कार्यक्रम में महिलाओं के मुद्दे, महिला पत्रकारों की स्थिति, न्यूज़ रूम के अंदर और बाहर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव, रिपोर्टिंग के दौरान आने वाली चुनौतियां और महिलाओं से संबंधित खबरों के पेश करने के तरीके पर विस्तार से चर्चा की गई.
न्यूज़लांड्री के सालाना कार्यक्रम द मीडिया रंबल में “वूमन इन मीडिया” विषय पर चर्चा के दौरान दलित डेस्क की सह संस्थापक बबीता गौतम ने बताया, "दलित महिला पत्रकारों के साथ न्यूज़ रूम के बाहर और न्यूज़ रूम के अंदर दोनों जगहों पर भेदभाव किया जाता है. दलित बैकग्राउंड से आने की वजह से हमें कुछ खास खबरों तक ही सीमित कर दिया जाता है."
कार्यक्रम भारतीय मीडिया के विभिन्न माध्यमों में महिलाओं के मुद्दे, महिला पत्रकारों की स्थिति, न्यूज़ रूम के अंदर और बाहर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव, रिपोर्टिंग के दौरान आने वाली चुनौतियां और महिलाओं से संबंधित खबरों के पेश करने के तरीके पर विस्तार से चर्चा की गई. मंच का संचालन आकाश बनर्जी ने किया. बबीता गौतम, लेखक व पत्रकार प्रियंका दुबे, मशहूर रेडियो जॉकी साइमा रहमान और ब्रेक थ्रू इंडिया की हेड ऑफ मीडिया प्रियंका खेर शामिल हुईं.
चर्चा के दौरान प्रियंका दुबे ने बताया, "मीडिया में रेप जैसे संवेदनशील मुद्दों पर खबर करते वक्त ज्यादातर पत्रकार संवेदनशीलता और मानवता के नजरिए से सोचने के बजाय, उसे व्यापार के नजरिए से देखते हैं. जब मैं एक रेप विक्टिम के घर गई और वहां जो मैंने मंजर देखा वह बहुत भयावह था. रेप विक्टिम के पिता रोते हुए घर से बाहर निकले और सामने खड़े एक टीवी चैनल के पत्रकार ने उनके मुंह में माइक घुसेड़ दिया और उल्टे सीधे सवाल करने लगा. मैं वहीं थी और यह दृश्य देखकर मैं हैरान रह गई कि आखिर इतने संवेदनशील मुद्दे पर कोई इस तरह की हरकत कैसे कर सकता है. एक पिता जिसने अभी-अभी अपनी बेटी खोई है, उसके जज्बातों उसके संवेदनाओं को समझने के बजाय सेंसेशन के लिए उसके मुंह पर माइक रख देना कितना सही है?”
प्रियंका का कहना है कि महिलाओं से जुड़े मुद्दे की कवरेज के दौरान हमें व्यापार पर नहीं मानवीय मूल्यों और संवेदना के ऊपर ध्यान केंद्रित करना होगा. रिपोर्ट में जल्दबाजी के बजाय गहराई में जाकर तथ्यों के साथ उन बातों को लिखना होगा, जो सामने नहीं आ पातीं. बहुत बार ऐसा होता है कि महिलाएं पुरुषों को अपनी समस्याएं नहीं बता पातीं, ऐसे में महिला पत्रकार का होना जरूरी हो जाता है.
आकाश बनर्जी ने बताया कि जब वह टीवी चैनल में काम करते थे तो न्यूज़ रूम में उनसे कहा जाता था कि रेप की ऐसी खबरें लाओ जो सेंसेशनल बने, और बहुत ही सनसनीखेज तरीके से खबरों को पेश किया जाता है. कभी-कभी रेप जैसी घटनाओं को भी सामान्य कर दिया जाता है.
मीडिया में महिलाएं अपने लिए जगह कैसे बनाएं इस सवाल के जवाब में साइमा कहती हैं, "महिलाओं को अपनी जगह खुद बनानी पड़ती है. हमारे लिए सबसे जरूरी है कि हम मनपसंद करियर चुनें. फिर उसमें दिल लगा के काम करें. कहने वाले कहते रहेंगे लेकिन आप अपने काम को पूरी ईमानदारी निष्ठा लगन से करते रहें. संघर्ष, निरंतरता और कड़ी मेहनत से हम वो मुकाम हासिल कर सकते हैं जो हम चाहते हैं.” उन्होंने यह भी कहा कि सफलता सिर्फ खुद ऊंचाइयों पर चढ़ने में नहीं है, बल्कि अपने साथ बाकी महिलाओं को भी बराबर बढ़ने का मौका देने में है.
फील्ड रिपोर्टिंग के दौरान आने वाली चुनौतियों के बारे में अलग अलग महिला पत्रकारों ने अलग-अलग अनुभव साझा किए. बबीता गौतम ने बताया कि उन्हें फील्ड पर आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ सामाजिक चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है. कई बार फील्ड रिपोर्टिंग के दौरान हमारे काम से ज्यादा हमारी जाति मायने रखती है. ऐसा अक्सर होता है कि जब मैं किसी स्टोरी को कवर करती हूं, तो लोग मुझसे मेरी जाती पूछ लेते हैं और फिर उनका व्यवहार बदल जाता है.
वहीं प्रियंका दुबे बताती हैं कि यह बात सच है कि पत्रकारों को उनकी जाति की वजह से फायदा मिलता है. कथित ऊंची जाति वाले पत्रकार इस प्रिविलेज को अनदेखा करते हैं पर यह सच है. जब हम ग्राउंड पर जाते हैं और गांव का सरपंच हमें अपने बगल में बैठता है. हमें अपने बर्तन में चाय पानी कराता आता है तो उसके पीछे हमारी जाति होती है. जाति के साथ मिलने वाला सोशल कैपिटल फील्ड में फायदा पहुंचाता है.
जेंडर वायलेंस को बढ़ावा देने वाली फिल्मों, वेब सीरीज व खबरों पर गंभीर चर्चा की गई. प्रियंका खेर ने बताया, "जेंडर वायलेंस को जस्टिफाई करने के लिए फिल्में और वेब सीरीज के माध्यम से ऐसा कंटेंट परोसा जा रहा है, जो लोगों की मानसिकता को प्रभावित कर रहा है. कबीर सिंह फिल्म में शाहिद कपूर अपनी गर्लफ्रेंड को थप्पड़ मार देता है और उसे बहुत ही ग्लैमराइज करके दिखाया जाता है. जिसका असर यह होता है लड़कों को लगता है कि अगर शाहिद कपूर मार सकता है तो मैं भी मार सकता हूं."
दूसरी बात जेंडर वायलेंस को लेकर समाज के अंदर एक मानसिकता है कि यह तो आम बात है, जबकि यह आम बात नहीं है. हिंसा किसी भी तरह से सामान्य नहीं हो सकती.