'विविधता, नए प्रारूप, अच्छे रिपोर्ताज': 2023 के लिए पत्रकारों के उम्मीदों की फेहरिस्त

जानिए मीडिया के कुछ दिग्गज नए साल में भारतीय पत्रकारिता से क्या उम्मीदें करते हैं.

WrittenBy:प्रत्युष दीप
Date:
मीना कोतवाल, एच आर वेंकटेश, रितु कपूर और शीला भट्ट
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बीता साल मीडिया के लिए काफी व्यस्त रहा. सात राज्यों के विधानसभा चुनावों से लेकर राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चुनावों, बिहार और महाराष्ट्र में विपक्ष की भूमिका में फेरबदल, जलवायु से जुड़े विषम घटनाक्रम, ईडब्ल्यूएस कोटा जैसे महत्वपूर्ण फैसले, ज़ी-20 में भारत की अध्यक्षता, सीमा-गतिरोध, भाला फेंकने में नीरज चोपड़ा को गोल्ड मेडल जैसे कई घटनाक्रमों का खबरों की दुनिया में दूसरी खबरों के मुकाबले कहीं ज्यादा बोलबाला रहा.

इस बीच मीडिया जगत में उद्योगपति गौतम अडानी द्वारा एनडीटीवी के अधिग्रहण और आईटी कानूनों में बदलाव जैसी बड़ी हलचल दिखी.

अब जबकि 2022 बीत चुका है, तो न्यूज़लॉन्ड्री ने यह फैसला लिया है कि वह खुद पत्रकारों से यह जानने की कोशिश करेगा कि नए साल 2023 में भारतीय पत्रकारिता के लिए उनकी क्या आशायें और आकांक्षाएं हैं.

पढ़िए इन पत्रकारों का क्या कहना है-

संगीता बरुआ पिशारोटी, राष्ट्रीय मामलों की संपादक, वायर

मुझे उम्मीद है कि 2023 में ऑनलाइन मीडिया न केवल भारतीय पत्रकारिता के लिए आशा की किरण बना रहेगा, बल्कि भारतीय मीडिया उद्योग के शेष हिस्से में भी ज्यादा से ज्यादा सहयोगी बनाने में सफल रहेगा. खासकर उस मीडिया की दुनिया में, जो 2022 तक पत्रकारिता के पेशे से जुड़ी नैतिकता के पालन को लेकर रसातल में पहुंच चुका है. 

मैं यह भी उम्मीद करती हूं कि कार्यपालिका द्वारा बनाए गए कठोर नियम, ऑनलाइन मीडिया को जनहित के बड़े विषयों पर आज़ादी से रिपोर्टिंग करने व सरकार के सामने उनसे जुड़े सवाल उठाने से रोकने में सफल नहीं होंगे. अन्यथा ये दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र या फिर जैसा कि हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं, 'तमाम लोकतंत्रों की मां' के लिए एक बहुत बड़ा मजाक साबित होगा.

नितिन सेठी, रिपोर्टर्स कलेक्टिव

ऐसे समय में जब ज्यादातर मीडिया आउटलेट्स गहराई से की गई रिपोर्टिंग की कोई परवाह नहीं करते और जो करते हैं वो ऐसा करने में खुद को अनिच्छुक या इसमें ठीक तरह से निवेश करने में खुद को अक्षम पाते हैं, तो इन हालातों में मौलिक रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों का साहस और उनकी बयान न की जा सकने वाली दृढ़ता को भूलना मुश्किल है.

मैं भारत में रिपोर्ताज के बारे में ही अपनी बात जारी रखूंगा. अगर पत्रकारिता एक घर है, तो रिपोर्ताज उसकी नींव है. इसके बगैर घर सजावटी तो दिख सकता है, लेकिन यह उस भार को नहीं सह पाएगा, जिसके लिए इस घर को बनाया गया था. भारत में पत्रकारिता का आधार काफी लंबे समय से कमजोर रहा है. अगर आपके पास ऐसे दोस्त हैं जो आज एनडीटीवी के मालिक के बदल जाने से छाती पीट रहे हैं, तो उन पर बिल्कुल भरोसा न करें.

उस भारतीय अर्थव्यवस्था में, जहां कामयाबी के लिए राजनैतिक लचीलापन एक अहम गुण है, वहां हमें हमेशा भारतीय पत्रकारिता को चलाने वाले उदासीन उद्योगपतियों से निपटना पड़ा. रिपोर्ताज को टेलीविजन न्यूज़ के गूंगेपन और लागत-कटौती वाले स्टूडियो-आधारित पुराने ढर्रों के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ा.

फिर भारतीय पत्रकारिता जगत में आगमन होता है इंटरनेट का. इसका ऑनलाइन जनरेशन से लेकर सूचनाओं के वितरण तक इसका पूरा कार्य व्यापार ही बिल्कुल अलग था. इसका राजस्व मॉडल भी बेहद नया व अलग था, जिसमें निर्माता से ज्यादा पैसे डिस्ट्रीब्यूटर कमाता था. ऑनलाइन पत्रकारिता उसी सब का लो-कॉस्ट हाई फ्रीक्वेंसी वर्जन बन गई, जो टेलीविजन पर हो भी रहा था- तब तक प्रवचन देना और टिप्पणियां करना जब तक कि सामने वाला इंसान मर न जाए.

इस खेल की ऊंचाइयों तक पहुंचने के लिए हमें एक बहुत ही छुई-मुई सरकार मिली, जिसने यह सुनिश्चित किया कि पुराने लीगेसी न्यूज़रूम रीढ़विहीन हों और इससे इतर बनावटी व्यवहार तक करने के लिए उनके पास कोई जगह भी नहीं बची हो. (लेकिन इसके बिलकुल विपरीत, मैं इसे अहमियत देता हूं.)

इस सबके बावजूद भारतीय पत्रकार अपनी सारी ऊर्जा, आत्मा और पूरी जिंदगी रिपोर्ताज में डालते दिखते हैं, ताकि सच्चाई बाहर आ सके. बावजूद इसके कि ऐसी कुछ ही जगहें अब तक बची हुई हैं और उनकी तरफ चंद पैसे उछाल दिए जाते हैं. जहां कुछ एक भारतीय पत्रकार बेहतरीन रिपोर्ताज तैयार करते रहते हैं, जबकि इसमें अपार धैर्य की जरूरत पड़ती है. ये पत्रकार तब तक हार नहीं मानते, जब तक कि वे वाकई थक कर चूर न चुके हों. और फिर उनमें से ही नए उपज का एक समूह यह जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले लेता है. एक बार फिर, ये साल भी इस बात का गवाह बना.

क्या 2023 में ये स्थिति बहुत हद तक बेहतर हो सकती है? मुझे इस पर शक है. इसे किसी विपदा या आपातकालीन स्थिति के नजरिए से देखने की परेशानी ये है कि ऐसे में हम इसके लिए कोई त्वरित हल खोजेंगे, जो एक ही दिन में सब ठीक कर दे. यह एक उम्मीद से भरी सोच है. दूसरे ख़्यालों से कहीं ज्यादा सब्ज बाग दिखाने वाला ख्याल: लेकिन भारतीय पत्रकारिता तब तक बहुत तेजी से नहीं बदलने वाली, जब तक कि इसकी राजनैतिक अर्थव्यवस्था नहीं बदलती.

नई ऑनलाइन पत्रकारिता की छोटी और उथल-पुथल से भरी जगह, अनिश्चितताओं से भरी है. इसमें क्षमता भी है और इसकी कमजोरियां भी देखी जा सकती हैं. यह सत्ता में बैठे लोगों पर स्पॉटलाइट डालने की चाहत तो रखता है लेकिन सार्वजनिक हितों वाले रिपोर्टाज को अपेक्षाकृत गहराई से लगातार और निष्पक्ष तौर पर तैयार करते रहने के लिए जरूरी फंडिंग के संसाधनों की इसके पास बेहद कमी है. और इसे क्यूरेटेड कंटेंट और कमेंट्री के साथ इंटरनेट नाम के विशालकाय जानवर को खिलाने के लिए बहुत कुछ खर्च करना पड़ता है.

और 2023 में पारंपरिक मीडिया की बदलते रंगों का क्या? नये साल में देखने के लिए कुछ पागल सपने भी हैं. तो इसलिए उन पत्रकारों को फॉलो करें जिन्हें आप अच्छी रिपोर्ट लाने की वजह से अहमियत देते हैं और उन मीडिया संगठनों को भी धन्यवाद दें जो उन्हें यह काम करने के लिए अच्छा वेतन देते हैं. इन सभी को थोड़ा प्यार भेजें.

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शीला भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार

2023 का साल भारतीय मीडिया के लिए काफी दिलचस्प होने वाला है क्योंकि यह खुद भारत के लिए भी एक दिलचस्प साल होगा. मैं कोई रोते रहने वाली इंसान नहीं हूं, जो तथाकथित गोदी मीडिया और तथाकथित सेक्युलर मीडिया को लेकर लगातार चिंतित होती रहे. असल भारत को ऐसी अभिजात बहसों से कोई लेना-देना नहीं है. हमें विकास की राजनीति की जरूरत है और मीडिया को बिना थके, बिना रुके, उसे ही कवर करते रहना चाहिए.

अपने वर्तमान चरण में भारतीय राजनीति एक नई करवट लेने, या यूं कहें कि बदलने को तैयार है, और ऐसे में इस सबको बगैर किसी पक्षपात के कवर करना एक बड़ी चुनौती होगी. ऐसे में जब गुजरात चुनावों के परिणामों के बाद मोदी युग एक नये पड़ाव पर पहुंच चुका है. भाजपा, कांग्रेस और दूसरे राजनैतिक दल मंथन से गुजर रहे हैं, जिसका असर आम जनता, अर्थव्यवस्था और देश के भविष्य पर भी पड़ेगा.

पिछले कुछ सालों में हमने देखा कि कैसे जन संवाद में कुछ गुणवत्ता जोड़कर, सोशल ने पारंपरिक मीडिया को पछाड़ दिया. लेकिन अब 2023 में इस बात की बेहतर समझ के साथ कि जनता के मुद्दों को क्या चीजें प्रभावित करती हैं, हम पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया के सम्मिश्रण और बेहतरीन तालमेल को नई दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में बैठकर जनता पर शासन करने वाले अभिजात वर्ग पर दबाव डालते हुए देखेंगे.

अपर्णा कार्तिकेयन, वरिष्ठ पत्रकार, पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया

मैं यह सब टाइप रही हूं और नया साल शुरू होने में दो दिन रह गए हैं. और इस वक्त हम जो उम्मीद कर रहे हैं वह एक वार्षिक और करिश्माई बदलाव कहलायेगा. लेकिन एक बारगी मैं यह उम्मीद जरूर करूंगी और चाहूंगी कि - यह सच हो जाए.

सिर्फ मेरी ही निजी जिंदगी में नहीं: जहां मैं पहले से कहीं ज्यादा यात्राएं करना, रिपोर्टिंग करना, लिखना और पढ़ना चाहती हूं. और बहुत कुछ सीखा हुआ भूलना भी चाहती हूं ताकि मैं सबसे बेहतर और उज्ज्वल लोगों से सीख सकूं.

हालांकि मेरे शिक्षक बहुत जानी-मानी हस्तियां नहीं हैं. (हालांकि कुछ तो वाकई बहुत मशहूर हैं, किताबें लिखते हैं, और पुरस्कार पाते हैं.) लेकिन ज्यादातर तमिलनाडु के छोटे गांवों में रहते हैं, जमीन के छोटे टुकड़ों पर खेती करते हैं, अपनी फसलों की रखवाली करते हैं. उनकी एक छोटी सी आमदनी है और वे अपने बच्चों को लेकर सपने संजोते हैं और जिंदा रहते उन्हें पूरा करने की कोशिश करते हैं.

एस रानी, ए लक्ष्मी, एस रामासामी, जे आदिकलासेल्वी, नागी रेड्डी, के अक्षया, थिरु मूर्ती और अनाडामारु: मेरी सीरीज के लिए मुझसे बातचीत करने के सिलसिले में ये लोग घंटों अपने कामकाज से दूर रहे. "लैट दैम ईट राइस", पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया पर प्रकाशित हो चुका है. जिसमें उनकी उस कमरतोड़ मेहनत का जिक्र है, जिसका अर्थ शब्दकोश में "बेहद दर्दनाक या कठोर परिश्रम वाली प्रवृत्ति का काम है."

हम हर रोज उस खून-पसीने की कमाई ही खाते हैं- इमली, लाल मिर्च, नमक. कुछ चीजें हम कभी-कभार ही खाते हैं - रागी, कटहल वगैरह.

भला हो पॉप कल्चर और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स का, जिनकी वजह से हम कोरिया या अमेरिका के बारे में कहीं ज्यादा जानते हैं बनिस्बत अपने ही राज्य के उन अपने लोगों के बारे में, जो हमारे लिए खाने की चीजें उगाते हैं. (और हां, पंजाब के किसानों और पणरूटी के किसानों की समस्या एक जैसी नहीं है.)

हमारे संबंधों के बीच ये एक गैप है, जिसे हमें भरने की जरूरत है. मुख्यधारा की मीडिया में बहुभाषी और मल्टीमीडिया वाली स्टोरीज होंगी (मेरा करिश्माई परिवर्तन!). एक आदर्श स्थिति में देश को अनिवार्य तौर पर यह जानने की इच्छा होनी चाहिए कि एक किलो हल्दी का दाम क्या है. (अगर ऐसा न भी हो तो देश को यह जानकारी दी जानी चाहिए.) देश को इस बात पर बहस करनी चाहिए कि क्यों कीमतों में गिरावट आने पर किसान अपने प्याज को सड़कों के किनारे फेंक कर चले जा रहे हैं? और देश को अपने गिरेबान में भी झांक कर देखना चाहिए कि क्यों कुछ लोगों ने रागी की बजाय गुलाब उगाने शुरू कर दिए हैं.

अभी भी ऐसे अनेक मसले हैं जिन पर चर्चा से बचने की कोशिश की जाती है और इसी मामले का एक उदाहरण है खेतों में हाथी का आना - लेकिन हम इन्हें देखने से इंकार कर देते हैं.

मेरी ख्वाहिश है कि 2023 में किसान और खाने की चीजों के बारे में और ज्यादा बातें हों. हर जगह हो, हर किसी से हो. न कि केवल तभी जब विरोध प्रदर्शन हो, सूखा पड़े या बढ़ आए.

एक अच्छी बहस नीतियों को प्रभावित करती है. जबकि एक सही नीति परिवर्तनीय होती है. उसके लिए हमें उन लोगों के साथ शुरुआत करनी पड़ेगी जो ज़्यादातर काम करते हैं - औरतें. वो भी ज्यादातर हाशिए के समाजों से आने वाली, जिनके कौशल को कोई पहचान नहीं मिलती, जिनके श्रम पर पर्दा डाल दिया जाता है और जिनके वक्त का कोई मोल नहीं होता.

निश्चित तौर पर हमें पुरुषों के बारे में भी बात करनी चाहिए, लेकिन साथ ही हमें यह सवाल भी उठाने चाहिए कि कृषि से जुड़े ज्यादातर कामकाज पर पुरूषों का नियंत्रण क्यों है (बाजार में, मंडी में, वे ही कीमतें तय करते हैं, वे ही पूंजी पर भी नियंत्रण रखते हैं.)

ये संवाद बिना विलम्ब के शुरू किए जाने चाहिए, ये बहसें बेहद अहम हैं, जिनकी एक बहुत ही सरल वजह है - हम सब खाना खाते हैं.

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रुक्मणी एस, स्वतंत्र डेटा पत्रकार

2023 में मैं पत्रकारों से निश्चितता की कम और सवालों की ज्यादा उम्मीद करती हूं. सब कुछ जानने वालों के रूप में पत्रकारों का युग खत्म हो चला है, और पत्रकारों को जो कुछ नहीं पता है, उसके बारे में उन्हें और ज्यादा विनम्र होने की जरूरत है - और किसी बारे में न जानना भी ठीक है. अंग्रेजी और गैर-अंग्रेजी न्यूज़रूम वाले मीडिया संगठनों के बीच मैं और अधिक सहयोग की भी आशा करती हूं. विशेष रूप से डेटा पत्रकारिता के लिए. मेरा मानना है कि हमें असल में अपने फोकस में बदलाव कर उसे गैर-अंग्रेजी न्यूज़रूम पर टिका देना चाहिए. मुझे उम्मीद है कि कहानियों को कैसे बताया जाए, इससे संबंधित नियम पहले से भी कम छिपे हुए होंगे - हमें बहुत ज्यादा नवीनता और रचनात्मकता की जरूरत है. निजी तौर पर मैं एक नए काम को शुरू करने की भी उम्मीद कर रहा हूं, जिसे लेकर मैं काफी उत्साहित हूं. पाठकों से मेरी यही उम्मीद है कि वे भारत में हो रही उत्कृष्ट पत्रकारिता पर अधिक ध्यान देंगे, और बाहर भारी मात्रा में हो रही घटिया पत्रकारिता पर कम ध्यान देंगे - भले ही उत्कृष्ट पत्रकारिता आलोचनात्मक क्यों न हो.

मीना कोटवाल, संस्थापक, मूकनायक

वर्तमान में पत्रकारिता और पत्रकार दो समूहों में विभाजित हैं: एक व्यवस्था के लिए काम कर रहा है और दूसरा व्यवस्था पर सवाल उठा रहा है. समर्थन करने वाले कभी भी सरकार से सवाल नहीं करते हैं और यथास्थिति से खुश हैं. हालांकि एक पत्रकार का कर्तव्य हमेशा सवाल करना और कमियों को उजागर करना है. आज ऐसे पत्रकारों के लिए एक डर का माहौल है.

ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, अगर हम हाशिए पर पड़े समाजों को संदर्भ में देखें, तो अभी भी मुख्यधारा के मीडिया में विविधता का काफी अभाव है. मुझे आशा है कि भविष्य में मुख्यधारा और वैकल्पिक मीडिया दोनों में विविधता दिखलाई पड़ेगी. हमारा काम विविधता की ओर निर्देशित होना चाहिए. 

मेरी इच्छा है कि दलित और आदिवासी स्वर भी निर्णय लेने और संपादकीय भूमिकाओं में भाग लें ताकि उनके मुद्दों को भी उसी तरह से उजागर किया जा सके जैसे कि अन्य लोगों के होते हैं ... वे खुद अपने बारे में बोलें.. यदि वे निर्णय लेने की कार्रवाई में शामिल होते हैं तो वे यह तय करने में सक्षम होंगे कि किस मुद्दे को किस तरह से प्रस्तुत किया जाए. इसलिए मेरी एक ही इच्छा है कि सब कुछ वैसा ही हो जैसा हमने चर्चा की थी. समानता होनी चाहिए और असमानता के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए, और नफरत पर प्यार की जीत होनी चाहिए.

एचआर वेंकटेश, निदेशक, बूम लाइव

मुझे उम्मीद है कि 2023 में पत्रकारिता में भीतर से सुधार का आंदोलन जोर पकड़ेगा. एक हद तक, एक बीट पत्रकार प्रेस की स्वतंत्रता पर होने वाले हमलों, हमारे काम को सेंसर करने की कोशिशों और कानूनी, सरकारी या सामाजिक उत्पीड़न को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं हो सकता. लेकिन हम जो नियंत्रित कर सकते हैं वो है अपने काम में गुणवत्ता के उच्च मानकों को सुनिश्चित करें और सुधार के लिए गैर प्रशिक्षित पत्रकारों की मदद करें. 

हमारे पास सुदर्शन न्यूज़ और ऑपइंडिया जैसे आउटफिट्स हैं और टाइम्स नाउ, रिपब्लिक और यहां तक कि सीएनएन-न्यूज़-18 जैसे चैनल हैं... जहां आदर्श रूप में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिन्हें बेहतर करने के लिए प्रशिक्षण लेना चाहिए. लोगों के काम करने के तौर-तरीके भयावह हैं. मेरा मानना है कि हम सभी को अपनी पत्रकारिता को बेहतर बनाने के तरीके खोजने चाहिए. 2023 में मेरी यही उम्मीदें है.

पेट्रीसिया मुखिम, संपादक, शिलांग टाइम्स

मुझे कोई उम्मीद नजर नहीं आती क्योंकि हम पत्रकार एक विभाजित बिरादरी हैं. एक ओर एक समूह है जो सरकार की समर्थक है और वहीं दूसरी तरफ का समूह है जो कि अभी भी पत्रकारिता के रास्ते पर चल रहा है. लेकिन अगर हम एकजुट ही नहीं हैं, तो हम व्यवस्था से लड़ेंगे कैसे? जब तक हम सब एक साथ नहीं आते या कम से कम कुछ ऐसा करने की कोशिश नहीं करते, मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती. मुझे लोगों को एक मंच पर लाने की कोई कोशिश नहीं नजर आती. हम में से जो भी लोग यहां दुनिया के इस हिस्से में हैं, परिधि पर हैं, और हमारी आवाजें बहुत दूर तक नहीं जातीं. लेकिन मुख्यधारा में जिनका दबदबा है, वे कुछ खास कर नहीं रहे हैं. तो आखिर उम्मीद है कहां?

रितु कपूर, सह-संस्थापक, क्विंट

मुझे लगता है कि पत्रकारिता के लिए समाचार का आज का माहौल ये मौका देता है कि वर्तमान में वातावरण इतना अंधकारमय और समझौतावादी है, कि असल में ठोस पत्रकारिता करने के मौके को लपकने का यही सही समय है, जबकि इतनी कम वास्तविक पत्रकारिता हो रही है. चुनौती यह है कि स्वतंत्र न्यूज़रूम के लिए बजट किस प्रकार कम पड़ता जा रहा है. मुझे लगता है कि ऐसे मामलों में न्यूज़रूम को उन कहानियों पर फोकस करने में प्राथमिकता देनी चाहिए जिनके असल में कुछ मायने हैं. और हर एक छोटी से छोटी ब्रेकिंग न्यूज़ के बारे में सोचने व उसे करने में इसके टुकड़े-टुकड़े नहीं कर देने चाहिए. 

मुझे वाकई ये लगता है कि जब हम बड़े न्यूज़रूम को हर खबर चुनने देते हैं तो, क्विंट जैसे स्वतंत्र न्यूज़रूम के लिए उन जगहों को गहराई से देखने का एक मौका है, जहां से दूसरे सभी न्यूज़रूम कहीं दूर ही देख रहे हैं, और यह वास्तव में गहराई से पत्रकारिता करने का एक मौका है. पत्रकारिता के लिए एक दूसरा बड़ा अवसर अब पहले से कहीं ज्यादा है और वह है वास्तव में सही प्रतिनिधित्व और विविधता को न्यूज़रूम में लाना. और मेरा मानना है कि यह कार्य प्रगति पर है.

नरेश फर्नांडिस, संपादक, स्क्रॉल

2023 के लिए मेरी उम्मीदें हैं कि मुट्ठी भर स्वतंत्र आउटलेट्स को छोड़कर भारतीय मीडिया वापस उस भूमिका में होगा, जिसकी उम्मीद हमसे इस लोकतंत्र में की जाती है. जो कि एक वॉचडॉग है, न कि एक लैपडॉग. जैसे-जैसे 2024 के चुनाव करीब आ रहे हैं, मतदाताओं और नागरिकों के लिए यह अहम होता जा रहा है कि वे भारत की हकीकत से जुड़ी एक साफ और बेदाग तस्वीर देख पाएं. मुझे लगता है कि इस वक्त ऐसा नहीं हो रहा है. चूंकि हम एक बहुत महत्वपूर्ण चुनाव की ओर बढ़ रहे हैं और इसलिए यह बहुत अहम हो जाता है कि नागरिकों को वह सारी जानकारी दी जाए, जिसकी उन्हें 2024 में चुनाव करने में सक्षम होने के लिए आवश्यकता है. इन्हीं कारणों से यह 2023 को और आने वाले साल में मीडिया द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण बना देता है.

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