दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.
नुपुर शर्मा के कुकृत्य को लेकर विश्वमंच पर भारत की सामूहिक शर्मिंदगी का यह पहला अवसर है. बीते आठ सालों में इस तरह की शर्मनाक परिस्थियां बारंबार बन रही थीं. लेकिन सरकार सिर्फ चुनावी गुणा-भाग में लगी रही. आज की टिप्पणी में आंख बंद करके कहीं भी फारिग होने की मानसिकता पर विस्तार से बातचीत. यह देखकर आपको लगेगा कि भारत देश नहीं कई युटोपिया है जो बाहरी दुनिया से पूरी तरह असंबद्ध, अलग-थलग और अभेद्य है.
बीते आठ सालों में अलग-अलग मानकों पर किरकिरी की 50 के लगभग रिपोर्ट्स या सूचकांक जारी हुए हैं. सबका जिक्र मुनासिब नहीं है. पेगसस जासूसी मामला हो, ओआईसी का बयान हो, जस्टिन ट्रूडो का बयान हो या फिर बुर्का को लेकर कर्नाटक में हुआ विवाद या सीएए एनआरसी. हर बार सरकार का रवैया इसे खारिज करने का, नजरअंदाज करने का, अहंकार, अहमन्यता और दंभ से भरा हुआ था.
यह न तो आदर्शवादी समय है न यहां सिद्धांतवादी सरकार है. खासकर मुसलमानों को यह बात समझनी होगी. यहां अदालतों को ठेंगे पर रखकर सीधे बुलडोजर चलाया जाता है. इसलिए आपकी लड़ाई सत्याग्रह के दायरे में होनी चाहिए. अहिंसा उसका मंत्र होना चाहिए. जुमे की नमाज से निकल कर सीधे पत्थरबाजी और आगजनी करने से एक संदेश मिलता है कि नमाज से हासिल किया गया सबाब अगले ही पल मिट्टी में मिला दिया आपने. विरोध का तरीका लोकतांत्रिक रखना होगा, सरकारे कितनी भी निरंकुश हो जाएं, वो झुकती हैं. आपको बहुत दूर नहीं जाना है, शाहीन बाग इसका चमकता हुआ उदाहरण है. उसकी ताकत है कि आज तक सरकार सीएए लागू नहीं कर पायी है. शायद कभी लागू भी न हो.