वायु प्रदूषण से महिलाओं में बढ़ा एनीमिया का खतरा

अध्ययन के मुताबिक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में बड़े पैमाने पर कटौती से भारत में प्रजनन वाली उम्र की महिलाओं में एनीमिया को कम करने में मदद मिल सकती है.

WrittenBy:सहाना घोष
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अगर भारत साफ-सुथरी हवा और ऊर्जा के लक्ष्यों को पूरा करता है तो इससे कई तरह के फायदे होंगे. एक लाभ यह होगा कि प्रजनन वाली आयु की महिलाओं में एनीमिया के प्रसार को काफी हद तक कम किया जा सकेगा. एक अध्ययन में यह जानकारी सामने आई है जिन महिलाओं में खून की बहुत ज़्यादा कमी और उनके अति सूक्ष्म कणों (पीएम 2.5) के संपर्क में आने को आपस में जोड़ता है. अध्ययन में खास तौर पर पीएम 2.5 प्रदूषकों और खून की कमी वाली इस बीमारी के बीच संबंधों के बारे में बताया गया है.

यह तथ्य प्रदूषण और स्वास्थ्य पर लैंसेट आयोग द्वारा नई समीक्षा की पृष्ठभूमि में सामने आया है. इसमें कहा गया है कि प्रदूषण को नियंत्रित करने और उससे होने वाली बीमारी को रोकने से जुड़े कामों में “हम पीछे जा रहे हैं.”  समीक्षा में प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता को होने वाले नुकसान के आपस में जुड़े होने पर भी जोर दिया गया है.

हालांकि भारत में केंद्र सरकार ने कार्रवाई में देरी को उचित ठहराने के लिए प्रदूषण और सेहत पर असर को लेकर लगातार स्थानीय स्तर पर जुटाए गए साक्ष्य मांगे हैं. लेकिन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली की अगुवाई में वैज्ञानिकों ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण और उपग्रह डेटा सहित कई डेटासेट का इस्तेमाल कर प्रदूषण और स्वास्थ्य के बीच संबधों का पता लगाया. उनके नतीजे बताते हैं कि आस-पास के पीएम 2.5 एक्सपोजर में हर 10 माइक्रोग्राम/मीटर क्यूब बढ़ोतरी के चलते महिलाओं में औसत एनीमिया का प्रसार 7.23% बढ़ जाता है.

पीएम2.5 क्या है?

पीएम2.5 का अर्थ अति सूक्ष्म कणों या पार्टिकुलेट मैटर से है. सांस लेते वक्त ये शरीर के अंदर चले जाते हैं. इनका व्यास आमतौर पर 2.5 माइक्रोमीटर या उससे छोटा होता है. अगर तुलना की जाए तो इनमें सबसे बड़े कणों के व्यास से औसत इंसानी बाल लगभग 30 गुना बड़ा होते हैं. इन पार्टिकुलेट मैटर में ठोस कण और तरल बूंदें दोनों होती हैं. यह वायु प्रदूषण से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं की वजह बन सकता है.

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नई दिल्ली में वायु प्रदूषण पराली जलाना राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में वायु प्रदूषण के प्रमुख कारणों में से एक रहा है.

अध्ययन में पाया गया कि भारत में प्रजनन वाली आयु की महिलाओं में एनीमिया का प्रसार 53.1% था, यानी दुनिया भर में सबसे अधिक प्रतिशत वाले देशों में से एक. हालांकि गांवों की तुलना में शहरी भारत में मामले कुछ कम हैं. अगर भारत में साफ-सुथरी हवा के लक्ष्य को हासिल कर लिया जाता है, तो प्रजनन आयु (15 से 49 वर्ष की उम्र) की महिलाओं में एनीमिया का प्रसार 53% से गिरकर 39.5% हो जाएगा. इसका असर यह होगा कि 186 जिलों में प्रजनन उम्र की महिलाओं में एनीमिया की कमी राष्ट्रीय लक्ष्य से 35% कम हो जाएगी.

स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ने से एनीमिया मुक्त मिशन लक्ष्य हासिल करने में भारत की प्रगति में तेजी आ सकती है. आईआईटी-दिल्ली के साग्निक डे ने बताया, “हालांकि कुपोषण एनीमिया के लिए सबसे बड़ा जोखिम है, वायु प्रदूषण अभी भी एक खतरा है. पार्टिकुलेट मैटर का कंपोजिशन मायने रखता है. हम सबूत जुटाने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि यह कह सकें कि किस प्रकार के कण अधिक जहरीले हैं. इसलिए जब आप उन्हें नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं, तो आप अधिक जहरीले प्रदूषकों को प्राथमिकता देते हैं. क्योंकि कंपोजिशन स्रोतों से जुड़ा है. अंतत: नीतिगत स्तर पर आपको उन स्रोतों को लक्ष्य में शामिल करना होगा.”

डे बताते हैं, “फिलहाल, राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के तहत 2026 तक वायु प्रदूषण (पीएम सांद्रता) में 40% की कमी का एक संशोधित लक्ष्य तय किया गया है. हालांकि पहले 2024 तक 20% से 30% की कमी का लक्ष्य था. लेकिन प्राथमिकता के आधार पर देखें तो इसका कोई मतलब नहीं है. अगर हम स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से सोचें, तो हमारे और इसी तरह के कई अन्य वैज्ञानिकों के काम लक्षित स्वास्थ्य नतीजों के लिए क्षेत्र-विशेष के लक्ष्यों को प्राथमिकता देने में मदद कर सकते हैं.”

शोध के अनुसार, कार्बनिक कार्बन और धूल की तुलना में सल्फेट और ब्लैक कार्बन एनीमिया से अधिक जुड़े हुए हैं. इसलिए हैरानी नहीं होना चाहिए कि इसमें प्रमुख योगदान उद्योगों का है. इसके बाद असंगठित, घरेलू और बिजली, सड़क की धूल, खेती के बाद पराली जलाना और परिवहन क्षेत्र हैं.

बढ़ते सबूत

हालांकि, डे एक डिस्क्लेमर भी जोड़ते हैं. “एनीमिया में कमी जैसे सिर्फ सेहत से जुड़े नतीजों के आधार पर आप समन्वय (क्षेत्र-आधारित लक्ष्य) नहीं कर सकते. हमारा लक्ष्य कई स्वास्थ्य परिणामों को देखना है ताकि आप कई नतीजों के आधार पर वायु प्रदूषण में कमी के लक्ष्य तय कर सकें.”

पिछले साल आए एक पेपर में, डे और उनके सहयोगियों ने सुझाव दिया कि आस-पास के पीएम 2.5 एक्सपोजर को भारतीय बच्चों में एनीमिया से जोड़ा जा सकता है. इस नतीजे पर जैविक तंत्र से जुड़े अतिरिक्त शोध के आधार पर पहुंचा गया.

वहीं हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट में कंसल्टिंग प्रिंसिपल साइंटिस्ट और अध्ययन के सह-लेखक आरोन जे. कोहेन ने कहा, “यह समझना जरूरी है कि पीएम 2.5 किस तरह एनीमिया और इससे जुड़े प्रतिकूल प्रभावों की वजह बनता है. पीएम घटकों के अलग-अलग असर का अध्ययन उस कोशिश का एक अहम हिस्सा है. लेकिन सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण नीति के दृष्टिकोण से शोध का लक्ष्य स्वास्थ्य संबंधी पीएम 2.5 स्रोतों की पहचान करना होना चाहिए ताकि नियंत्रण के उपायों को दिशा दी जा सके न कि बायोलॉजिक मैजिक बुलेट.”

कोलकाता के साल्ट लेक शहर में नलबन जल निकाय के ऊपर प्रदूषण की धुंध देखी गई

लैंसेट समीक्षा के सह-लेखक कोहन कहते हैं, “पीएम2.5 एक जटिल मिश्रण है (और आस-पास के कुल वायु प्रदूषण और भी अधिक) जिसके घटक व विशेषताएं और स्वास्थ्य पर होने वाला असर देशों के बीच अलग-अलग है. यही नहीं देशों के अंदर भी भिन्न-भिन्न हैं. यह भिन्नता विभिन्न स्रोतों को दिखाती है जो मिश्रण के उत्सर्जन में योगदान करते हैं.”

वायु प्रदूषण को बीमारी से जोड़ने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता

कोहेन ने जोर देकर कहा कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों में शोध की बहुत अधिक ज़रूरत है, जो वायु प्रदूषण के जोखिम के कारण होने वाली बीमारी के भारी अनुमानित वैश्विक बोझ में बड़े हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं. “हालांकि इस स्थिति में सुधार हो रहा है. साग्निक के समूह और अन्य लोगों के शोध के मुताबिक भारत, चीन और अफ्रीका में वायु प्रदूषण निगरानी डेटा की कमी और मौतों के पंजीकरण में अपूर्णता के चलते कई स्थानों पर प्रगति सीमित है.”

भारत सरकार कहती रही है, “देश में सिर्फ वायु प्रदूषण की वजह से होने वाली मौत/बीमारी का सीधा संबंध स्थापित करने के लिए कोई निर्णायक डेटा उपलब्ध नहीं है.”

हालांकि, दुनिया भर में कई सारे सबूत पीएम 2.5 और अन्य प्रदूषकों के संपर्क को गंभीर प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभावों से जोड़ते हैं. इनमें संक्रामक और गैर-संक्रामक रोगों से होने वाली मौत भी शामिल हैं. कोहेन कहते हैं, “सरकारों को यह मान लेना चाहिए कि स्थानीय स्वास्थ्य अध्ययनों के अभाव के बावजूद ये असर उनके अधिकार क्षेत्र में भी हो रहा है.”

सरकारों को इस बात पर जोर नहीं देना चाहिए कि जब तक स्थानीय स्तर पर अध्ययन नहीं होगा, तब तक जोखिम को कम करने के लिए कदम नहीं उठाए जा सकते. कोहेन कहते हैं कि प्रमुख स्रोतों से उत्सर्जन को कम करने की कोशिश शुरू की जानी चाहिए. “इसी के साथ वायु प्रदूषण के स्तर और लोगों पर इसके जोखिम की निगरानी में बढ़ोतरी की जानी चाहिए.” इसके अलावा स्वास्थ्य अधिकारियों और स्थानीय शोधकर्ताओं के साथ प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभावों को मापने और भविष्य में हुई प्रगति के मूल्यांकन के लिए आधार तैयार करना चाहिए.

डे और सहयोगियों द्वारा की गई स्टडी पर इस अगस्त में प्रकाशित एक टिप्पणी में वैज्ञानिक अजय पिल्लारीसेट्टी और कल्पना बालकृष्णन ने कहा, “भारत और उसके बाहर वायु प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए कदम उठाने के लिए कई कारण मौजूद हैं. कई सालों से भारत में नीति निर्माताओं ने ये कदम उठाने के लिए भारत से जुड़े अधिक साक्ष्यों की मांग की है और हाल के वर्षों में यह इच्छा तेजी से पूरी भी हुई है. बेहतर गुणवत्ता वाले इस भारतीय साक्ष्य में बढ़ोतरी के चलते, आंशिक रूप से ही सही देश भर में वायु प्रदूषण के जोखिम को कम करने के लिए 2019 में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम शुरू किया गया था.”

वे लिखते हैं, महिलाओं से जुड़े वायु प्रदूषण-एनीमिया अध्ययन में “अधिक बेहतर गुणवत्ता वाले सबूत का योगदान है” और “भारतीय उप-महाद्वीप में मौजूदा दौर में दिख रहे वायु प्रदूषण जोखिम और संबंधित बीमारी के बड़े बोझ को कम करने के लिए अब कदम उठाने को सही ठहराता है.”

‘दुनिया भर के लिए खतरा’ बनता प्रदूषण

हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट के कंसल्टिंग प्रिंसिपल साइंटिस्ट, अध्ययन के सह-लेखक आरोन कोहेन ने जोर देकर कहा, “जलवायु और वायु प्रदूषण पर शोध और कार्रवाई को जोड़ना अहम है क्योंकि जीवाश्म ईंधन के जलने को कम करना दोनों के लिए जरूरी है.”

लैंसेट की समीक्षा में भी दुनियाभर में प्रदूषण के बढ़ते खतरे पर ध्यान दिया गया है. इसमें जलवायु परिवर्तन के असर को कम करके प्रदूषण को रोकने के लिए एक प्रभावी रणनीति पर चर्चा की गई है. इसमें “जीवाश्म ईंधनों से स्वच्छ, नवीन ऊर्जा की तरफ बड़े पैमाने पर तेजी से बदलाव” पर जोर है.

प्लास्टिक कचरे को छांटते कर्मचारी. अक्सर कचरे के ढेर को आग के हवाले कर दिया जाता है, जिससे हानिकारक प्रदूषण होता है.

लैंसेट की समीक्षा में पाया गया कि प्रदूषण हर साल लगभग 90 लाख मौत के लिए जिम्मेदार है, जो दुनिया भर में होने वाली छह मौत में से एक की वजह है. वहीं अत्यधिक गरीबी से जुड़े प्रदूषण के प्रकारों के कारण होने वाली मौतों में कमी आई है. हालांकि, यह बताता है कि घरेलू वायु और जल प्रदूषण से होने वाली मौत में ये कमी आस-पास के वायु प्रदूषण और जहरीले रासायनिक प्रदूषण (जैसे सीसा) के कारण होने वाली मौतों में वृद्धि से होने वाली कमी के चलते है.

इन आधुनिक प्रदूषण जोखिम कारकों (आस-पास के वायु प्रदूषण, सीसा और रासायनिक प्रदूषण) से होने वाली मौत में जो औद्योगीकरण और शहरीकरण के नतीजे हैं, इसके चलते होने वाली मौत 2015 से 7% से बढ़कर 2000 से 66% से अधिक हो गई है.

संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों, प्रतिबद्ध समूहों, प्रतिबद्ध व्यक्तियों और कुछ राष्ट्रीय सरकारों (ज्यादातर अधिक आय वाले देशों में) द्वारा चल रहे प्रयासों के बावजूद प्रदूषण के खिलाफ बहुत कम वास्तविक प्रगति को देखा जा सकता है. खासकर निम्न-आय और मध्यम-आय वाले देशों में, “जहां प्रदूषण सबसे गंभीर है.”

इसे रेखांकित करते हुए कि प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता का नुकसान आपस में जुड़ा हुआ है, समीक्षकों का कहना है कि इन साझा खतरों पर सफल नियंत्रण के लिए हस्तक्षेप को कारगर बनाने की जरूरत है. इसके लिए रिसर्च को प्रभावित करने और फंडिंग को निर्देशित करने के लिए विश्व स्तर पर समर्थित, औपचारिक विज्ञान-नीति इंटरफ़ेस की आवश्यकता है.

मानवीय और आर्थिक नुकसान

चयनित स्थानों के लिए मानव पूंजी के नुकसान के संदर्भ में, समीक्षा में पाया गया है कि 2000 में, पारंपरिक प्रदूषण (ठोस ईंधन और गंदे पानी, स्वच्छता और हाथ धोने से घरेलू वायु प्रदूषण) के कारण उत्पादन में नुकसान इथियोपिया में सकल घरेलू उत्पाद का 6·4% था. वहीं नाइजीरिया में सकल घरेलू उत्पाद का 5·2% और भारत में सकल घरेलू उत्पाद का 3·2% था। मानव पूंजी, मानव गुणवत्ता या मूल्य या कौशल सेट को संदर्भित करती है जो आर्थिक उत्पादन और उत्पादकता में सुधार कर सकती है.

साल 2019 तक, पारंपरिक प्रदूषण के कारण मृत्यु दर इथियोपिया और नाइजीरिया में 2000 में मृत्यु दर का एक तिहाई थी. भारत में 2000 में मृत्यु दर के आधे से भी कम थी. “नतीजतन, जीडीपी के अनुपात के रूप में प्रदूषण से संबंधित आर्थिक नुकसान काफी हद तक गिर गया. हालांकि, समीक्षा में कहा गया है कि पारंपरिक प्रदूषण के कारण आर्थिक नुकसान भारत में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1% और इथियोपिया में सकल घरेलू उत्पाद का 2% है.

प्रदूषण के आधुनिक रूपों के कारण भारत, चीन और नाइजीरिया में आर्थिक नुकसान 2000 और 2019 के बीच जीडीपी के अनुपात के रूप में बढ़ गया है. माना जा रहा है कि इन देशों में से प्रत्येक में आर्थिक नुकसान सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक फीसदी होने का अनुमान है. अगर प्रदूषण के पूर्ण स्वास्थ्य प्रभावों को गिना जाए और अनौपचारिक क्षेत्रों पर प्रदूषण के प्रभाव और पर्यावरण को होने वाली क्षति को पूरी तरह से विस्तार दिया जाए, तो समीक्षा के अनुसार पूर्ण आर्थिक नुकसान “और अधिक होने की आशंका है.”

समीक्षा में कहा गया है, “इसके विपरीत, प्रदूषण के आधुनिक रूपों के कारण आर्थिक नुकसान संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ के 15 देशों में सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में गिर गया है. इन देशों में आर्थिक नुकसान में कमी प्रदूषण नियंत्रण, प्रदूषण बढ़ाने वाले उद्योगों की आउटसोर्सिंग और मृत्यु दर में कमी को दिखाती है.”

(साभार- MONGABAY हिंदी)

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