भवन से अखबार तक: हिंदी की सिकुड़ती बौद्धिक जमीन के संकेत

अंग्रेज़ी की अनूदित सामग्री से हिन्दी सम्पादकीय पृष्ठों का भरा होना ऐसा लगता है कि मानो समकालीन चिंतन अंग्रेजी मीडिया को 'आउटसोर्स' कर दिया गया है.

WrittenBy:आनंद वर्धन
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बताने वाले बताते हैं कि 1972 में ‘उर्वशी’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद जब रामधारी सिंह ‘दिनकर’ पटना आए तो बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भवन में आयोजित अभिनंदन समारोह में अपनी कविता ‘नील कुसुम’ एक विशाल जनसमूह को सुनाई थी. आज इस भवन पर टंगे बोर्ड में हिन्दी और साहित्य के बीच का अंतर महज संयोग नही है. टेंट के ठेकेदार, हलवाई की फौज, पारिवारिक आयोजनों की भीड़ और हनी सिंह का शोर आज इस भवन को सजीव रखे हुए हैं.

इस भवन का बदलता मिज़ाज हमारे हिन्दी समाचार पत्र- पत्रिकाओं के बदलते सांस्कृतिक और साहित्यिक सरोंकारों में भी इसी तरह देखा जा सकता है. ऐसा भी कहा जा सकता है कि वैचारिक और साहित्यिक परम्पराओं की ज़मीन या तो हिन्दी प्रिंट-परिधि से खिसकती नज़र आ रही है या इसकी जगह नए बौद्धिक समीकरणों ने ले लिया है.

विचारों के सूखते सरोवर पर बेचैनी कभी-कभार देखने को मिलती है गोष्ठियों और पुरस्कार समारोहों में. तीन साल पहले एक पुरस्कार समारोह में बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पाण्डे ने इसके कुछ कारणों में से एक की ओर संकेत देते हुए हैबरमास के ‘पुनर्सामंतीकरण’ की अवधारणा का जिक्र इक्कीसवीं सदी में हिन्दी मीडिया के विस्तार के संबंध में किया था. उनका कहना था कि बढ़ती वित्तीय शक्ति और पाठको और दर्शकों की बेजोड़ ताकत के बाद भी हिंदी मीडिया का प्रभाव सामाजिक और सांस्कृतिक अनुक्रम में उसके स्थान पर नहीं पड़ा है. शायद वो यह भी जोड़ सकती थीं कि हिन्दी मीडिया के विकास के साथ विचार-जगत से उसकी दूरियां बढ़ी हैं.

कहने को यह भी कहा जा सकता है की बाजार-तर्क ने हिंदी मीडिया की बौद्धिक स्वायत्तता को चुनौती दी है और महत्वपूर्ण ढंग से सफल भी रहा है. यह तब ज्यादा स्पष्ट रूप से दिखता है जब हम हिन्दी पत्रकारिता के उस समय को याद करते है जब उसके पृष्ठों में विचारों का फैलाव दिखता था.

करीब चार वर्ष पहले जब दैनिक भास्कर, देश का दूसरा सबसे पढ़े जाने वाला दैनिक, ने अपने सम्पादकीय पृष्ठ को कतरा तब यह उस समय और आने वाले समय के लिए भी एक संकेत था. हिन्दुस्तान भी अपनी टिप्पणी सामग्री को कम कर चुका है, अपने समूह के अंग्रेजी प्रकाशन हिन्दुस्तान टाइम्स की तरह.

देश के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले अखबार, दैनिक जागरण, में जब मालिकान प्रधान संपादक और स्तंभकार हों तो सम्पादकीय पृष्ठ बौना नहीं हो सकता और है भी नहीं. विचारों से भरे इसके सम्पादकीय पृष्ट में समकालीन चिंतन के प्रति एक रुझान है, हालांकि अखबार का सम्पादकीय (राजनीतिक) झुकाव भी वहां किसी से छिपा नहीं है. लेकिन यह अखबार भी ऑप-एड पन्ने को विलुप्त करने से खुद को रोक नहीं पाया और ये प्रवृति अमर उजाला में भी दिखती है जिसमें पिछले दो वर्षों में सम्पादकीय और ऑप-एड पृष्ठों पर कैंची चली है.

ऐसे सामान्य रुझान के बीच रोचक बात ये है की इसके विपरीत जिस अखबार ने अपने वैचारिक सामग्री वाले पृष्ठों को समृद्ध किया है वो टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह का नवभारत टाइम्स है. अपनी छवि से हट कर इस हिंदी दैनिक ने विविध विचारों को स्थान देते हुए पाठकों को बहुआयामी विश्लेषण और चिंतन से परिचित होने के अवसर बीते कुछ महीनों में हर रोज़ दिया है. जबकि आश्चर्य और गहरी निराशा के मिश्रित भाव से जिस अखबार की वैचारिक भूमि अब देखी जा रही है वो इंडियन एक्सप्रेस समूह का हिन्दी प्रकाशन जनसत्ता है.

अपनी पुस्तक ‘हेडलाइंस फ्रॉम द हार्टलैण्ड’ के शोध की प्रक्रिया में पत्रकार और मीडिया आलोचक शेवंती नैनन बिहार में एक ऐसे स्कूल शिक्षक से मिलीं जो करीब 30 किलोमीटर की दूरी तय कर राजधानी पटना सिर्फ जनसत्ता की एक प्रति लेने आते थे. उन्हें इस अखबार की सम्पादकीय सामग्री और साहित्यिक परिशिष्ट का नशा जैसा कुछ था. इस बात की प्रबल संभावना है कि जनसत्ता के मौजूदा रूप में वो उतना उत्साह न दिखाएं. अखबार को अब उसके कटे-छटे सम्पादकीय पृष्ठ और गायब ऑप-एड में पहचानना कठिन है.

जनसत्ता की यह स्थिति समूह के अंग्रेजी प्रकाशन इंडियन एक्सप्रेस से अलग है जिसमें सम्पादकीय और ऑप-एड पन्ने काफी जीवंत हैं और साहित्यिक और पुस्तक समीक्षा के लिए भी नियमित स्थान है. पुस्तक समीक्षा ऐसी विधा है जो हिन्दी मीडिया में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती नज़र आती है . दैनिक भास्कर का साप्ताहिक प्रयास चलते-फिरते किसी ताका-झांकी से अधिक नहीं लगता जबकि जनसत्ता की साहित्यिक अभिरुचि पूरी तरह से ढलान पर है. यह उस काल से संबंध विच्छेद जैसा लगता है जब हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठ मुक्तिबोध, धर्मवीर भारती, यशपाल और हरिशंकर परसाई जैसे लेखकों की कलम से साहित्यिक मिज़ाज़ पाते थे.

हिन्दी इंडिया टुडे के साहित्य विशेषांक की शुरुआती संभावनाएं भी समय के साथ एक छलावा में बदल गईं. अब वह मीडिया समूह ‘साहित्य आज तक’ जैसे कार्यक्रमों का आयोजन करता है जिसका उद्देश्य इसी बात से समझा जा सकता है कि उसमें कवि के नाम पर कुमार विश्वास दिखते हैं और लेखक की जगह चेतन भगत बोलते नज़र आते हैं.

बौद्धिक स्वायत्तता का संकट हिन्दी मीडिया ने बहुत हद तक खुद खड़ा किया है. इसका एक महत्वपूर्ण कारण पत्रकार राहुल पंडिता ने वरिष्ठ सम्पादकों द्वारा युवा पत्रकारों के बौद्धिक विकास को प्रोत्साहित करने में विफलता या उसके प्रति उदासीनता को बताया है. इसका एक परिणाम ये हुआ की हिन्दी मीडिया में इन-हाउस वैचारिक संस्थानों की एक कमी देखी जा सकती या फिर उन संसाधनों में आत्मविश्वास का अाभाव.

हिन्दी प्रिंट जगत में भारी संख्या में अनूदित अंग्रेजी लेखों या स्तम्भों की उपस्थिति देखी जा सकती है. अंग्रेजी अखबारों की अनूदित सामग्री से हिन्दी सम्पादकीय पृष्ठों का भरा होना ऐसा लगता है कि मानो समकालीन चिंतन अंग्रेजी मीडिया को ‘आउटसोर्स’ कर दिया गया है. यह हिन्दी प्रिंट परिधि तक सीमित नहीं.

हिन्दी टेलीविज़न में भी सामयिक विषयों पर चर्चा अक्सर अंग्रेजीभाषी बुद्धिजीवी वर्ग या अंग्रेजी मीडिया के स्वरों से ही होती है, उसमें द्विभाषिक मौजूदगी काफी कम होती और हिन्दी पट्टी के बौद्धिक स्वरों की तो उससे भी कम. इस आभाव के प्रति चिंता बाहरी विचारों के लिए दरवाज़े बंद करना या फिर किसी बौद्धिक संकीर्णता के लक्षण के रूप में नहीं देखना चाहिए. यह चिन्ता का कारण इसलिए है क्योंकि हिन्दी मीडिया ने अपने खुद के संसाधनों में निवेश करने की जगह एक आलसी और आसान सा रास्ता चुना है. अंग्रेजी भाषी बौद्धिक वर्ग के विश्लेषण और विचार को जगह मिलना एक स्वस्थ परंपरा है लेकिन हिन्दी बौद्धिक ज़मीन का यूं सिकुड़ जाना एक संकट का संकेत है.

बौद्धिक आउटसोर्सिंग की इस प्रक्रिया से हम उन दृष्टिकोणों और पक्षों से भी वंचित हो जाते हैं जो हिन्दी समाचार और विचार उपभोक्ता को संबोधित करने वाला हिन्दी पत्रकार या बुद्धिजीवी ला सकता है या उससे ऐसी उम्मीद की जाती है. यह सिर्फ हिन्दी मीडिया का नहीं बल्कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों को समझने वाले दूसरे क्षेत्रों के लोग, अंग्रेज़ी मीडिया के उपभोक्ता का भी नुकसान है. अब ऐसे हिन्दी पट्टी के स्वरों की उपस्थिति यदा कदा चुनावी विश्लेषण तक ही नज़र आती है .

समाचार की दुनिया के निरंतर बदलते प्रवाह में यह महत्वपूर्ण है कि हिन्दी मीडिया उन विचारों और बौद्धिक प्रभावों को अपनी परिधि से ओझल न होने दे जो हमारे समय और विश्व को आकार दे रही है. ऐसा करने के लिए ये आवश्यक है कि वो दृष्टिकोण पर अपनी स्वायत्तता की दावेददारी फिर से करे और इसे अपने चिंतन में स्थापित करे. अगर इस सदी की शुरुआत में उसके ऐतिहासिक विस्तार के साथ ‘पुनर्सामंतीकरण’ जैसी कमजोरी आयी है तो इसके उपचार का रास्ता शायद बौद्धिक उपनिवेशवाद से मुक्ति में निहित हो सकती है.

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