उत्तराखंड का जल शोक, बांधों की बलि चढ़ते गांव

उत्तराखंड में जहां भी हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट हैं, वहां गांव दरक रहे हैं. लोगों की जमीन धंस रही है और खेत बर्बाद हो रहे हैं.

   bookmark_add
  • whatsapp
  • copy

“बेटा, हम घर से बेघर हो गये हैं. ये घर तो टूट कर गिर रहा है. मेरे नाती-पोते सब किराये के मकान में चले गये हैं. सरकार को अभी कुछ करना चाहिये. जब हम इसमें दफन हो जायेंगे तो वो क्या करेंगे?”

सत्तर साल की अशरफी देवी की तरह राज्य के करीब 500 गांवों में लोग घर और खेत बर्बाद होने से परेशान हैं.

सत्तर साल की अशरफी देवी की तरह राज्य के करीब 500 गांवों में लोग घर और खेत बर्बाद होने से परेशान हैं.

हृदयेश जोशी

70 साल की अशर्फी देवी के ये शब्द हमने जोशीमठ में नहीं बल्कि वहां से करीब सवा दो सौ किलोमीटर दूर टिहरी के एक गांव में सुने. और ये पीड़ा वहां के हर घर की है. पिपोला खास कभी आबाद बसावट का एक खिलखिलाता हिस्सा था लेकिन आज यह गांव एक उजड़ रहा परिदृश्य भर है. 

हृदयेश जोशीटिहरी बांध की मुख्य दीवार के समीप बसे पिपोला खास गांव से टिहरी झील का विहंगम दृश्य दिखता है. टिहरी बांध 1970 के दशक में बनना शुरू हुआ और इसका निर्माण 2005 में पूरा हुआ. तब 1000 मेगावॉट की जलविद्युत परियोजना के लिये पिपोला खास के 26 परिवारों को यहां से विस्थापित कर दूसरी जगह बसाया गया था, क्योंकि उनकी जमीन और घर झील में डूब गए लेकिन बाकी 190 परिवारों को डूब क्षेत्र से बाहर होने के कारण यहीं रहना पड़ा.  

सामाजिक कार्यकर्ता और वकील शांति प्रसाद भट्ट पिपोला गांव के निवासी हैं. वह बताते हैं कि टिहरी बांध से अधिक बिजली उत्पादन के लिये उसका जलस्तर 12 मीटर बढ़ा दिया गया और पिपोला खास में विनाशलीला होने लगी.

भट्ट कहते हैं, “इस झील का क्षेत्रफल करीब 42 वर्ग किलोमीटर है और इसका पानी स्थिर नहीं है. जब बरसात का सीज़न नहीं होता तो पानी घट जाता है, वर्ना बढ़ने लगता है. इसके मूवमेंट से पहाड़ दरक रहा है. घरों के फर्श और दीवारों पर चौड़ी दरारें हो गई हैं और घर झुकने लगे हैं. अब जिस पहाड़ पर गांव है वहां पावर कंपनी एक नई सुरंग बना रही है, जिससे दिक्कतें बढ़ गई हैं.”

सुरंगों के लिये विस्फोट और बार-बार विस्थापन 

न्यूज़लॉन्ड्री की टीम ने पिपोला खास गांव का दौरा किया और पाया कि कम से कम तीन-चौथाई घरों के फर्श और दीवारों में दरारें हैं. करीब दो-दर्जन घरों की हालात बेहद नाज़ुक दिखी. 

इसी गांव की बसंती देवी कहती हैं कि घर टूटने के अलावा जमीन और खेत भी धंस गये हैं. 

वह कहती हैं, “सरकार और (हाइड्रो पावर) कंपनी को होश में आना चाहिए. झील और सुरंग हमारे लिये सबसे बड़ी दिक्कतें हैं. हमारी कितनी सारी जमीन डूब गई, बाकी धंस रही है. घर तो बर्बाद हो ही गया है. हम कहां अपना अनाज उगाएं और कहां रहने को जाएं, यह सरकार ही हमें बताये.”

विष्णुगाड़-पीपलकोटी  परियोजना पर काम 2012 में शुरू हुआ. यह 444 मेगावॉट का पावर प्रोजेक्ट है.

विष्णुगाड़-पीपलकोटी परियोजना पर काम 2012 में शुरू हुआ. यह 444 मेगावॉट का पावर प्रोजेक्ट है.

हृदयेश जोशी

नई टिहरी से 150 किलोमीटर दूर बसा चमोली का एक गांव दुर्गापुर भी दरक रहा है. इस गांव के नज़दीक 444 मेगावॉट की विष्णुगाड़-पीपलकोटी परियोजना के लिये सुरंग खोदी जा रही है. यहां के अधिकतर घरों में भी दरारें दिखीं. गांव की अधिकतर आबादी अनुसूचित समुदाय की है और उन्हें बार-बार विस्थापित होना पड़ रहा है. 

दुर्गापुर की सुलोचना देवी के घर में दरारें बढ़ रही हैं. वह कहती हैं, “सुरंग के लिये यहां दिन में दो से तीन बार ब्लास्टिंग होती है और तब घर हिलते हैं. हमें 2013 की आपदा के बाद यहां आना पड़ा. अब फिर से विस्थापित होकर हम कहां जायेंगे?”

सुलोचना देवी का परिवार विस्थापित होकर कर्णप्रयाग के पास बसा लेकिन यह गांव भी अब दरक रहा है.

सुलोचना देवी का परिवार विस्थापित होकर कर्णप्रयाग के पास बसा लेकिन यह गांव भी अब दरक रहा है.

हृदयेश जोशी

इसी तरह घरों के टूटने और खेतों व जमीन के धंसने से परेशान पिपोला गांव के आशाराम भट्ट कहते हैं, “लोगों ने घर छोड़ दिया है. वह डर कर गांव के दूसरे घर में शिफ्ट हो गये हैं, लेकिन वहां भी दरारें आने लगी हैं. सरकार बताये हम क्या करें? दो दिन मुख्यमंत्री जी इस घर में रहकर दिखाएं तो हम भी इस घर में रहने को तैयार हैं.”

उत्तराखंड के सैकड़ों गांवों पर संकट 

आज उत्तराखंड के करीब 500 गांवों की हालत कमोबेश दुर्गापुर और पिपोला खास जैसी ही है. डाउन टु अर्थ पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक साल 2011 में उत्तराखंड सरकार ने प्राकृतिक आपदाओं वाले गांवों की पहचान की और वहां रहने वाले लोगों के पुनर्वास की नीति पर काम शुरू किया. ऐसा करने वाला वह देश का पहला राज्य था लेकिन अब तक कुछ खास नहीं हुआ है.

साल 2021 में उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया कि राज्य के 465 गांवों के परिवारों का पुनर्वास होना है और अब आधिकारिक रूप से ऐसे गांवों की संख्या बढ़कर 484 हो गई है. 

टिहरी विधानसभा सीट (जिसके अंतर्गत पिपोला खास है) के विधायक किशोर उपाध्याय कहते हैं कि जोशीमठ संकट के बाद उन्होंने जिलाधिकारी को नई टिहरी समेत, उनकी विधानसभा के सभी संकटग्रस्त गांवों का आकलन करने के निर्देश दिये हैं. 

उनके मुताबिक, “यह केवल एक पिपोला खास गांव का मसला नहीं है. टिहरी बांध के जल से उत्पन्न संकट इस क्षेत्र में लगातार बना रहेगा. इसलिये हर मानसून के बाद (खतरे का) आकलन किया जाना ज़रूरी है. हम 2004-05 में इस विषय को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी गये थे.”

नदियों पर विशाल बांध बने अभिशाप 

साल 2013 में हुई केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरणीय क्षति पर जलविद्युत परियोजनाओं के आकलन के लिये रवि चोपड़ा कमेटी का गठन किया. इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि उत्तराखंड में कुल 3,624 मेगावॉट बिजली उत्पादन क्षमता की 92 जलविद्युत परियोजनाएं चल रही हैं और सरकार का इरादा कुल 450 हाइड्रो पावर प्लांट लगाने का है, जिनकी बिजली उत्पादन क्षमता 27,049 मेगावॉट होगी. 

जानकार कहते हैं कि संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में इतने बड़े प्रोजेक्ट लाने से पहले इस क्षेत्र की भार वहन क्षमता का आकलन होना चाहिए. 

भूविज्ञानी नवीन जुयाल के मुताबिक, “हमारे पास जोशीमठ जैसे पैरा ग्लेशियल ज़ोन में मलबे की मात्रा और स्वभाव का कोई आकलन नहीं है. इसी तरह संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में भार वहन क्षमता के बारे में कुछ विश्वसनीय अध्ययन नहीं है, लेकिन जोशीमठ ने यह बता दिया है कि राज्य के कई हिस्सों पर वजन सीमा से अधिक है. इसलिये वो धंस रहे हैं.”

साउथ एशिया नेटवर्क फॉर डैम, रिवर एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) के संयोजक हिमांशु ठक्कर कहते हैं, “जल विद्युत परियोजना के कई हिस्से होते हैं. उसमें केवल बांध ही नहीं होता बल्कि सर्ज शॉफ्ट, पावर स्टेशन और सुरंगें होती हैं. ये सब ढांचा खड़ा करने के लिए उस क्षेत्र में खनन और जंगलों का कटान किया जाता है. इसमें बहुत सी गाद निकलती है जिसकी डम्पिंग की जाती है और ज़्यादातर समय उसमें नियमों का पालन नहीं होता. इसके लिए उस क्षेत्र में पावर स्टेशन और बांध तक सड़कें बनती हैं, कॉलोनी बनायी जाती हैं. इस सब निर्माण के लिये बहुत तोड़फोड़ और ब्लास्टिंग होती है.”

न्यूज़लॉन्ड्री ने अपनी कवरेज के दौरान पाया कि संकटग्रस्त गांवों के निवासियों की सबसे बड़ी शिकायत हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स के लिये बन रही सुरंगों को लेकर है. जलविद्युत परियोजनाओं के लिये बहुत बड़ी संख्या में विशालकाय सुरंगें बनती हैं और इन सुरंगों के भीतर जाने के लिये कई अन्य सुंरगें खोदी जाती हैं, जिन्हें एडिट टनल कहा जाता है.

ठक्कर कहते हैं, “आप तपोवन-विष्णुगाड़ प्रोजेक्ट की सुरंग को लें. उस सुरंग का व्यास साढ़े छह मीटर है यानी उस सुरंग में एक के ऊपर एक तीन ट्रेन खड़ी की जा सकती हैं. यह सुरंग 12 किलोमीटर से अधिक लम्बी है. इतना बड़ा इलाका ज़मीन की सतह से लेकर नदी और भीतरी हिस्से तो तबाह कर देता है और यह बात ध्यान देने की है कि हिमालय जैसे नए पहाड़ों पर यह सब करने से पहले इसके प्रभाव का कोई अध्ययन नहीं किया गया है. यह भूकंपीय क्षेत्र है. इसलिये तपोवन हो या टिहरी जहां भी आप यह सब करेंगे उसका दुष्परिणाम ही होगा.”

आपदा प्रबंधन के लिये बढ़ती चुनौती

संवेदनशील क्षेत्र में अनियोजित और अनियंत्रित निर्माण आपदा प्रबंधन के लिये बड़ी चुनौती बन रहा है. साल 2013 की केदारनाथ बाढ़ के वक्त आपदा प्रबंधन विभाग बेबस दिखा था. पिछले 10 सालों में डिज़ास्टर मैनेजमैंट की क्षमता तो कुछ खास नहीं बढ़ी, लेकिन मौसमी आपदाओं की मारक क्षमता बढ़ने के साथ उनकी आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) ज़रूर बढ़ने लगी है. 

आपदा प्रबंधन के प्रमुख रंजीत सिन्हा कहते हैं, “जोशीमठ को लेकर कहा जाता है कि वहां भारी निर्माण और परियोजनाओं के कारण संकट पैदा हुआ है, लेकिन आप देखिए कि छोटे-छोटे गांव भी दरक रहे हैं. आखिर वो क्यों हो रहा है? अलग-अलग इलाकों की भार वहन क्षमता और रिहायश का दबाव सहने की शक्ति का सूक्ष्म आकलन होना चाहिए, जो हमारे पास नहीं है और आपदा प्रबंधन के हिसाब से यह बड़ी चुनौती है. हम इसका वैज्ञानिक अध्ययन और जियो टेक्निकल सर्वे करवा रहे हैं.”

Also see
जोशीमठ आपदा और विकास योजनाओं की फेहरिस्त
जोशीमठ में आ रहीं दरारों के लिए क्या एनटीपीसी है जिम्मेदार?
newslaundry logo

Pay to keep news free

Complaining about the media is easy and often justified. But hey, it’s the model that’s flawed.

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like