वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की चिंता है कि लंबे समय तक इस शोधित पानी का इस्तेमाल करने से बुरे प्रभाव पड़ सकते हैं क्योंकि इसमें हानिकारक भारी धातुएं होती हैं और इसी पानी का इस्तेमाल भूजल को रीचार्ज करने में भी किया जाता है.
अगस्त के शुरुआती दिनों में कोलार भूरे और हरे रंग का दिख रहा था. जुलाई के महीने हुई अप्रत्याशित बारिश ने यहां के किसानों की उम्मीदें जगा दी थीं. कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु से 70 किलोमीटर पूर्व में बसे कोलार जिले को रेशम, दूध और सोने की धरती कहा जाता है. कोलार में ही विश्व प्रसिद्ध सोने की खदान– कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स या ‘केजीएफ’– है. यह जिला अपने उद्यमी किसानों और अपनी खेती की विभिन्नता की वजह से जाना जाता है. बेंगलुरु को मिलने वाली ताजी सब्जियां और दूध इसी कोलार के किसानों की देन है. यहां के लगभग हर घर के पास में एक बड़ा सा खेत और कुछ मवेशी होते हैं जो दूध देते हैं.
इसी साल संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष साबा कोरोसी तत्कालीन खनन सिचाईं सचिव मृत्युंजय स्वामी के साथ कोलार में सोमांबुदी अग्रहरा झील और उसके आसपास के अलौकिक खेतिहर जीवन का हाल देखने पहुंचे थे. बेंगलुरु से आने वाले दूषित पानी के सहारे बनी इस झील और आसपास का दृश्य देखकर कोरोसी ने कर्नाटक सरकार के इस अनोखे प्रोजेक्ट की तारीफ की कि उसने किस तरह से बेंगलुरु के दूषित पानी का इस्तेमाल करके कोलार के भूजल को रीचार्ज किया है.
यहां की स्थानीय निवासी चंद्रम्मा यह नहीं मानती हैं कि पड़ोसी शहर बेंगलुरु के गंदे पानी से भरी गई इस झील की अहमियत इतनी ज्यादा है कि यहां दुनिया के बड़े-बड़े नेता आ रहे हैं. वह सिर्फ इतना ही जानती हैं कि जबसे उनके घर के पीछे तक यह गंदा पानी आया है तब से उनके घर से निकलने वाली नाली की सफाई हर महीने करनी पड़ती है जबकि पहले इसकी सफाई साल भर में एक बार करनी पड़ती थी. कोलार के लोग इस पाने की लेकर इतने आशंकित हो चुके हैं कि यहां होने वाली हर नई समस्या के लिए इसी को दोषी माना जाता है. चंद्रम्मा के बेटे विनय अपने खेतों में लगी मलबेरी के पौधों से मुट्टी भर फल तोड़कर दिखाते हैं कि फसल में सुलिरोगा नाम का एक स्थानीय कीड़ा लग गया है जो कि पत्तियों और कोपलों को सुखा देता है. झील की ओर इशारा करते हुए वह कहते हैं, ‘पहले हमारे यहां यह समस्या नहीं थी. इस पानी की वजह से यह दिक्कत आ रही है.’
पानी के संकट से जूझने वाले इस इलाके की बाकी झीलों की तरह सोमांबुदी भी कई सालों तक सूखी रहा करती थी जब तक कि कर्नाटक सरकार ने कोलार जिले की 134 झीलों के नेटवर्क को बेंगलुरु के 440 एमएलडी सेकेंडरी शोधित पानी से भरने की योजना को अंजाम नहीं दिया. जब तक कि इस कोरमंगल-चल्लघट्टा वैली प्रोजेक्ट या केसी वैली प्रोजेक्ट को लागू नहीं किया गया था, तब तक बेंगलुरु का यह दूषित पानी दक्षिण पिनाकिनी और साउथ पेन्नार नदियों के जरिए तमिलनाडु में बह जाता था जिससे इस पड़ोसी राज्य को कई तरह की समस्याएं भी होती थीं. इसी समस्या के उपाय के रूप में कर्नाटका ने अपने दूषित पानी को अपनी ही सूखी जमीनों में भेजने का फैसला लिया और साल 2018 में केसी वैली प्रोजेक्ट बनाया गया. बता दें कि बेंगलुरु में केसी वैली समेत तीन घाटियां– वृषभावती वैली और हेब्बाल-नागवारा या एचएन वैली– हैं.
इस योजना को लागू किए जाने के कुछ ही सालों में इसे काफी सफल बताया जाने लगा है जबकि इस दावे के समर्थन में अभी पुख्ता आंकड़े भी मौजूद नहीं हैं. अब इसी की तर्ज पर साल 2020 में एक और प्रोजेक्ट शुरू किया गया है जो 210 एमएलडी शोधित जल को हेब्बाल-नागवारा वैली से पड़ोस के चिकबल्लापुर ले जाता है. ऐसा ही एक और प्रोजेक्ट वृषभावती लिफ्ट इरिगेशन प्रोजेक्ट शुरू करने का ऐलान किया गया है, जो बेंगलुरु ग्रामीण, बेंगलुरु शहरी और तुमकुरु जिलों से 243 MLD शोधित पानी को लिफ्ट करेगा.
कोलार की जल समस्याओं को बेहतर ढंग से समझने की जरूरत
कोलार जिले की पानी की समस्या दशकों पुरानी है. इस जिले में कोई भी नदी नहीं बहती है और जो बहती भी हैं वे जिले से बहुत दूर हैं. ऐसे में पुराने साम्राज्यों ने कई बड़ी झीलें और अन्य जलाशय बनवाए थे. साल 2007 में कोलार जिले का विभाजन करके चिकबल्लापुर जिला बनाए जाने से पहले तक इस जिले में लगभग 3,000 झीलें (केंद्रीय भूजल बोर्ड 2009) थीं जो कि राज्य में किसी भी जिले में सबसे ज्यादा थीं.
इन झीलों को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि ऊपरी स्तर से बहने वाला पानी धीरे-धीरे इन झीलों में इकट्ठा हो जाता है और घरेलू इस्तेमाल, जानवरों और खेती के साथ-साथ भूजल को रीचार्ज करने जैसे तमाम कामों में इस्तेमाल किया जाता है.
साल 2020 की एक स्टडी के मुताबिक, साल 1972 और 2011 के बीच खेती के पैटर्न में बदलाव आया. पहले घास के मैदानों और बारिश के पानी से होने वाली खेती की जगह पर यूकेलिप्टस लगा दिए गए, सिंचाई पर आधारित खेती होने लगी. इसका नतीजा यह हुआ कि इन झीलों की क्षमता कम पड़ने लगी. लैंड यूज में आए इस बदलाव के चलते धरातल पर बहने वाले पानी और भूजल रीचार्ज में 30 प्रतिशत तक की गिरावट आई और 1972 से 2011 के बीच इस जिले में सिंचाई की मांग 57 मिमी से बढ़कर 140 मिमी तक पहुंच गई. पानी की खोज में बनाए जाने वाले गहरे बोरवेल कोलार में बहुतायत में तैयार हो गए. इसी स्टडी में बताया गया है कि इसी समय के दौरान बोरवेल का जमकर इस्तेमाल किए जाने की वजह से भूजल दोहन 145 प्रतिशत तक बढ़ गया.
ऐतिहासिक रूप से देखें तो पहले के समय में सिंचाई वाले क्षेत्र झील के आसपास हुआ करते थे लेकिन सदी के आखिरी वक्त में किसी भी झील के पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए नहीं किया जा रहा था. साल 2009 के एक अनुमान के मुताबिक, अविभाजित कोलार में 90 हजार बोरवेल की मदद से 3,604 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल की सिंचाई हो रही थी.
आधुनिकता वह काम करने में असफल रही जो पुरानी सोच करने में सक्षम थी- वो यह कि खेती को सतत बनाए रखा जा सके। बदलती जलवायु और अनियमित बारिश के साथ-साथ सूखे के हालात ने कोलार की पानी की समस्याओं को और बढ़ा दिया और यहां पानी निकालने के लिए 500 एमजीबीएल (जमीन की सतह से गहराई मीटर में) तक गहरे बोरवेल बनाए जाने लगे.
इस बढ़ती समस्या को हल करने के लिए कर्नाटका सरकार ने साल 2014 में येत्तिनहोले इंटीग्रेटेड ड्रिंकिंग वाटर प्रोजेक्ट पास किया जिसमें पश्चिम में बहने वाली धाराओं से 24.01 टीएमसी पानी लिफ्ट करके पानी के संकट से जूझ रहे कोलार और चिकबल्लापुर में ले जाया जाना था. 300 किलोमीटर दूर इतना पानी ले जाने के लिए इस प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत 12,912.36 करोड़ रुपये रखी गई थी. इधर यह प्रोजेक्ट पर्यावरणीय समस्याओं में फंसा ही था कि पर्यावरण की दृष्टि से एक खराब प्रोजेक्ट केसी वैली प्रोजेक्ट को लॉन्च कर दिया गया. यह प्रोजेक्ट बेंगलुरु वाटर सप्लाई और सीवेज बोर्ड और माइनर इरीगेशन डिपार्टमेंट के संयुक्त तत्वावधान में शुरू किया गया था.
क्या पर्यावरण की दृष्टि से एक आपदा है केसी वैली प्रोजेक्ट?
मोंगाबे-इंडिया ने केसी वैली और एचएन वैली प्रोजेक्ट की आठ झीलों का दौरा किया. इसमें से तीन झीलें चिकबल्लापुर में हैं और पांच झीलें कोलार में हैं. हमने देखा कि इन आठ झीलों का ज्यादातर हिस्सा जलकुंभियों से ढका हुआ है, जो कि इस दुनिया की 10 सबसे आक्रामक प्रजातियों में शुमार है. कर्नाटका की नदियों का अध्ययन और डेटा इकट्टा करने वाले थिंक टैंक ‘पानी’ के साथ काम करने वाली निर्मला गौड़ा का कहना है कि यह स्पष्ट रूप यूट्रोफिकेशन का संकेत है. बता दें कि यूट्रोफिकेशन वह प्रक्रिया है जिसमें कोई जलाशय समय के साथ पोषक तत्वों और मिनरल्स से भरपूर हो जाता है. खास तौर पर इसमें नाइट्रोजन और फॉस्फोरस की अधिकता हो जाती है और इससे जलाशय में मौजूद पानी का जहरीलापन बढ़ता जाता है और पानी की जैव विविधता घटती जाती है.
वैज्ञानिक चेतावनी देते हैं कि ये पोषक तत्व पौधों के लिए और खेती के लिए अच्छे हैं लेकिन नाइट्रोजन का ऑक्सीकरण होने की वजह नाइट्रेट पैदा होती है जो कि इंसानों के लिए नुकसानदायक है. इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस (आईआईसएस), बेंगलुरु के एनर्जी एंड वेटलैंड्स रिसर्च ग्रुप के संयोजक और वैज्ञानिक टी वी रामचंद्र कहते हैं, “जब आप भारी मात्रा में पोषक तत्वों को झील में जाने देते हैं तो भूजल रीचार्ज होता है. जैसे-जैसे यह पानी जमीन में जाता है, नाइट्रोजन का ऑक्सीकरण हो जाता है और नाइट्रेट बनती है जो कि कार्सिनोजेनिक होती है और कैंसर के साथ-साथ किडनी फेल होने जैसी बीमारियों को दावत देती है.”
रामचंद्र और उनकी टीम ने बेंगलुरु के दूषित पानी से भरी गई वर्तुर झील पर की गई एक स्टडी में बताया है कि इसके आसपास उगाई गई सब्जियों में भारी धातुओं के सबूत मिले हैं क्योंकि जमीन का पानी प्रदूषित हो चुका है. निर्मला गौड़ा कहती हैं, “उम्मीद की जाती है कि बीडब्ल्यूएसएसबी की सीवेज लाइन में सिर्फ घरों से निकलने वाला दूषित पानी जाएगा लेकिन इसमें फैक्ट्रियों से निकलने वाला पानी भी जा रहा है. रिपोर्ट के मुताबिक, बेंगुलुरु से इन्हीं सीवेज लाइनों में फैक्ट्रियों का जहरीला प्रदूषित पानी अवैध रूप से छोड़ा जा रहा है.”
केसी वैली प्रोजेक्ट के प्रखर आलोचक रामचंद्र कहते हैं कि साल 2015 में संबंधित विभाग ने जब इस योजना के बारे में उनसे संपर्क किया था तो उन्होंने सरकार को स्पष्ट निर्देश दिए थे. वह कहते हैं, “जक्कुर झील रिजुवेनेशन के अपने अनुभव के आधार पर मैंने सुझाव दिया था कि झील के साथ-साथ जलाशयों और शैवाल वाले तालाबों को भी विकसित किया जाए ताकि कम खर्च में ही सेकेंडरी शोधित गंदे पानी को तीसरी बार साफ किया जा सके. हालांकि, संस्थाओं ने इस सुझाव को नजरअंदाज किया और झीलों में सीधे सेंकेंडरी शोधित पानी को ही छोड़ना शुरू कर दिया.”
आईआईसएस के सेंटर फॉर सस्टेनेबल टेक्नोलॉजीस का दावा है कि वह समय-समय पर इसके पानी की गुणवत्ता की जांच करता रहता है. इस संस्थान का कहना है कि बेंगलुरु से छोड़े जाने वाला पानी मानकों पर पूरी तरह से खरा उतरता है लेकिन झील से कुछ स्थानीय सीवेज लाइन भी जुड़ी हैं जो झील में इन तत्वों को ले आती हैं. असिस्टेंट प्रोफेसर लक्ष्मीनारायण राव कहते हैं, “झील के आसपास होने वाली कुछ इंसानी गतिविधियों जैसे लोगों के नहाने और कपड़े धोने की वजह से पानी दूषित होता है. हम इन समस्याओं को खत्म करने के लिए काम कर रहे हैं.”
शोधित पानी की गुणवत्ता का डेटा बताता है ठीक से काम नहीं कर रहे एसटीपी
बेंगलुरु के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स (एसटीपी) में पहुंचने वाला गंदा पानी बमुश्किल ही शोधन के दो चरणों से होकर गुजरता है. पहले चरण में घुले हुए ठोस पदार्थों को प्रारंभिक सफाई में निकाला जाता है. दूसरे चरण में ऐरोबिक माइक्रोब्स का इस्तेमाल करके घुले हुए ऐरोबिक कणों को निकाला जाता है. इससे, गंदे पानी में मौजूद बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) और सस्पेंडेड सॉलिड (एसएस) का 90 प्रतिशत हिस्सा पानी से निकल जाता है. हालांकि, दूसरे चरण की सफाई में भारी धातुएं पानी से नहीं निकलती हैं जो कि फैक्ट्रियों से निकलकर पानी में मिल जाती हैं.
लक्ष्मीनारायण राव ने बताया कि इस प्रोजेक्ट में सॉइल एक्वीफर ट्रीटमेंट (एसएटी) सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है जो कि पानी की गुणवत्ता को जमीन के अंदर बढ़ाता है. वह आगे कहते हैं, “शहर से निकलने वाला शोधित पानी पहले से ही काफी अच्छी गुणवत्ता का है और यह राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के मानकों को पूरा करता है. इसके बाद भी इसे रेनवाटर रनऑफ और एसएटी सिस्टम के जरिए साफ किया जाता है.”
लक्ष्मीनारायण राव और उनकी टीम की साल 2023 में आई एक रिपोर्ट कहती है कि हर दिन निकलने वाले भूजल के रीचार्ज में सुधार लाने के साथ-साथ यह प्रोजेक्ट जमीन में ढेर सारा पानी जाने की वजह से भूजल का स्तर बढ़ाने में भी कामयाब रहा है. रिपोर्ट यह भी कहती है कि इस क्षेत्र में भूजल की उपलब्धता के चलते सिंचाई, दूध और मछली के उत्पादन में भी काफी सुधार हुआ है. राव यह स्वीकार करते हैं कि साल 2020 से 2022 के बीच इस क्षेत्र में उम्मीद से काफी ज्यादा बारिश भी हुई है जिससे भूजल के स्तर में सुधार हुआ है लेकिन वह यह भी कहते हैं कि बारिश न होने की स्थिति में भी पानी की गुणवत्ता एसएटी सिस्टम की वजह से खराब नहीं हो सकती है.
एसएटी सिस्टम का इस्तेमाल भूजल शोधन के लिए व्यापक तौर पर होता है लेकिन इसकी परफॉर्मेंस स्थानीय भूजलीय परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं और इसकी कुछ सीमाएं भी हैं जैसे कि यह कार्बनिक सूक्ष्म प्रदूषकों को साफ नहीं कर पाता है. स्टडी के मुताबिक, इस सिस्टम से होने वाले नुकसान से बचने के लिए नियमित तौर पर इसकी मॉनिटरिंग करने की जरूरत है. पर्याप्त डेटा मौजूद न होने पर, यह पूरी तरह से नहीं कहा जा सकता है कि प्रोजेक्ट को लागू करने से इस क्षेत्र की भूजलीय परिस्थितियों का अध्ययन किया जा सकता है या नहीं और यह सिस्टम सही से काम कर रहा है यह जांचने के लिए नियमित मॉनिटरिंग की जा रही है या नहीं.
केसी वैली प्रोजेक्ट को पानी की सप्लाई करने वाले सभी पांच एसटीपी का संचालन बेंगलुरु वाटर सप्लाई एंड सीवेज बोर्ड (बीडब्ल्यूएसएसबी) की ओर से किया जाता है. बीडब्ल्यूएसएसबी ने साल 2020 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के निर्देशों के मुताबिक, पानी की गुणवत्ता की रियल टाइम मॉनिटरिंग का इंतजाम किया है. ‘पानी’ ने इसके जनवरी से जुलाई 2023 तक यानी सात महीने के हर महीने के डेटा का विश्लेषण किया है. इस डेटा में गंदे पानी की गुणवत्ता मापने वाले दो अहम पैरामीटर बीओडी और सीओडी की जांच की गई. पानी संस्था ने पाया कि पांच में पहले दो एसटीपी केसी वैली-218 और केसी वैली-30 ने कोई डाटा ही इकट्ठा नहीं किया. बाकी के दो एसटीपी कादुबीसनहल्ली-50 और बेलंदुर अम्मानी झील-90 एसटीपी ने क्रमश: 41 प्रतिशत और 21 प्रतिशत डाटा ही इकट्ठा किया. वेबसाइट बताती है कि ऑनलाइन डाटा में भी यह साफ है कि कई मौकों पर बीओडी और सीओडी की मात्रा तय सीमा से ज्यादा थी जो यह दर्शाती है कि कहीं कोई गड़बड़ी है या फिर एसटीपी तय मानकों के हिसाब से काम नहीं कर रहे हैं, या फिर ये दोनों ही समस्याएं हैं.
गंदे पानी से खुश नहीं हैं लोग, खेती पर भी पड़ रहा है असर
लगभग 4 लाख से ज्यादा की जनसंख्या वाले कोलार में ज्यादातर लोग खेती से जुड़े काम ही करते हैं. कोलार के किसान अपनी पारंपरिक समझ के आधार पर यह बताते हैं कि उनके वाटर फिल्टर्स से रंगहीन पानी आना, बारिश न होने पर झील के पानी की अजीब गंध, बार-बार होने वाली मछलियों की मौत की खबरें और कम होता फसलों का उत्पादन यह दर्शाता है कि उन्हें जो पानी जबरदस्ती दिया जा रहा है कि वह अच्छा नहीं है.
केसी वैली प्रोजेक्ट के बारे में लंबे समय तक अध्ययन नहीं किया गया है कि पर्यावरण या सेहत पर क्या और कितना असर हो सकता है. दिल्ली में रहने वाली पर्यावरण मामलों के वकील रित्विक दत्ता लगभग एक साल पहले कोलार आए थे. उनका कहना है कि वैसे तो पानी भेजना पर्यावरणीय रूप से काफी सरल प्रक्रिया मानी जाती है लेकिन इन्वायरनमेंट इंपैक्ट असेसमेंट नोटिफिकेशन में इसका कहीं कोई जिक्र नहीं है. हालांकि, बायोलॉजिकल डायवर्सिटी एक्ट 2002 के मुताबिक, जैव विविधता पर इसके असर का आकलन करवाया जाना जरूरी है जो कि नहीं करवाया गया है. वह कहते हैं, “ये ऐसे जलाशय हैं जिन्हें गंदे पानी से रीचार्ज किया जा रहा है. हो सकता है कि इससे भूजल प्रदूषित हो जाए जिसे कि दोबारा ठीक नहीं किया जा सकता है. सरकार की ओर से इस प्रोजेक्ट को लागू करने से पहले कम से कम तीन से चार साल तक इसके संभावित खतरों और भूजल के प्रदूषण के बारे में अध्ययन किया जाना चाहिए था. ऐसी कोई स्टडी नहीं की गई है जो इस बात को खारिज कर दे कि इससे भूजल प्रदूषित नहीं होगा.”
साल 2020 में जब कर्नाटक हाईकोर्ट ने इसी को लेकर संबंधित विभागों से सवाल पूछे कि उन्होंने पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का अध्ययन क्यों नहीं किया तो एक समीक्षा समिति का गठन कर दिया गया जो कि इस प्रोजेक्ट के पर्यावरणीय प्रभावों की जांच करेगी. कमेटी ने इस प्रोजेक्ट को क्लीन चिट दे दी. चिकबल्लापुर के स्थानीय निवासी आंजनेय रेड्डी इस प्रोजेक्ट की शुरुआत से ही इसके खिलाफ हैं और वह याचिकाकर्ता भी हैं. उन्होंने इस समिति के नतीजों को चुनौती दी है और इसके खिलाफ अदालत में याचिका दायर करके आरोप लगाए कि समिति के कुछ सदस्यों ने पक्षपात किया है. आंजनेय रेड्डी किसानों के एक संगठन शाश्वत नीरावारी होरता समिति के मुखिया भी हैं. इस संगठन की चिंता है कि इस प्रोजेक्ट से लंबे समय में पर्यावरण और सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है.
मौसमी बन कर रह गयी हैं झीलें
भारत में औद्योगिक और कृषि क्षेत्र में पानी को रीसाइकल करना और उसका फिर से इस्तेमाल करना काफी आम बात है. बेंगलुरु से निकलने वाला शोधित गंदा पानी दशकों से झीलों को भर रहा है. चेन्नई और हैदराबाद जैसे शहरों ने भी शोधित पानी से जुड़े कुछ प्रोजेक्ट शुरू किए हैं. हालांकि, रेड्डी यहां तर्क देते हैं कि सेंकेंडरी शोधित गंदे पानी का इस्तेमाल भूजल रीचार्ज के लिए करना, खेती वाली जमीन पर इसका इस्तेमाल करना और संस्थागत समर्थन के जरिए पीने के पानी के स्रोतों तक इसे ले जाना पहले कहीं और नहीं किया गया है. वह कहते हैं, “हमारे शहरों में गरीब से गरीब लोग भी साबुन, केमकिल और डिटर्जेंट पाउडर आदि चीजों का इस्तेमाल साफ-सफाई के लिए करते हैं और यही केमिकल दूषित पानी में मिला होता है. इंसान के मल और मूत्र के जरिए इस पानी में दवाओं के तत्व भी मिले होते हैं. हमें पीने के लिए नदियों का साफ पानी दीजिए या फिर कम से कम ऐसा पानी दीजिए जिसकी गुणवत्ता बारिश के पानी जैसी हो.”
इस प्रोजेक्ट के बारे में होने वाली चर्चाओं में जिस बात को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है वह है झीलों का ठहराव. इसकी वजह है झीलों में पानी की लगातार सप्लाई. प्राकृतिक झीलों में पानी की सप्लाई मौसम के मुताबिक होती है और सूखे समय में झीलों की सफाई और डीसिल्टिंग का समय मिल जाता है. कोलार जिला परिषद की सीईओ पद्मा बसावनथप्पा चिंता जताते हुए कहती हैं कि डीसिल्टिंग के प्रावधानों की कमी है जिसके चलते इन झीलों में पानी साल भर रुका रहता है. राव कहते हैं कि एसएटी सिस्टम में छुट्टी के मौसम भी होते हैं जिनमें झीलों को बारी-बारी से सुखाकर साफ किया जाता है लेकिन यहां पर बीते कुछ सालों में असमय हुई बारिश की वजह से ऐसा संभव नहीं हो पाया है. उनका कहना है कि यह भी जल्द ही किया जाएगा.
प्रदूषण कैसे पीछे छूटेगा?
सरकार का कहना है कि दूषित जल का इस्तेमाल सिर्फ भूजल को रीचार्ज करने में होता है लेकिन जमीनी सच्चाई इससे काफी अलग है. ज्यादातर झीलों के पास बड़े-बड़े बोर्ड लगाए गए हैं जिन पर लिखा गया है कि झील का पानी सिर्फ रीचार्ज के लिए है. इसका इस्तेमाल सीधे खेती के लिए, पीने के लिए या हाथ धोने के लिए नहीं किया जा सकता है. हालांकि, झील की सतह के पास कई बोरवेल देखे जा सकते हैं जो शंका की पर्याप्त वजह देते हैं कि इन बोरवेल का पानी प्रदूषित हो सकता है.
कोलार जिल के उड्डप्पनहल्ली गांव में हम किसान हर्षा और बालू से मिले. बालू इस गांव के जल प्रबंधक (पारंपरिक रूप से इन्हें नीरुगंटी कहा जाता है) हैं. बालू ने हमें बताया कि झील के पास बने बोरवेल में झील का पानी आता है. हर्षा आरोप लगाते हैं कि बोरवेल से लगातार होने वाली सिंचाई की वजह से फसलों की गुणवत्ता खराब होती जा रही है. हर्षा के मुताबिक, एक मछुआरे को यहां मछली पकड़ने और बेचने का ठेका मिला था लेकिन मछलियों की खराब गुणवत्ता के कारण उसने इसे बीच में ही छोड़ दिया. हर्षा कहते हैं कि पहले मछलियां काटने पर सफेद और गुलाबी होती थीं लेकिन अब वे काली होती हैं, हम इन मछलियों को अब और नहीं खा सकते. वहीं, झील के पास रहने वाली 17 साल की कॉमर्स स्टूडेंट हेमलता कहती हैं कि फिल्टर का इस्तेमाल करने के बावजूद पीने के पानी से बदबू आती है.
रायचुर की येलम्मा चिकबल्लापुर में कंडावरा झील के पास एक पार्क में दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करती हैं. वह न तो बोरवेल का पानी पीती हैं और नही झील की मछली खरीदती है. दोनों ही जिलों में कई सारे वाटर एटीएम लगाए हैं जिनमें से 5 रुपये प्रति 20 लीटर की दर से आरओ का पानी मिलता है. इस इलाके के भूजल में फ्लोराइड और यूरेनियम पाए जाने का इतिहास रहा है इसीलिए ये वाटर एटीएम लगाए गए थे ताकि गांव के लोगों को साफ पानी मिल सके. दिहाड़ी में 450 रुपये कमाने वाली येल्लम्मा के लिए खरीदकर पानी पीना हमेशा के लिए संभव नहीं है.
दत्ता कहते हैं कि इस प्रोजेक्ट का कॉन्सेप्ट तैयार करने वाले और इसे लागू करने वाले लोगों में से ज्यादातर लोग उस सिंड्रोम से पीड़ित हैं जो कहते हैं कि मेरा कुछ नहीं जाता. शहर के गंदे पानी को ग्रामीण इलाको में भेजकर भूजल को रीचार्ज करना नैतिक और वास्तविक दोनों तरह से गलत है. वह कहते हैं, “अगर इस पानी की सप्लाई ग्रामीण इलाकों में होनी थी तो तीसरी बार पानी के शोधन को लेकर कोई समझौता नहीं होना चाहिए था. तीसरी बार शोधन के साथ-साथ लंबे समय तक इसके अध्ययन की बात को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए था.” पानी संस्था के गौड़ा को डर है कि भारत के शानदार और सफल प्रोजेक्ट के तौर पर पेश किए जाने वाला केसी वैली प्रोजेक्ट असल में सूखे कोलार को एक प्रदूषित क्षेत्र में बदल देगा.
साभार- MONGABAY हिंदी