जिन करोड़ों लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ी- उनके नेताओं यानी गांधी, नेहरू, पटेल, बोस, अंबेडकर, मौलाना आजाद, राजेंद्र प्रसाद, राजकुमारी अमृत कौर, राजगोपालाचारी, लोहिया, संजीवैया, आचार्य नरेंद्रदेव, कृपलानी, जेपी आदि ने आजादी मिलने के बाद आखिर अंग्रेजी राज से जुड़े सभी प्रतीक और चिन्ह, सारे नाम क्यों नहीं मिटा दिए? गुलामी के उस काल में शासक और शोषण दोनों की भाषा अंग्रेजी थी- हमारे नीति नियंताओं ने आजाद भारत में अंग्रेजी पर बैन क्यों नहीं लगा दिया?
पहले तो पूरा देश ही अंग्रेजों के हाथ में था, तो यह सर्वविदित है कि आजादी मिलने के बाद बहुत सारे प्रतीकों, चिन्हों, नामों को बदला गया. मगर बहुत से खास प्रतीक या संस्थान नहीं भी बदले गए. आखिर क्यों?
सैकड़ों दिन अंग्रेजों की जेलों में बिताने वाले, हर तरह का दमन सहकर भी जिनका साहस नहीं टूटा और आजादी की लड़ाई को मजबूत करने वाले उन महान नेताओं से क्या ये आज के सत्ताधारी ज्यादा देशभक्त हैं?
देश का संविधान, भविष्य की दिशा, लोकतंत्र की बुनियाद, इतिहास और परंपरा का पाठ करने वाली संविधान सभा में इस मुद्दे पर कैसी बहसें हुई थीं?
आगे लिखने से पहले एक ऐतिहासिक सत्य जरूर याद रखें और इसकी रोशनी में इन छद्म राष्ट्रवादियों द्वारा हमेशा कायरता की शाल ओढ़े इन व्यक्तित्वों का मनोजगत समझें.
जब एक कठिन, कठोर और विकराल शत्रु के खिलाफ संघर्ष करने वाली देशभक्ति की परीक्षा चल रही थी तब सावरकर, मुंजे, हेडगेवार, बाबाराव और गोलवलकर में से कोई अंग्रेज बहादुर को ताउम्र रानी विक्टोरिया के ताज का वफादार रहकर युवा हिंदुस्तानियों को आजादी की लड़ाई, कांग्रेस के रास्ते से भरसक दूर रखने और अंग्रेज बहादुर की “बांटो और राज करो” नीति के तहत मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं को भड़काने का हलफनामा दे रहा था, तो कोई जर्मनी और इटली घूमकर हिटलर और मुसोलिनी से अंधराष्ट्रवाद, श्रेष्ठता, अन्य धार्मिक अस्मिताओं का दानवीकरण, गुप्त आपराधिक साजिशों को अंजाम देने का फासीवादी गुर सीख रहा था.
इनका मकसद एक था भारत के अंदर अपनी जाति विशेष के राज को स्थापित करना- जिसे ये पेशवाई कहकर याद करते थे. अंग्रेज इनकी हरकतों को हमेशा बढ़ावा देते थे और इनकी रक्षा करते थे.
आजादी आई तो कुछ ताजा जख्म भी थे, मगर देश में बहुत उत्साह था. देशभक्त और सच्ची राष्ट्रवादी भावना भारत से भूख, बेकारी, गरीबी, बीमारी का जुआ उतार कर उसे तरक्की, उद्योग, विज्ञान, शिक्षा और अच्छी सेहत और संपन्नता की ओर ले जाने के लिए प्रतिबद्ध थी. देश इस भावना के साथ था.
देश गुलामी के अतीत की धूल झाड़कर आगे बढ़ने लगा. देश के रहनुमाओं ने तय किया कि स्याह हो या सफेद- चूंकि जो इतिहास में हो चुका है, उसे बदला नहीं जा सकता, इसलिए ऐतिहासिक महत्व की चीजों को बरकरार रखा जाएगा, क्योंकि इतिहास से सबक लिया जाता है, इतिहास से हिसाब बराबर नहीं किया जाता है. सबक ये था कि हम आजाद हों, खुदमुख्तार हों, एकजुट हों और आत्मनिर्भर हों.
पंचवर्षीय योजनाएं बनने लगीं. कृषि विकास, औद्योगिक विकास व आर्थिक विकास को लेकर नीतियां बनने लगीं. बड़े-बड़े संस्थान बनाए गए. बांध बने, पुल बने, अस्पताल बने, स्कूल बने, दर्जनों विश्वविद्यालय बने और यह सिलसिला 70 साल तक चला जिसे विस्तार से गिनाने का मतलब है ग्रंथ लिखना. लब्बोलुआब यह है कि देश की प्राथमिकता में इतिहास में लौटने की मूर्खता नहीं, भविष्य गढ़ने का स्वप्न था.
गाड़ी चलाते हुए पीछे देखने वाला ड्राइवर गाड़ी को दूर तक नहीं ले जा सकता. अगर एक्सीडेंट होने के बावजूद ड्राइवर सबक नहीं सीख रहा है तो उस गाड़ी और ड्राइवर- दोनों की नियति है मिट जाना. क्या देश का नेतृत्व इससे अलग होता है?