इस सवाल का जवाब हमें महाराष्ट्र की शुगर पॉलिटिक्स की ओर ले जाता है, जहां गन्ने की सहकारी संस्थाओं ने शरद पवार जैसे नेताओं को ताकत दी और गडकरी ने भी विदर्भ में इसी रास्ते अपनी राजनीतिक पकड़ बनाई.
केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी सालों से कहते रहे कि उनका सपना किसानों कोअन्नदाता से ऊर्जादाता बनाने का है. लेकिन बीते कुछ महीनों में ये तस्वीर उलटती दिखी. सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक गलियारों तक वो समर्थकों और विरोधियों के निशाने पर हैं. तमाम तरह के आरोप उन पर लगे. चमकीले सपनों और ग्रीन फ्यूल के लक्ष्यों के बीच उठा आरोपों का ये काला धुंआ. इथेनॉल ब्लेडिंग के फैसले से निकला था.
लेकिन मामला सिर्फ नाराज़ जनता तक सीमित नहीं रहा. बीजेपी समर्थक अकाउंट्स और तथाकथित राइट-विंग ट्रोल आर्मी ने भी गडकरी पर निशाना साधा. आरोप लगा कि उनके बेटों की कंपनियों को इथेनॉल नीति का फायदा मिला. हालांकि, गडकरी ने इसे पेड कैंपेन कहकर खारिज किया, लेकिन सवाल बना रहा कि आखिर निशाना सिर्फ गडकरी पर ही क्यों?
इस सवाल का जवाब हमें महाराष्ट्र की शुगर पॉलिटिक्स की ओर ले जाता है, जहां गन्ने की सहकारी संस्थाओं ने शरद पवार जैसे नेताओं को ताकत दी और गडकरी ने भी विदर्भ में इसी रास्ते अपनी राजनीतिक पकड़ बनाई. लेकिन 2021 में जब अमित शाह ने सहकारिता मंत्रालय बनाया तो इसे गडकरी को कमजोर करने की चाल माना गया. यानी एक तरफ गडकरी के पीछे RSS का सपोर्ट, तो दूसरी तरफ मोदी-शाह की जोड़ी का दबाव. और यही खींचतान अब बीजेपी के भीतर उत्तराधिकार की राजनीति से भी जुड़ती नजर आती है. ऐसे में असली सवाल यही है कि क्या इथेनॉल नीति का गडकरी परिवार को फायदा हुआ है या यह सब बीजेपी और आरएसएस के भीतर की पावर स्ट्रगल का हिस्सा है?
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