पिछले कुछ वर्षों में, हिम तेंदुओं, बाघों, तेंदुओं और हिरणों सहित वन्यजीवों की खतरनाक तस्वीरें और रिपोर्टें आई हैं, जो कचरे के ढेर में अपना भोजन तलाश रहे थे या प्लास्टिक कचरा ले जा रहे थे.
दक्षिण भारत से केस स्टडी
बेंगलुरु में जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस साइंटिफिक रिसर्च (जेएनसीएएसआर) के प्रोफेसर टीएनसी विद्या कहते हैं, “हाल ही में मेरे एक छात्र ने काबिनी में हाथी के गोबर में डायपर की मौजूदगी की सूचना दी.” ये जानकारी इस साल जनवरी में कोयंबटूर के मरुथमलाई मंदिर हिल रोड पर जंगली हाथियों के गोबर में सैनिटरी पैड, मास्क, दूध के पाउच और बिस्कुट के पैकेट की मौजूदगी के बारे में छपी खबरों के तुरंत बाद आई.
विद्या, जिन्होंने केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में 15 से ज्यादा सालों तक हाथियों का अध्ययन किया है, आगे कहती हैं, “लेकिन ऐसे उदाहरण वास्तव में दुर्लभ हैं. हम हाथी के गोबर के कई हजार नमूनों में शायद एक नमूने में प्लास्टिक देखते हैं.” वह इसके लिए कई कारण बताती हैं. “एक, हम आमतौर पर गोबर के ढेर की सतह से बहुत छोटे नमूने लेते हैं और वास्तव में गोबर की गहराई में पाए जाने वाली चीजों की जांच नहीं करते हैं. दो, हमारा बहुत सारा काम काफी दूर-दराज की जगहों में होता है जहां मानव उपस्थिति आमतौर पर न्यूनतम होती है; और तीसरा, हमने वास्तव में यह जांचने का प्रयास नहीं किया है कि इन गोबर के नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक है या नहीं.”
वह कहती हैं, “वन विभाग हर साल स्वच्छता अभियान चलाता है, लेकिन वे इतना ही कर सकते हैं. इसलिए, यह बहुत हैरानी की बात नहीं है कि कुछ प्लास्टिक हाथियों के पेट में चला जाता है.”
मुधुमलाई वन्यजीव अभयारण्य में 2004 से 2010 तक हाथियों पर काम करने वाली रत्ना घोषाल का कहना है कि उन्हें अपने खेत के नमूने के दिनों में हाथी के गोबर में प्लास्टिक कभी नहीं मिला था. “सबसे पहले, मैंने माइक्रोप्लास्टिक की जांच नहीं की, और दूसरी बात, मुझे यकीन नहीं है कि मुधुमलाई में हाथियों ने कभी वहां काम करने के दौरान कचरे के ढेर से भोजन किया था. हालांकि जंगल के किनारे के पास कचरे के ढेर थे. यह एक बहुत व्यस्त सड़क के बगल में स्थित है जहां ट्रैफिक बहुत होता है. मैंने हाथियों को सिर्फ उस इलाके का इस्तेमाल सड़क को पार कर जंगल की दूसरी तरफ जाते देखा है; मैंने उन्हें कभी भी भोजन के लिए रुकते नहीं देखा.”
कचरा प्रबंधन में ढिलाई मुख्य वजह
फिलहाल अहमदाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में मछली और मगरमच्छों के प्रजनन शरीर विज्ञान में संचार का अध्ययन करने वाले घोषाल इस बात से सहमत हैं कि स्थलीय प्रणालियों और ताजे पानी के स्रोत में प्लास्टिक एक प्रमुख मुद्दा है. “वडोदरा में हम मगरमच्छों का अध्ययन करते हैं. यहां हम अक्सर प्लास्टिक के कचरे से भरे क्षेत्रों में मगरमच्छों को देखते हैं. हालांकि हम इसका अध्ययन नहीं करते हैं, मुझे यकीन है कि विश्वामित्री नदी में भारी प्रदूषण और तैरते प्लास्टिक के विशाल विस्तार वहां के मगरमच्छों के स्वास्थ्य पर भारी पड़ रहे हैं.”
बहुत सारे फोटोग्राफिक सबूत होने के बावजूद कि प्लास्टिक मीठे पानी की व्यवस्था और मनुष्यों सहित स्थलीय जानवरों पर प्रतिकूल असर डाल रहा है (माइक्रोप्लास्टिक अब इंसानों के खून, प्लेसेंटा और नवजात शिशुओं के मल में पाए गए हैं), इस पर रिसर्च करने की जरूरत है. प्लास्टिक प्रदूषण से वन्यजीवों और पर्यावरण को होने वाले खतरों की अधिकांश जांच समुद्री वातावरण पर केंद्रित है. हालांकि, वैज्ञानिक स्थलीय और मीठे पानी के पारिस्थितिक तंत्र में प्लास्टिक प्रदूषण के महत्व को महसूस कर रहे हैं.
इसके अलावा, बहुत सारे शोधों ने इस बात पर रोशनी डाली है कि किस तरह गलत तरीके से कचरा निपटान न केवल मानव-वन्यजीव संघर्ष को बढ़ाता है, बल्कि आबादी की सेहत को भी प्रभावित करता है, जानवरों के व्यवहार और जनसांख्यिकी को बदलता है. कचरे के ढेर जंगली कुत्तों के बड़े झुंडों को भी आकर्षित करते हैं, जिन्हें वन्यजीवों, विशेष रूप से हिम तेंदुओं और भालुओं पर हमला करते या उनका पीछा करते हुए देखा गया है, जिससे शिकार करने की उनकी क्षमता प्रभावित होती है.
कतलाम और अन्य ने अपने पेपर में लिखा है, अब “कचरा डंपों की मैपिंग के माध्यम से एक व्यापक ठोस कचरा प्रबंधन रणनीति विकसित करना, वन्यजीवों के लिए जोखिम का मूल्यांकन करना और प्लास्टिक प्रदूषण के खतरे को कम करने के लिए जन जागरूकता अभियान” विकसित करना बेहद जरूरी है.
(साभार- MONGABAY हिंदी)