मौजूदा हालात इस बात की ओर इशारा करते हैं कि जनजातीय लोगों को विश्वास में लेकर पारंपरिक कृषि विधियों को सहेजना ही हमारे स्वस्थ भविष्य की जरूरत है.
बोंडा जनजाति समुद्रतल से एक हजार मीटर की ऊंचाई पर रहती हैं. इस जनजाति को पीवीटीजी (विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह) में रखा गया है. जिनकी संख्या देशभर में कुल 75 है. इनकी अपनी विशिष्ट चुनौतियां हैं. लेकिन इनके लिए भुवनेश्वर और दिल्ली में बैठकर विकास योजनाएं तैयार की जाती हैं.
बोंडा समुदाय से आने वाले, ओडिशा के मलकानगिरी जिले की चित्रकोंडा विधानसभा सीट के पूर्व विधायक डांबरु सिसा कहते हैं, “कहने को 1978 से यहां बीडीए (बोंडा डेवलपमेंट अथॉरिटी) काम कर रही है. बीडीए का मुख्य काम ही हमारी हेल्थ, एजुकेशन और आजीविका के लिए काम करना है, लेकिन इतने सालों में भी ये अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाई है. राज्य सरकार के अलावा केंद्र सरकार की मिनिस्ट्री ऑफ ट्राइबल अफेयर्स से भी अच्छा- खासा पैसा आता है. लेकिन वो पैसा कहीं इनके भले में लगता दिखाई नहीं देता. बीडीए की बैठकें भी बस खानापूर्ति के लिए की जाती हैं. उनमें सरपंच और विधायक तक को बस नाम के लिए शामिल किया जाता है."
वह आगे कहते हैं, "बनाई जा रहीं योजनाओं में हमारी ही राय नहीं ली जाती है. कायदे से जो बैठक कम से कम दो दिन चलनी चहिए उसे महज़ कुछ घण्टों में ही निपटा दिया जाता है. हर राज्य के आदिवासी समुदाय की जरूरतें वहां की भौगोलिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग हैं. लेकिन मणिपुर, तमिलनाडु औऱ हमारे बोंडा समुदाय के लिए एक जैसी योजनाएं बनाकर हम पर थोप दी जाती हैं, जो हमारे किसी काम की नहीं होतीं. इन चुनौतियों के बावजूद हमने खेती-बाड़ी के अपने खास तौर-तरीकों के जरिये क्लाइमेट चेंज से लड़ाई में बहुत बड़ा योगदान दिया है".
डांगर चास- बोंडा जनजाति की विशिष्ट कृषि तकनीक
इंडिजिनस (रासायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग के बिना) तरीकों से खेती करते हुए बोंडा समुदाय ने क्लाइमेट चेंज की चपेट से अपने क्षेत्र को बचाए रखा है. ये आम तौर पर मई-जून के महीने में मानसून की पहली बारिश के बाद फसल की बुआई शुरू करते हैं. इसके बाद पारंपरिक तरीकों के अनुसार पूरे खेत में बुआई न करके ये लोग छोटे-छोटे स्थानों में बीज बोते हैं. इन छोटे-छोटे स्थानों को पोड़ू कहा जाता है. इसके बाद अक्टूबर के आखिरी हफ़्ते से शुरू करके जनवरी तक फसल कटाई का काम चलता है. इसे काटकर और इनकी सफाई करके इन्हें अगले 3-4 साल तक खाली छोड़ दिया जाता है, इस बीच इन पर कोई फसल नहीं बोई जाती.
बोंडा गांवों में राज्य सरकार के ओडिशा पीवीटीजी सशक्तिकरण और आजीविका सुधार कार्यक्रम (ओपीईएलआईपी) को लागू करवाने वाली संस्था विकास के कर्ताधर्ता सदानन्द प्रधान कहते हैं, “दो फसलों के बीच के इस अन्तर से इन पोड़ू में प्राकृतिक रूप से फसलों का विकास होता है. ये लोग इन्हीं अवशेषों, ठूंठ और राख को मिलाकर पौधों की नई क्यारियां तैयार करते हैं.”
बोंडा गांवों की ग्राम पंचायत, आंदराहल की सरपंच सांबरी सिसा कहती हैं, “हम लोगों की कृषि भूमि चूंकि पहाड़ों पर है इसलिए यहां जुताई नहीं करते क्योंकि इससे मिट्टी ढीली होकर कटाव होने का खतरा पैदा हो सकता है. इसीलिए हम मिट्टी खुदाई का काम रुक-रुक कर करते हैं. खेती-बाड़ी की जगह बदलते रहने की ये परम्परा जमीन में पोषक तत्वों की कमी को लगातार पूरा करती रहती है और इसके लिए महंगे रसायनिक या हाइब्रिड प्रजाति के बीजों या कीटनाशकों का इस्तेमाल भी नहीं करना पड़ता. यूएन (संयुक्त राष्ट्र संघ) और स्वदेशी समुदायों के लिए काम करने वाली संस्था एआईपीपी (एशिया इंडिजिनस पीपुल्स पैक्ट) की एक साझा रिपोर्ट भी इस बात की तस्दीक करती है.”
सीसा आगे कहती हैं, “पहली मानसून बारिश होते ही पारंपरिक बोंडा पर्व 'बूंदे-पार' के साथ बुआई की शुरुआत होती है. इस पर्व में समाज के लोग प्रकृति और अपने पूर्वजों को याद करके नई फसल बोने की शुरुआत करते हैं. बूंदे पार के बाद हर घर से एक मुट्ठी अनाज लाया जाता है. सबका अनाज इकट्ठा होने के बाद इसे मुरली पाड़ा ले जाया जाता है. मुरली पाड़ा को ये लोग बोंडा गांवों की राजधानी मानते हैं. घरों से अनाज लाकर उसे मुरली पाड़ा ले जाने की ये पूरी प्रक्रिया पाठ-खांडा यात्रा कहलाती है.”
“बोंडा समाज के लोग पहाड़ी इलाकों में रहते हैं इसलिए इन्होंने वर्षों से डांगर चास यानी उच्च भूमि पर की जाने वाली दुर्लभ कृषि तकनीक को जारी रखा है. ग्लोबल वार्मिंग के दौर में जब दुनिया भर में जैव विविधता छिन्न-भिन्न हो रही है, ऐसे समय मे इस समुदाय ने पारंपरिक फसलों को सहेजने के अलावा 450 वनस्पतियों और 34 नए औषधीय पौधों को विकसित करने का नायाब और महत्त्वपूर्ण काम किया है. यहां पर ये बताना जरूरी है कि ये बोंडा समुदाय जिसे अपर बोंडा भी कहा जाता है, अभी तक शेष दुनिया से कटा हुआ है. इसलिए भी इनका ये योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए.” उन्होंने कहा.
डांगर चास कृषि विधि का वैज्ञानिक पक्ष
इस कृषि विधि का वैज्ञानिक स्तर पर प्रमाणित अध्यन ही इसे खास बनाता है. क्लाइमेट चेंज विशेषज्ञ प्रवत वी सुतार कहते हैं, “बोंडा गांवों में क्लाइमेट की बेहतर हालत इसी डांगर चास के कारण ही मेंटेन हुई है. क्योंकि बोंडा गांव बाढ़ से बचे हुए हैं इसलिए वहां जल जमाव न होने के कारण मीथेन गैस नहीं पैदा होती है. जबकि दूसरी जगहों पर बाढ़ जैसी क्लाइमेट चेंज वजहों से ग्लोबल वार्मिंग के लिए 20 गुना अधिक जिम्मेदार मीथेन गैस पैदा होती है. एक शोध के मुताबिक कई वर्षों से मई में बोंडा गांवों का तापमान 35 डिग्री पाया जाता रहा है. वहीं इसके उलट इसी मलकानगिरी जिले के अन्य गांवों में तापमान करीब 42 डिग्री सेल्सियस पाया गया है.”
इस ग्राफ में स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं कि इसमें हमने सैंपल के तौर पर 2010 से 2017 तक का, मलकानगिरी जिले का औसत अधिकतम तापमान लिया है. इसमें हरे रंग के ठीक बाद जो लाल रंग की पट्टी शुरू होती है, वह जनवरी 2010 का तापमान है. इसके बाद इसमें तीन लेवल के 26℃, 36℃ और 46℃ के सर्कल दिखाए गए हैं. पहली लाल पट्टी 26℃ को दिखाती है. इसके बाद तापमान बदलता रहता है.” उन्होंने कहा.
बोंडा जनजाति का भविष्य और ओडिशा की जैव विविधता
हजारों वर्षों से बोंडा जनजाति द्वारा किए गए प्रकृति संरक्षण के कारण, मलकानगिरी ओडिशा के सबसे समृद्ध वनस्पति खजानों में से रहा है. लेकिन पिछले कुछ समय से वनों की आग, औषधीय पौधों के व्यवसायिक दोहन और वनों को कृषि भूमि में बदले जाने ने इसे प्रभावित किया है. फॉरेस्ट कवर लगातार घट रहा रहा है. पशु-पक्षियों और कीटों के प्राकृतिक आवास लगातार प्रभावित हो रहे हैं. जबकि लंबे समय से पर्यावरण वैज्ञानिक क्लाइमेट चेंज से लड़ने के लिए फॉरेस्ट कवर बढ़ाने पर ही जोर देते रहे हैं. मौजूदा हालात इस बात की ओर इशारा करते हैं कि जनजातीय लोगों को विश्वास में लेकर पारंपरिक कृषि विधियों को सहेजना ही हमारे स्वस्थ भविष्य की जरूरत है. शायद तभी महात्मा गांधी ने भी कहा था कि प्रकृति हमारी सभी जरूरतों को पूरा कर सकती है, लालच को नहीं.
(यह रिपोर्ट न्यूज़लॉन्ड्री और इंडिया डाटा पोर्टल की साझा फेलोशिप के तहत की गई है. इसमें इंडिया डाटा पोर्टल की विस्तृत आंकड़ों की मदद ली गई है.)