बाम्बे ने हिन्दी फ़िल्म गीतों में अपनी असली छवि को खो दिया और हिन्दी सिनेमा ने भी मायानगरी की सीमाओं के सामने आत्मसमर्पण कर दिया.
“सच हमेशा नग्न होता है. लेकिन एक देश के नागरिक हमेशा इसे एक आवरण में देखने के आदी होते हैं. लोगों को अपने देश से उसी तरह से प्यार करने की अपेक्षा की जाती है जैसे कि वे अपनी मां से करते हैं.”
जीन पॉल सार्त्र ने फ्रांज़ फानन की किताब रेच्ड ऑफ द अर्थ की प्रस्तावना में लिखी हैं.
पिछले मार्च में मैं एक सप्ताह के लिए मुंबई में था. शायद यह मेरी सातवी मुंबई यात्रा थी. इसमें एक यात्रा वह भी थी जब जब मैं अपने शोध के लिए मुंबई गया और शायद सबसे ज्यादा समय तक मुंबई में उसी दौरान रहा. इस दौरान मैं उन तमाम रूढ़ियों और छवियों को देखने की कोशिश करता रहा जो इस शहर की पहचान से जोड़ दिए गए हैं. बाकी लोगों की तरह ही मैं भी लोकल ट्रेन में जगह बनाने के लिए धक्के खा रहा था.
मैंने हमेशा दिल्ली (जहां मैं एक दशक से ज्यादा वक्त से रह रहा हूं) और मुंबई (जहां मैंने काफी कम समय बिताया है) दोनों शहरों के बारे में पाया है कि ये ऐसे लोगों से बहुतायत में भरे हुए हैं जो बेहद आत्मकेंद्रित होते हैं. दोनों शहरों से मुझे कभी भी अपनेपन का एहसास नहीं हुआ. अपनी जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा इन दोनों शहरों में बिताने के बाद इनको लेकर मेरे मन में दो ही बातें आती हैं, पहला अकेलापन (भीड़ में रहते हुए भी अजनबी होने का एक एहसास, आप इसे एक मशीनी अस्तित्व भी कह सकते हैं) और जीने की दशाओं में भारी विडंबना. यही बात शायद पूरी दुनिया के शहरी इलाकों के बारे में कही जा सकती है.
जी हां, मैं मुंबई की अपनी पिछली यात्रा के बारे में बात कर रहा हूं, और इस बार मैं एक टैक्सी में था. मुंबई की सड़कों विडंबनाओं के दिखने की शुरुआत हो जाती है. ये तथ्य है कि मुंबई का हर तीसरा या हो सकता है दूसरा बाशिंदा झुग्गियों में रहता है, ये एक पुरानी कहानी है. मुंबई लोकल ट्रेन से हर रोज लोग कुचल कर मारे जाते हैं. यह सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाओं से बिल्कुल अलग है जहां शानदार एसयूवी चला करती हैं. इसके बावजूद यहां लाखों लोगों की रोजाना की कशमकश आपको विनम्र बनाती है, लेकिन विडम्बना खत्म नहीं होती. मेरे मन में सुकेतु मेहता की मुंबई पर लिखी गई किताब मैक्सिमम सिटी की कुछ लाइनें घूम गईं- “इस ग्रह पर बॉम्बे ही शहरी सभ्यता का भविष्य है. आगे भगवान ही मालिक है!”
टैक्सी में एफएम रेडियो पर बज रहे हिंदी फिल्मों के गीत ने मेरा ध्यान कहीं और केंद्रित कर दिया. क्या हिंदी फिल्मों के गाने जो आज भी देश की लोकप्रिय संस्कृति को दिखाते हैं, उस चिंता, उस अकेलेपन को समझ पा रहे हैं? और विडंबना ये कि ये वही शहर है जहां हिंदी फिल्म उद्योग मौजूद है. या फिर हिंदी फिल्मों के गाने आज भी उसी पुराने मिथक का गुणगान कर रहे हैं जो इसे सिटी ऑफ गोल्ड, सपनों का शहर या फिर एक ऐसा शहर जो सोता नहीं जैसी उपमाएं देता है?
हाल के दिनों में हिंदी फिल्मो की कहानियों और गीतों में बदलाव आया है. अब ये मुंबई की स्पिरिट पर केंद्रित हो गई है. शहर पर हुए सिलसिलेवार आतंकी हमलों के बाद यह बदलाव आया है. लेकिन इसमें सिर्फ कामकाजी वर्ग की आर्थिक असुरक्षा की नासमझी उजागर होती है, जिसकी वजह से हर कहीं इस शहर की एक मिथकीय ‘स्पिरिट’ वाली छवि बनी है. (उस गांव का किसान भी अगली सुबह हल उठाकर खेतों में निकल जाता है जहां एक दिन पहले जातिगत नरसंहार हुआ था)
इन सवालों के जवाब तलाशने से पहले मैंने उन गीतों का चयन किया जो हिंदी सिनेमा और बॉम्बे या फिर बम्बई के रिश्ते की बात करते हैं.
सन् 1950 में, दिलीप कुमार जो नेहरु के हिसाब से भारतीय जीवन के असली नायक थे लेकिन बॉम्बे से जुड़ी सबसे पहली संगीतमय उपस्थिति दर्ज कराई जॉनी वाकर ने अपनी फिल्म सीआईडी (1956) के जरिए. मोहम्मद रफी की आवाज़ में यह गाना आज की तारीख में साधारण लग सकता है. लेकिन यह गाना मंबई में गहराती जा रही वर्गीय खाई की सबसे लोकप्रिय अभिव्यक्ति है. जानी वॉकर मरीन ड्राइव की सड़कों और तांगे पर गुनगुनाते हुए दिखाई देते हैं जो आज के समय में काफी मजेदार लग सकता है.
ए दिल है मुश्किल, जीना यहां
ज़रा हट के, ज़रा बच के,
ये है बॉम्बे मेरी जान,
बेघर को, आवारा, यहां कहते हंस हंस,
खुद काटे, गले सबके, कहें इसको बिजनेस,
इक चीज़ के है, कई नाम यहां,
ज़रा हट के, ज़रा बच के
ये है बॉम्बे मेरी जान
लेकिन फिर सुबह होगी (1958) में महान गीतकार साहिर लुधियानवी ने बॉम्बे की विरोधाभास को गहराई से छुआ. इकबाल के मशहूर गीत सारे जहां से अच्छा की पैरोडी में तंज कसने वाला एक गीत लिखा. इस गीत को आवाज दी मुकेश ने और इसे राजकपूर पर फिल्माया गया, ये गीत आजादी के बाद की देशभक्ति और बॉम्बे पर कुछ इस तरह तंज कसता है-
चीन-ओ-अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा
रहने को घर नहीं, सारा जहां हमारा
खोली भी छिन गई है, बेंच भी छिन गया है
सड़को पे घूमता है, अब कारवां हमारा,
जितनी भी बिल्डिंगे थी ,
सेठो ने बांट ली है,
फुटपाथ बम्बई के हैं, अब आशियां हमारा,
सोने को हम कलंदर, आते हैं बोरी बन्दर
हर एक कुली यहां है राजदार हमारा
चीन-ओ-अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा
रहने को घर नहीं, सारा जहां हमारा,
मज़े की बात ये है कि इससे एक साल पहले साहिर ने एक और गीत लिखा जिसे गुरु दत्त पर फिल्माया गया था. उस गीत में वे बम्बई की जिस्मफ़रोशी के लिए बदनाम गलियों में घूमते दिखे. फिल्म थी प्यासा (1957), साहिर दोबारा अभिजात्य वर्ग की देशभक्ति पर व्यंग कसते है, यह अमर गीत है, और मार्मिक आवाज है, रफी साहब की:
ये कूचे, ये नीलाम घर दिलकशी के,
ये लूटते हुए कारवां जिन्दगी के,
कहां है, कहां है, मुहाफिज खुदी के,
जिन्हें नाज है हिन्द पर, वो कहां हैं,
कहां है, कहां है, कहां है!
वो उजाले के दरीचों में पायल की छन-छन,
थकी हारी साँसों में तबले की धनधन,
ये बे-रूह कमरों में खांसी की ठनठन,
जिन्हें नाज है …
जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ,
ये कूचे, ये गलियां, ये मंजर दिखाओ,
जिन्हें नाज है हिन्द पे, उनको लाओ,
जिन्हें नाज है हिन्द पर, वो कहां हैं,
कहां है, कहां है, कहां हैं,
1970 में, मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा ने दो यादगार गाने दिए जो मुंबई शहर के डरावने अकेलेपन को दिखाते हैं. गुलजार ने इस डरावनी तन्हाई को एक नौजवान के जरिए शब्द दिए जो जो बेमतलब के शहरी माहौल में खुद को तलाश रहा है. यह 1977 में आई पिल्म घरौंदा था. अमोल पालेकर इस गीत में आधी-अधूरी बनी इमारतों की खाक छानते नजर आते हैं, इसे आवाज दी थी भूपिंदर सिंह ने .
एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में,
आबोदाना ढूंढता है, आशियाना ढूंढता है,
दिन खाली खाली बर्तन है, रात है जैसे अंधा कुआं,
इन गहरी अंधेरी आंखों में, आंसू की जगह आता है धुआं,
जीने की वजह तो कोई नहीं, मरने का बहाना ढूंढता है,
इन उम्र से लम्बी सड़कों को, मंजिल पे पहुंचते देखा नहीं,
बस ढूंढती फिरती रहती है, हमने तो ठहरते देखा नहीं,
इस अजनबी शहर में, जाना पहचाना ढूंढता है,
आने वाले सालों में शहरयार ने इस शहर की बेचैनी और अकेलेपन को आवाज़ दी. इसमें दिमाग को झिंझोड़ने वाली कविता का एहसास था. गमन (1978) , फारूक शेख एक टैक्सी ड्राईवर के रूप में दिखे और टैक्सी अपने आप में अकेलेपन और बेचैनी का एक प्रतीक थी. इसे आवाज दी सुरेश वाडेकर ने:
सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यूं है,
इस शहर में हर शख्स, परेशान सा क्यों है .
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढें,
पत्थर की तरह बे-हिसो बेजान सा क्यों हैं .
तन्हाई की ये कौन सी मंजिल है रफीकों,
ता-हद-ए नजर एक बयांबान सा क्यों है,
सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यों है,
हिंदी फिल्में बॉम्बे की पृष्ठभूमि पर बनती आई हैं और आज भी बन रही हैं. कुछ लोग इस शहर की मानवीय आलोचना करते है, पर लोकप्रिय फिल्मी गीतों में बॉम्बे का एक ही रूप दिखाई देता है, इसकी तारीफ और रूमानियत. इसकी शुरुआती झलक फिल्म पत्थर के फूल (1991) के एक गाने में दिखी जहां सलमान खान रवीना टंडन से बम्बई की सड़कों पर, रोमांस करते दिखाई देते है. इस रूमानी गीत को अपनी आवाज़ के जादू से मधुर बनाया था एस पी बालासुब्रमण्य और लता मंगेशकर नें .
तुमसे जो देखते ही प्यार हुआ, जिन्दगी में पहली बार हुआ,
तुम इतने दिन थी कहां, मैं ढूंढता ही रहा,
कहां?
कभी लिंकिंग रोड, कभी वार्डन रोड, कभी कैडेल रोड, कभी पेडर रोड
कितने गली कूचे छानी मेरे दिल ने एक न मानी
कहां कहां पर तुझको ढूंढा तेरे लिए मैं हुई दीवानी
फिर भी न तेरा दीदार हुआ, यार मेरे ऐसा कई बार हुआ
अरे तुम इतने दिन थी कहां, मैं ढूंढता ही रहा
कहां टर्नर रोड कभी कार्टर रोड कभी चरनी रोड कभी आर्थर रोड
मीरा नायर की सलाम बॉम्बे (1988) और सुधीर मिश्रा की धारावी (1991) हिंदी सिनेमा जगत में मील का पत्थर है जिनसे मुबई के निचले तबके की जिंदगी में झांकने की कोशिश की. मणिरत्नम की तमिल से हिंदी में बनी फिल्म बॉम्बे (1995) सांप्रदायिक दंगों पर आधारित थी जो बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद पैदा हुए हालात पर थी. इसके 13 साल बाद निशिकांत कामत ने मुंबई मेरी जान (2008) बनाई जो 2006 के ट्रेन ब्लास्ट से जूझते शहर की कहानी है. पर इनमें से किसी में भी बॉम्बे से जुड़ा कोई अच्छा गाना नहीं है.
आज हिंदी फिल्मों से बॉम्बे के गीत गायब हो गए हैं, उनकी जगह ऊंचे दर्जे की पंसद वाली अपबीट धुनों ने ले ली है. अगर इस तरह के कुछ गाने हैं भी, तो उनको याद करने का कोई मतलब नहीं है. (जब आप मुंबई या बॉम्बे के बारे में सोचते हैं तो क्या आपके दिमाग में ऐसा कोई गाना आता है ?)
इसने निचले पायदान पर मौजूद लोगों को अपनी (अभिजात्य) धुन गुनगुनाने के लिए मजबूर कर दिया है. चिंता इस बात की है कि किसी को इसकी चिंता नहीं है.
लेखक से आप anand@newslaundry.com पर संपर्क कर सकते हैं.