नारेबाजी, ढोल-नगाड़े और जोशीले भाषण- जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष पद की बहस में जितना जोर भाषण पर था, उतना ही विचारधारा को बचाने पर. लेकिन इस सबके बीच छात्रों का सवाल साफ था- असल मुद्दों पर बात कब होगी?
2 नवंबर की रात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रसंघ चुनावों के लिए अध्यक्ष पद की बहस यानि प्रेसिंडेंशियल डिबेट हुई. मंच पर वैचारिक टकराव तो दिखा ही, साथ ही लद्दाख, गाजा, सूडान और जेल में बंद कार्यकर्ता सोनम वांगचुक के समर्थन में भी खूब नारे गूंजे.
मुख्य मुकाबला वामपंथी एकता (एसएफआई, एआईएसए, डीएसएफ) और आरएसएस समर्थित एबीवीपी के बीच देखने को मिल रहा है. मतदान 4 नवंबर को होगा और नतीजे 6 नवंबर को घोषित होंगे.
वाम समर्थक नारेबाजी में इतने मुखर थे कि एबीवीपी के उम्मीदवार विकास पटेल की आवाज तक बैठ गई. जवाब में एबीवीपी ने ढोल-झांझ बजाकर वाम उम्मीदवार अदिति मिश्रा के भाषण को दबाने की कोशिश की.
पटेल ने वामपंथी संगठनों पर "पाखंड" का आरोप लगाया और कहा कि उन्होंने यौन उत्पीड़न मामलों की जांच करने वाली जीएसकैश को हटाने का विरोध किया था लेकिन उसी के स्थान पर बनी इंटरनल कंप्लेंट्स कमेटी (आईसीसी) के चुनाव में हिस्सा लिया. दूसरी ओर वाम उम्मीदवारों ने एबीवीपी पर "कैंपस में हिंसा का माहौल बढ़ाने" का आरोप लगाया.
स्वतंत्र उम्मीदवारों में प्रोग्रेसिव स्टूडेंट्स एसोसिएशन (पीएसए) की विजयलक्ष्मी ने अपनी शायरी और तीखे सवालों से माहौल को अलग ही गर्मजोशी से भर दिया. उन्होंने एबीवीपी को “केंद्र सरकार का विस्तार” बताते हुए बीजेपी शासन की “दमनकारी नीतियों” पर हमला बोला.
भाषणों के बाद कई छात्रों ने इस बात पर निराशा जताई कि कैंपस राजनीति छात्रों की रोजमर्रा की परेशानियों से कितनी दूर चली गई है. अरबी विभाग के छात्र मिर्ज़ा शाकिर ने कहा, “यहां हर कोई भाषण देना सीख जाता है, लेकिन असली सवाल है कि ये चुनाव किन मुद्दों पर लड़े जा रहे हैं? इतनी ताकतवर छात्र राजनीति होने के बावजूद प्रशासन ने लाइब्रेरी में मेट्रो जैसे गेट लगा दिए, कोई रोक नहीं पाया. आज़ादी के नारे काफी नहीं, बदलाव लाना होगा.”
अंतरराष्ट्रीय अध्ययन विभाग के शोधार्थी सौरभ ने कहा, “देश को विश्वगुरु बनाने की बात होती है, लेकिन यहां हॉस्टल और वॉशरूम की हालत बद से बदतर होती जा रही है. हिंसा और यौन उत्पीड़न के मामले बढ़ रहे हैं क्योंकि भारत का धर्मनिरपेक्ष माहौल अब ‘हिंदुत्व राज्य’ में बदलता जा रहा है.”
छात्रों की नजर से देखों तो साफ है कि जेएनयू के छात्रसंघ चुनाव फिर एक बार विचारधाराओं की जंग बन गए हैं, जहां असली मुद्दे जैसे बुनियादी ढांचा, शिक्षा सुविधाएं और सुरक्षा अब भी नारों के शोर में कहीं दबे पड़े हैं.
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