अखबार से शुरू होकर व्हाट्सएप और विभिन्न सोशल मीडिया के अपरान्ह में विचरते हुए आपकी दिनचर्या का सूरज अब टीवी के स्टूडियोज में अस्त हो जाता है.
अपरान्ह होते-होते आप थकने को होंगे. ऊर्जाशोषी होने के कारण घृणा आपको थका देगी. मुमकिन है कि मुक्तिबोध की कहानी ‘क्लाड ईथरली’ के नायक की तरह मध्यवर्गीय अपराध बोध आपको सालने लगे. इस वेला में मन प्रेम और घृणा दोनों से ऊबने की संभावनाएं लिए होता है. यह बात विष-उत्पादकों को पता होती है. इसलिए इस दिनचर्या का अंत जहरखुरानी की सबसे अभूतपूर्व तैयारियों से होता है. अखबार, व्हाट्सएप और इतर सोशल मीडियाओं से होते हुए आपकी दिनचर्या का सूरज अब टीवी के स्टूडियोज में कैद कर लिया जाता है.
यह बेहद दर्द के क्षण होते हैं. वह ठंडाना चाहता है. दिन भर के श्रम से पराभूत हो डूब जाना चाहता है. उसके यह तापीय आग्रह ठुकरा दिए जाते हैं. यह उसके ठंडे होने का पल नहीं है. उसे और जलना है. पर्दों पर ज्वालाएं अवतरित होती हैं. टीवी स्विच और सर्किट खुद को जलने से रोक देने में अपना पूरा यौवन झोंक देते हैं.
इस पल के टेलीविजन यंत्र का तापमान उसे बनाने वाले इंजीनियरों की डिग्रियों का भी टेस्ट होता है. घात-प्रतिघात, थूक-प्रत्थूक, वार-पलटवार, टीवी का पर्दा रोम का कोलेजियम बन जाता है. कत्ल, कत्ल नहीं रहता. मनोरंजन बन जाता है. देश का दर्शक इस वर्चुअल कोलेजियम में प्रवेश पा जाता है. वह रक्तहीन मनोरंजन से घृणा करने लगता है. वह उन्माद चाहता है.
धीरे-धीरे बोलने वाले लोग कायर और रोम के विरोधी लगने लगते हैं. वह सीख नहीं चीख चाहता है. वह हिंसक शर्तों पर मनोरंजित होना चाहता है. एक उच्च तापमान के साथ अंतिम पहर खत्म होता है. अगले दिन के लिए और उच्चतर तापमान हासिल करने की साध लिए. आपके सपनों पर बस इतना तरस खाया जाता है. उन्हें तराइन का मैदान बनने के लिए छोड़ दिया जाता है.
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