न्यूज़लॉन्ड्री ने कई दशकों से इस हिमालयी क्षेत्र पर रिसर्च कर रहे दो भूविज्ञानियों से बात की जो एक बार फिर हालात का अध्ययन करने जोशीमठ पहुंचे हैं.
भूविज्ञानियों का कहना है कि जोशीमठ संकट की सच्चाई को स्वीकार कर लेना चाहिए. जोशीमठ के कुछ हिस्सों में रहना अब कभी संभव नहीं होगा. न्यूज़लॉन्ड्री ने हिमालयी क्षेत्र के भूविज्ञान को लंबे समय से कवर कर रहे वैज्ञानिकों नवीन जुयाल और सरस्वती प्रकाश सती से बात की. इन दोनों ही भूविज्ञानियों का कहना है कि वर्तमान स्थिति स्पष्ट करती है कि संवेदनशील जोशीमठ पर भार वहन क्षमता (लोड बियरिंग कैपेसिटी) से अधिक बोझ है जिसे तुरंत कम किया जाना चाहिए.
डॉ जुयाल के मुताबिक, “अभी जो क्षेत्र धंस रहा है वह जोशीमठ के मध्य में है. यह उत्तर की ओर देखती हुई पहाड़ी ढलान है और प्रभावित हिस्सा (जोशीमठ नगर पालिका के दो निकायों) सुनील से लेकर मारवाड़ी तक जाता है. यह एक प्राकृतिक ढलान है. अतीत में एक भूस्खलन आया जिसने इस ढलान के गर्त को भर दिया. इसी ढलान के रास्ते सभी नाले और प्राकृतिक पानी के स्रोत पानी अलकनंदा नदी में ले जाते हैं.”
समय बीतने के साथ यहां लोग बसते रहे और घरेलू जरूरतों के लिए पानी के सोख्ता टैंक और नालियां बनती गईं. डॉ जुयाल याद दिलाते हैं कि मिश्रा कमेटी ने यहां भारी बसावट, निर्माण और लैंडस्केप से किसी तरह की छेड़छाड़ के खिलाफ चेतावनी दी थी.
वह कहते हैं, “इस वक्त सोचना होगा कि इस विनाशलीला को शुरू करने वाला टिपिंग पॉइंट क्या रहा होगा.”
वह आगे कहते हैं कि अभी हमारे पास एक विकल्प ही बचता है कि प्रभावित इलाकों से बसावट को हटाना पड़ेगा.
वहीं डॉ सती कहते हैं, “उस इलाके में अभी कोई ऐसा इंजीनियरिंग का तरीका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता कि धंसाव को तुरंत रोक दिया जाए. जब ढलान के कई हिस्से नीचे की ओर धंस रहे हों तो हमारे पास ऐसी जादू की कोई छड़ी नहीं है. हां वहां हुए निर्माण को सुरक्षित तरीके से हटाकर भार वहन क्षमता कम करने की टेक्नोलॉजी जरूर उपलब्ध है.”
दोनों ही भूविज्ञानी चेतावनी देते हैं कि इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और भूकंपीय क्षेत्र होना अतिरिक्त चिंता का विषय है. ग्लेशियरों के पिघलने के कारण अब पहाड़ों पर वॉर्मिंग तेजी से बढ़ रही है और उच्च हिमालयी क्षेत्र बड़ी आपदाएं ला सकते हैं.
पिछले पा्ंच दशकों में हुई तमाम रिसर्च के हवाले से दोनों ही वैज्ञानिक इस क्षेत्र में भारी निर्माण के खिलाफ चेतावनी देते हैं. जुयाल कहते हैं, “जोशीमठ मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) पर है. यह भ्रंश उच्च और मध्य हिमालयी क्षेत्र को अलग करता है. इस क्षेत्र में पिछले 200 साल में एक के बाद एक बादल फटने की घटनाएं हुईं हैं. जलवायु परिवर्तन की सच्चाई को स्वीकार करते हुए हमें यह समझना होगा कि उच्च हिमालयी क्षेत्र बहुत निर्दयता से व्यवहार करेंगे. इस क्षेत्र में कोई बड़ा प्रोजेक्ट नहीं बनना चाहिए.”
सती के मुताबिक, “नेचर जियो साइंस में प्रकाशित रिसर्च में भी यह चेतावनी दी गई है कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं और ढीला मलबा अपने पीछे छोड़ रहे हैं जिसे मोरेन कहा जाता है वह घाटी की दिशा में लंबवत खड़े रहते हैं. क्लाइमेट चेंज के बढ़ते दौर में चरम मौसमी घटनाएं (एक्सट्रीम वेदर इनेंट) अधिक हो रही हैं और उनकी संख्या बढ़ रही है. ऐसे में यह सभी मलबा खिसककर नीचे आता है और आपदा लाता है. जोशीमठ पहले ही भूधंसाव वाली स्थिति में है इसलिए उसे अधिक संकट है और यह संकट अन्य क्षेत्रों पर भी छाएगा.”
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