2002 में नरोदा पाटिया में हुए नरसंहार के दोषी मनोज कुकरानी अभी जमानत पर बाहर हैं.
नरोदा पाटिया चौराहे पर 28 फरवरी 2002 की सुबह भीड़ इकठ्ठा हुई और आस पास में रहने वाले मुस्लिमों पर टूट पड़ी थी. उसके बाद अगले दो-तीन दिनों तो जो कुछ हुआ वो भयावह था. बेकाबू भीड़ ने 97 लोगों की हत्या कर दी थी. मृतकों में बुजुर्ग, महिलाएं, बच्चे और अजन्मे बच्चे तक शामिल थे.
इस घटना के गवाह अब्दुल माजिद के परिवार के आठ लोगों की हत्या कर दी गई थी. वे डबडबाई आंखों से कहते हैं, ‘‘मेरे सामने मेरी बेटी का चार लोगों ने रेप किया था. मेरी पत्नी और बेटे समेत आठ लोगों को मार दिया गया.”
वे अपना सर दिखाते हुए कहते हैं, “मेरी दाढ़ी काटने आये तो मैं झुक गया और तलवार मेरे सर पर लगी.”
अब्दुल माजिद की बगल में बैठे बाबू भाई कहते हैं, ‘‘मेरे विकलांग भाई तक को नहीं छोड़ा. वह घर के बाहर बैठा था. माता-पिता ने वहां से चलने के लिए बोला तो उसने कहा मैं तो विकलांग हूं, मुझे क्या करेंगे. उसे पेट्रोल डालकर जला दिया. तब वो सिर्फ 15 साल का था."
यहां के लोग अपने असहनीय दुख को भूलकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे, तभी भाजपा ने इस नरसंहार के एक दोषी मनोज कुकरानी की 30 वर्षीय बेटी पायल कुकरानी को नरोदा पाटिया विधानसभा से टिकट देकर इनके गम को ताजा कर दिया.
‘टिकट तो मनोज भाई साहब को ही मिला है’
लंबे समय से नरोदा पाटिया में भाजपा जीत रही है. 2017 के विधानसभा में यहां से भाजपा के वानी बलराम खुबचंदो विधायक बने थे. इस बार उनका टिकट काटकर पायल को दिया गया है. रूस से डॉक्टरी की पढ़ाई कर लौटी पायल हार्दिक पटेल के बाद सबसे काम उम्र की उम्मीदवार हैं. भले ही टिकट इन्हें मिला लेकिन स्थानीय लोगों की माने तो टिकट ‘मनोज भाई’ को ही मिला है.
नवदीप सोसायटी में मनोज कुकरानी के घर के बाहर हमारी मुलाकात 64 वर्षीय चंद्र भाई से हुई. वे कहते हैं, ‘‘लड़ पायल रही है लेकिन टिकट मनोज भाई को ही मिला है. कानूनी प्रक्रिया के कारण वो चुनाव नहीं लड़ सकते हैं. उनकी पत्नी रेशमा बहन यहां की कॉर्पोरेटर हैं. इसलिए बेटी को टिकट दिया गया है.’’
बातों-बातों में चंद्र कहते हैं, ‘‘हम लोग तो बाबरी मस्जिद गिराने वालों में से एक थे.’’
तभी उनके पास बैठे एक शख्स उन्हें चुप रहने को कहते हैं. फोन बंद है यह देखकर वे कहते हैं, ‘‘मैं तहलका के स्टिंग में फंसते-फंसते रह गया.’’ इसके बाद दोनों बात करना बंद कर देते हैं.
पायल बातचीत में राजनीतिक रूप से तैयार नजर नहीं आती हैं. उनके पिता के अतीत को लेकर सवालों का जवाब क्या देना है, दिल्ली से आये टीवी मीडिया के एक पत्रकार उन्हें बताते हैं. पत्रकार अपने इंटरव्यू से पहले पायल को समझाते हैं कि सवाल आपके पिता के अतीत से भले पूछा जाए पर आप अपने डॉक्टरी या दूसरे विकास के कामों के बारे में जवाब देना.
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए पायल टीवी पत्रकार के सुझाव को ही फॉलो करती हैं, लेकिन सवाल दोहराने पर वे कहती हैं, ‘‘यह 20 साल पुरानी बात है. उस समय से अब तक देश कहां से कहां पहुंच गया है.’’
जो 2002 दंगे के पीड़ित हैं. क्या आप उनसे वोट मानेंगी? इस सवाल पर पायल कहती हैं, ‘‘सब लोग हमारे परिवार ही हैं.’’
नरोदा पाटिया नसंहार की स्पेशल इंवेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) कोर्ट ने साल 2012 में अन्य लोगों के साथ मनोज कुकरानी को दोषी करार दिया था. कुकरानी को आजीवन करवास की सजा सुनाई गई थी. इसके तुरंत बाद वे हाईकोर्ट चले गए. जहां उनकी अपील पेंडिग थी. इसी आधार पर साल 2015 तक उन्हें थोड़े-थोड़े समय के लिए जमानत मिलती रही. 2015 में हेल्थ ग्राउंड पर उन्हें गुजरात हाईकोर्ट से दो महीने के लिए जमानत मिली. उसके बाद 2016 में हेल्थ ग्राउंड पर ही कुकरानी को नियमित जमानत मिल गई.
2018 में हाईकोर्ट ने नरोदा पाटिया मामले में अपना फैसला सुनाया था. इस बार घटना के समय यहां की विधायक रही माया कोडरानी को कोर्ट से जमानत मिल गई. वहीं बाबू बजरंगी और कुकरानी समेत 14 लोगों की सजा को बरकार रखा गया. इसके बाद कुकरानी सुप्रीम कोर्ट चले गए. वहां उनका मामला पेंडिग है. और वे जमानत पर बाहर हैं.
कुकरानी अपनी बेटी के चुनाव प्रचार में बेहद सक्रिय भूमिका निभाते नजर आ रहे हैं. रविवार दोपहर पायल के साथ प्रचार कर कुकरानी घर साथ ही लौटे थे. पायल और उनकी मां जब मीडिया को इंटरव्यू दे रहे थे तब वे उन्हें समझा रहे थे कि उन्हें क्या बोलना है और क्या नहीं.
कुकरानी से न्यूज़लॉन्ड्री ने बात की. वे अपनी बेटी की जीत को लेकर सुनिश्चित हैं. वे कहते हैं, ‘‘मुझे तो फंसाया गया था. घटना 2002 में हुई थी और मेरा नाम 2008 में एसआईटी से डलवाया गया. करीब छह साल बाद. मैं दंगे में शामिल भी नहीं था. मैं व्यापारी हूं और एपीएमसी मंडी में मेरी एक दुकान है. मेरा नाम तो खोटा (बेवजह) डाला गया था. तब मेरा मकान पाटिया में था. उधर पास में ही घटना हुई थी तो मेरा नाम भी जोड़ दिया गया. दंगे से मेरा कोई लेना देना नहीं था.’’
दंगे को लेकर और अधिक बात करने से कुकरानी मना कर देते हैं.
नरोदा पाटिया विधानसभा का वोट समीकरण
कुकरानी अपनी बेटी की जीत को लेकर आश्वस्त हैं. इसके पीछे इस विधानसभा का जातीय समीकरण है. यहां सबसे ज़्यादा वोट सिंधी समुदाय और प्रवासी लोगों का है. कुकरानी खुद सिंधी हैं. इनका परिवार 1947 में पाकिस्तान से यहां आया था. यहां ज्यादातर सिंधी समुदाय के लोग विभाजन के समय पाकिस्तान से आये हैं.
वे हमें बताते हैं, ‘‘नरोदा पाटिया में 90 हज़ार के करीब सिंधी वोटर हैं. पटेल समुदाय के 20 हज़ार, खाड़ी समुदाय के 15 हजार वहीं मुस्लिम वोटर 700 के करीब हैं. बाकी 75 हजार करीब प्रवासी वोटर हैं.’’
यहां ज़्यादातर प्रवासी वोटर बिहार, यूपी, मध्य प्रदेश और राजस्थान के रहने वाले हैं. कांग्रेस ने गठबंधन के तहत एनसीपी को गुजरात में तीन सीटें दी हैं. जिसमें से एक नरोदा भी है. गठबंधन के तहत नरोदा से नुकूल तोमर चुनाव लड़ रहे हैं. जो मूलतः मध्य प्रदेश के रहने वाले हैं.
आम आदमी पार्टी ने ओमप्रकाश तिवारी को उम्मीदवार बनाया है. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के रहने वाले तिवारी 2017 में कांग्रेस से विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं. तिवारी को तब करीब 40 हज़ार वोट मिले थे और वो भाजपा के वानी बलराम खुबचंदो से 50 हज़ार से ज्यादा वोटों से हार गए थे.
उत्तर प्रदेश के इटावा के रहने वाले अशोक यादव शुरू से ही भाजपा के कार्यकर्ता हैं. वे यहां के 14 नंबर वार्ड से वार्ड प्रेसिडेंट हैं. यादव बताते हैं, ‘‘नरोदा सीट से हमेशा भाजपा सिंधी समुदाय के व्यक्ति को टिकट देती है. वे आसानी से जीत जाते हैं.’’
ओमप्रकाश तिवारी का दावा है कि उन्होंने प्रवासी लोगों के लिए हमेशा काम किया है. चाहे कोरोना काल हो या छठ या दूसरे त्योहार. ऐसे में उन्हें उम्मीद है कि प्रवासी उन्हें वोट करेंगे. लेकिन अशोक यादव की माने तो ज़्यादातर प्रवासी भाजपा को ही वोट करते आ रहे हैं और इस बार भी करेंगे.
नरोदा पाटिया में मुस्लिम वोटरों की संख्या सिर्फ 700 है. ऐसे में उनकी वोटों की चिंता यहां किसी भी दल को नहीं है. यहां दो मुस्लिम मोहल्ले हैं, हुसैन नगर और जवान नगर. यहां के रहने वाले यासीन मंसूरी बताते हैं, ‘‘यहां भाजपा के लोग तो कभी वोट मांगने भी नहीं आते हैं. किस मुंह से आएंगे. 2002 में जिस तरह से लोगों को बेहरमी से जलाया और मारा वैसे तो जानवर भी नहीं करते हैं.’’
हमारे बारे में कौन बोलता है?
पायल कुकरानी भले ही इसे अतीत की बात कहकर, आगे बढ़ने की बात करती नज़र आती हैं लेकिन जो हादसे के पीड़ित हैं, उनके लिए इनकी उम्मीदवारी, जले पर नमक डालने के समान है.
पाटिया चौराहे की बगल में ही सुन्नी मस्जिद है. जिसे दंगे के दौरान तोड़ दिया गया था. तब यहां के इमाम थे बिहार के पूर्णिया जिले के रहने वाले अब्दुल सलाम रिजवी. दंगे के दौरान हुए मंजर को देखकर उन्होंने अपना मानसिक संतुलन खो दिया. जिसके बाद उन्हें छह महीने तक रांची मेंटल अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था. धीरे-धीरे वे ठीक हुए.
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए रिजवी कहते हैं, ‘‘हमारी कोई सुनता है? नहीं सुनता. न तब सुना गया और न अब सुना जा रहा है. इस मस्जिद पर 11 सिलिंडर फेंके गए थे. जिसमें से पांच फट गए और बाकी नहीं फटे. टूट गई थी मस्जिद. जो मिला उसको मार दिया. न जाने क्या लेकर आये थे पानी जैसा था. देह पर गिरते ही चमड़ा छोड़ देता था. लोग मर गए पर न्याय मिला क्या? भाजपा ने उन्हीं लोगों को टिकट दिया है. आप जाइये हमें कोई बात नहीं करनी है.’’
वहीं यासीन कहते हैं, ‘‘भाजपा की यही खासियत है. वो अपने लोगों को कभी नहीं छोड़ती है. जिन लोगों ने उनके लिए काम किया उन्हें इनाम देती है. हम अपनी कहानी बताते-बताते थक गए हैं. अब यह रूटीन हो गया है. चुनाव के समय आप लोग (मीडिया) भी पूछते हैं. फिर आप भी भूल जाते हैं. यहां अब लोग ठीक से रह रहे हैं. कोई गिला शिकवा नहीं है लेकिन जो भोगा है उसे कोई कैसे भूल सकता है. शाहआलम कैंप में चार महीने रहा पूरे परिवार के साथ. यहां से शाहआलम कैंप जाने और वहां गुजरे समय को कभी नहीं भुलाया जा सकता है.’’
नरोदा पाटिया में रहने वाले ज़्यादातर लोग यहां से जा चुके हैं. मुस्लिम संगठनों ने उन्हें आर्थिक मदद की थी. यहां उनके मकान हैं, जिसमें बिहार-यूपी से आये लोग किराये पर रहते हैं. यहां जो कुछ रह गए उनका एक ही सवाल है, यहां से 125 किलोमीटर दूर गोधरा में हुई घटना की सज़ा हमें क्यों दी गई? और अब हमारे लोगों को बेरहमी से मारने वाले के परिवार को टिकट देना हमारे दुख को बढ़ाना ही है नहीं तो क्या है?