ओडिशा हादसे के बाद अखबार अपने-अपने नजरिए से संपादकीय लेख प्रकाशित रहे हैं. आज हम ऐसे ही कुछ संपादकीय लेखों के बारे में बात करेंगे.
ओडिशा में भीषण रेल हादसे के बाद विभिन अख़बारों ने इस पर संपादकीय लेख लिखे. इन लेखों में दुर्घटना से सबक लिए जाने और रेलवे को क्यों सुरक्षा प्राथमिकता देनी चाहिए समेत तमाम मुद्दों पर चर्चा हुई. हम ऐसे ही कुछ संपादकीय लेखों के बारे में यहां बात करेंगे.
अंग्रेजी के प्रमुख दैनिक अख़बार, ‘द हिन्दू’ ने अपने संपादकीय में लिखा, ‘तीन ट्रेनों का टकराव उन चुनौतियों का दुखद स्मरण है जिनका कि भारत रेल सेवाओं के आधुनिकीकरण और विस्तार में सामना कर रहा है. संपादकीय में आगे लिखा गया कि इस तरह की दुर्घटना हाल ही में मैसूर में देखी गई थी, तब भी कुछ ऐसे ही ट्रेनों का टकराव हुआ था.
अख़बार आगे लिखता है कि पटरियों और गाड़ियों के बुरे रख-रखाव के अलावा कर्मचारियों से आवश्यकता से अधिक काम लेना रेलवे की उन तमाम दिक्कतों में से हैं, जो अब किसी से छिपी नहीं हैं. हालांकि, गत दशक में प्रति मिलियन ट्रैन किलोमीटर हादसों में कमी जरूर आई है.
अंग्रेजी के एक और प्रमुख अख़बार, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने भी करीब-करीब इसी तर्ज पर अपना संपादकीय लिखा. एक्सप्रेस ने सवाल उठाया है कि जवाबदेही कैसे सुनिश्चित की जाए? क्या यह हादसा बड़े बदलाव का संकेत है और सबसे महत्वपूर्ण इस हादसे से सीख क्या होगी?.
अखबार ने लिखा है कि हादसे की विस्तृत और निष्पक्ष जांच होनी चाहिए. जांच को बेहतर विश्लेषण और व्यापक चर्चा के लिए सार्वजानिक तौर पर जनता के सामने रखा जाए. आखिरकार, आधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार की कोई अहमियत नहीं है, अगर इससे सुरक्षा और गुणवत्ता में सुधार नहीं हो रहा है.
‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने 5 जून के संपादकीय में सवाल उठाया है कि सीएजी और संसदीय स्थायी समिति की ढेरों चेतावनियों के बावजूद भी रेलवे ने सुरक्षा को संज्ञान में क्यों नहीं लिया? अगर रेलवे के अंदरूनी मानकों और प्रोटोकॉल को देखा जाए तो इन दोनों ने ही बार-बार समस्याओं को उजागर किया है कि रेलवे के सुरक्षा मानकों में कमी है.
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने भी अपने संपादकीय में सीएजी रिपोर्ट का जिक्र किया है. टाइम्स ने अपने संपादकीय में लिखा, “2016-17 और 2020-21 के बीच 75 फीसदी हादसों का कारण ट्रेन का पटरी उतरना था. वहीं, पांंच फीसदी हादसों की वजह गाड़ियों का आपस में टकराव था.”
टाइम्स ने लिखा कि रेल मंत्री ने भी निरीक्षण और पटरियों के नवीनीकरण के प्रोटोकॉल में लापरवाही बरती है.
सरकार का लक्ष्य है कि ट्रेनों की गति को बढ़ाया जाए तो इसी को आधार बनाते हुए अख़बार ने सवाल किया है कि क्या रेलवे की सुरक्षा को लेकर लापरवाही वाले रवैये के साथ गति बढ़ाने के लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है?
‘द टेलीग्राफ’ में भी रेलवे के हादसे पर संपादकीय प्रकाशित हुआ है. संपादकीय की शुरुआती पंक्तियां कहती हैं, "भारत की रेल पटरियों पर खून है." अख़बार लिखता है कि रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के अनुसार, दो जून को हुई इस त्रासदी के जिम्मेदार लोगों को चिन्हित कर लिया गया है, अगर ऐसा है तो फिर क्यों रेलवे बोर्ड ने इस हादसे की सीबाई जांच के आदेश दिए हैं?
संपादकीय के मुताबिक, अभी भी बहुत कुछ संदेह योग्य है. अख़बार कहता है कि सरकार को देश को कुछ स्पष्ट जवाब देने होंगे. साथ ही नागरिकों को भी यह आश्वस्त करना चाहिए कि इस तरह की त्रासदी की पुनरावृत्ति की संभावना कम से कम हो. उधर, आसामाजिक तत्व इस दुर्घटना को एक सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशों में जुटे हैं.
न्यूज़लान्ड्री ने इस सांप्रदायिक एंगल को ग्राउंड से रिपोर्ट भी किया है, जिसमें बहुत सारे सोशल मीडिया पोस्ट में दावा किया गया कि इस हादसे में मुस्लिम समुदाय के लोगों का हाथ है. जबकि यह एक फर्जी दावा था. इस बारे में पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें