में वीडियो में बताया जिन्हें राशन कार्ड नहीं मिल सके थे. उन्होंने लगातार ये वीडियो अधिकारियों को दिखाया था. अभी हाल में ही अक्टूबर 2017 में बीडीओ (ब्लॉक विकास अधिकारी) को दिखाया था- इसी महीने संतोषी की मौत हुई.
लेकिन उम्मीद की एक किरण दिखती है. करिमाती बस्ती के लोग गांव में हुई त्रासदी जिसपर सबकी निगाहें हैं, इसे गांव में बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने की मांग का अवसर देख रहे हैं. हमारे दौरे के अंत पर, एक पंचायत सदस्य हमारे पास पर्ची लेकर आयीं, जिसपर उन्होंने मांगें लिख रखी थी. वीडियो वॉलिंटियर्स के कैमरे के सामने, उन्होंने गांव आने वाले नेताओं और रिपोर्टरों को मांगों की सूची दी.
किसी बच्चे की मौत नहीं होनी चाहिए, वजह चाहे जो भी हो. कुपोषण और जन वितरण प्रणाली की खस्ताहालत पर गंभीरता से विचार होना चाहिए. पर शायद संतोषी की मौत जरूरी कारवाई की मांग उठा पाए.