13 मार्च को पांच किसान संगठनों ने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया और केंद्र सरकार से मांग रखी कि पंजाब से गुजरने वाली नदियों का पानी पहले पंजाब को दिया जाए और बाकी बचा पानी अन्य राज्यों को.
साल 2020 में केंद्रीय भूमि जल बोर्ड और पंजाब सरकार द्वारा कराए गए अलग- अलग अध्ययन के मुताबिक पंजाब भूजल संकट से गुजर रहा है. इसके चलते 2039 तक प्रदेश के कई इलाके सूख सकते हैं. अध्ययन के अनुसार, पंजाब के 79 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई के लिए भूजल का अत्याधिक दोहन किया जाता है. जिसका नतीजा यह हुआ कि 138 में से 109 ब्लॉक अति शोषित श्रेणी में हैं. दो ब्लॉक क्रिटिकल श्रेणी में हैं, पांच ब्लॉक सेमी क्रिटिकल श्रेणी में हैं और केवल 22 ब्लॉक ही सुरक्षित हैं.
इस संकट से उबरने के लिए फिलहाल पंजाब के पास एक ही रास्ता नजर आ रहा है, वह है नदियों का पानी.
इसके चलते एक बार फिर से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली के बीच नदियों के पानी के बंटवारे का विवाद चर्चा में है. बीते सोमवार को भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल), किसान संघर्ष कमेटी, ऑल इंडिया किसान फेडरेशन, आजाद किसान संघर्ष कमेटी और भारतीय किसान यूनियन (मानसा) सहित पंजाब के पांच किसान संगठनों ने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया और केंद्र सरकार से मांग रखी कि पंजाब से गुजरने वाली नदियों का पानी पहले पंजाब को दिया जाए और बाकी का बचा पानी अन्य राज्यों को दिया जाए.
प्रदर्शन के दौरान भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल), पंजाब अध्यक्ष बलवीर सिंह राजेवाल ने कहा, “प्रधानमंत्री को ज्ञापन दिया गया है. हमने मांग की है कि पंजाब में ग्राउंड वाटर खत्म होने वाला है. जिससे पंजाब, पंजाब नहीं रहेगा. हमारा पानी दूसरे राज्यों को देकर सरकार ने बहुत ज्यादती की है.”
वहीं भारतीय किसान यूनियन (मानसा), पंजाब के अध्यक्ष बोग सिंह मानसा ने कहा, “पंजाब का पानी खत्म होने के साथ-साथ प्रदूषित भी हो रहा है. जब हम पानी की मांग करते हैं तो हमें रिपेरियन के मुद्दे पर उलझा दिया जाता है. पानी राज्य का मसला है लेकिन केंद्र सरकार ने डैम सेफ्टी एक्ट बनाकर बिजली और पानी का अधिकार अपने हाथ में ले लिया.”
ऐसे में बड़ा सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार, पंजाब के किसानों की यह मांग पूरी कर पाएगी? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें पानी के इस विवाद को समझना होगा, क्योंकि पिछले पांच दशक में कई बार सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के बावजूद भी इस विवाद का समाधान नहीं निकल सका है. पहले समझते हैं कि पूरा विवाद क्या है और इसकी शुरुआत कैसे हुई.
करीब पांच दशक पहले, 1966 में जब संयुक्त पंजाब का बंटवारा कर अलग हरियाणा राज्य बना, तभी इस विवाद की बुनियाद पड़ गई थी. हरियाणा राज्य बनने के बाद पंजाब पुनर्गठन अधिनियम के तहत फैसला हुआ कि अगर दोनों राज्य विवाद को दो वर्ष में नहीं सुलझा सके तो केंद्र सरकार मामले का निपटारा करेगी.
1976 में केंद्र सरकार ने पंजाब से बहने वाली सतलुज नदी के 72 लाख एकड़ फीट पानी में से 35 लाख एकड़ फीट हिस्सा हरियाणा को देने की अधिसूचना जारी की.
हरियाणा के हिस्से का पानी पंजाब से लाने के लिए सतलुज नदी से यमुना को जोड़ने वाली एक नहर की योजना बनाई गई, जिसे एसवाईएल यानी सतलुज यमुना लिंक नाम दिया गया. इस नहर की लंबाई 214 किलोमीटर है. जिसमें से पंजाब में 122 और हरियाणा में 92 किलोमीटर हिस्से का निर्माण होना था. इस अधिसूचना के बाद पंजाब और हरियाणा दोनों राज्यों में सियासी उबाल आ गया. इस मुद्दे पर राजनीति तेज हुई और विवाद गंभीर होता गया.
विवाद की गंभीरता को देखते हुए वर्ष 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हस्तक्षेप करते हुए हरियाणा और पंजाब के बीच पानी का बराबर बंटवारा कर दिया.
साल 1980 में केंद्र सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया कि पंजाब से बहने वाली रावी और ब्यास नदी का पानी बढ़कर 171 लाख 70 हजार फीट तक पहुंच गया है. इसके बाद राजस्थान, जम्मू-कश्मीर और दिल्ली भी इस जल विवाद में कूद पड़े.
31 दिसंबर 1981 को सभी दावेदार राज्यों के प्रतिनिधियों को बैठाकर एक समझौता हुआ. यह तय हुआ कि पंजाब को 42.20 लाख एकड़ फीट, राजस्थान को 86 लाख एकड़ फीट, हरियाणा को 35 लाख एकड़ फीट, जम्मू-कश्मीर को 6.50 लाख एकड़ फीट और दिल्ली को दो लाख एकड़ फीट पानी आवंटित किया जाएगा.
इस समझौते में भी पंजाब के हिस्से में अधिक पानी आया. इस कारण विवाद फिर बढ़ा, जिसे देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया और हरियाणा को उसके हिस्से का पानी दिए जाने के उद्देश्य से सतलुज यमुना लिंक नहर के निर्माण की घोषणा कर दी.
8 अप्रैल 1982 को उन्होंने पंजाब के पटियाला जिले के गांव कपूरी में 21 करोड़ की लागत से बनने वाली 91 किलोमीटर लंबी एसवाईएल नहर के निर्माण की आधारशिला रखी.
हरियाणा ने अपने हिस्से की नहर का निर्माण भी कर लिया. लेकिन पंजाब में विरोध की घटनाओं ने हिंसक रूप ले लिया. हिंसा की कई घटनाओं के बाद 1990 में पंजाब में नहर का निर्माण रोक दिया गया. इस तरह एक बार और यह नहर बनते-बनते रह गई.
1996 में यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने 2002 और 2004 में पंजाब को दो बार निर्देश दिया कि वह अपने हिस्से में नहर का काम पूरा करें. लेकिन इन निर्देशों के बावजूद 2004 में ही पंजाब विधानसभा ने बिल पास कर, पानी को लेकर हुए अब तक के सभी समझौतों को रद्द कर दिया.
15 मार्च 2016 को पंजाब सरकार ने नहर के लिए किसानों से ली गई 5000 एकड़ जमीन को वापस लेने के लिए नोटिफिकेशन का बिल पास कर दिया. इस बिल के बाद पंजाब में एसवाईएल नहर को पाटने का काम शुरू हुआ और इसमें सिर्फ किसान नहीं बल्कि तमाम राजनीतिक पार्टियों ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया.
हरियाणा का कहना है कि एसवाईएल नहर हरियाणा के लोगों के लिए जीवन रेखा है क्योंकि इससे हरियाणा के दक्षिण भाग के बंजर इलाकों में पानी पहुंचाने में मदद मिलेगी.
वहीं दूसरी तरफ घटते भूजल स्तर के कारण निकट भविष्य में पंजाब के एक बड़े हिस्से पर बंजर में तब्दील हो जाने का संकट मंडरा रहा है. इसलिए केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद भी, इस मुद्दे के सुलझने के आसार फिलहाल कम ही नजर आ रहे हैं.