दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.
पिछले हफ्ते फिल्मसिटी में अवार्ड की बारिश हुई है. सुनने में आया है कि एक-एक बैरक से खोज-खोज कर पत्रकारों को पुरस्कार दिया गया. विनम्रता और शालीनता के बोझ से दबे आयोजकों ने कहा कि कोई भी पत्रकार पुरस्कृत होने से बच नहीं सकता. खूब चमकदार शाम थी, मशहूर, खूबसूरत चेहरे थे. एक के बाद एक कुल 352 पुरस्कार बंटे. इस पर विशेष नज़र.
बीता हफ्ता एक और वजह से सुर्खियों में रहा. सियासी गलियारों में कांग्रेस और प्रशांत किशोर के असफल गठबंधन को लेकर काफी चर्चाएं रहीं. इसको लेकर तमाम अटकलबाजियां भी हुईं. हम अटकलबाजियों में न पड़कर कुछ अनुत्तरित सवालों की बात करेंगे. इन्हें सिर्फ प्रशांत किशोर ही स्पष्ट कर सकते हैं. अगर एंपावर्ड एक्शन ग्रुप उनके काम को अंजाम तक पहुंचाने में सक्षम नहीं था तो क्या उन्होंने अपने लिए किसी अन्य पद या भूमिका की कल्पना की थी? क्या उन्होंने इसकी मांग कांग्रेस से की?
एक और बात जो कि प्रशांत किशोर की छवि पर नाकारात्मक असर डालती है, वो है कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट, यानी हितों के टकराव का आरोप. एक दिन पहले कांग्रेस के साथ डील टूटी और अगले ही दिन उनकी कंपनी ने तेलंगाना राष्ट्र समिति का चुनावी प्रबंधन अपने हाथ में लेने की घोषणा कर दी. जाहिर है यह डील एक दिन में नहीं हुई होगी. खासकर तब, जब तेलंगाना में कांग्रेस मुख्य विपक्ष दल है, यहां हितों का टकराव दिखता है. इसका जवाब भी प्रशांत किशोर ही दे सकते हैं.