सेक्स और सीनियर सिटीजंस के रिश्तों को नॉर्मल करने की ‘बधाई हो’

50 पार की उम्र में सेक्स के लिए न तो कवि हृदय होने की ज़रूरत है, न ही बारिश होने का इंतज़ार करने की, ये दो लोगों के बीच एक मुकम्मल रिश्ता होने का प्रतीक है.

WrittenBy:स्वाति अर्जुन
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1986 का साल था. मैं छोटी सी 7-8 साल की बच्ची थी, हम फ़िल्में वही देखते थे जो मां-पापा दिखा दिया करते थे. उस दिन पापा ने कहा– चलो आज तुम्हें तुम्हारे नाम की फ़िल्म दिखाते हैं. मैं बड़ी उत्साहित हुई और हम फ़िल्म देखने चले गए. फ़िल्म की कहानी ये थी, कि शर्मिला टैगोर फ़िल्म में एक सिंगल मां बनी हैं, जिनकी बेटी मीनाक्षी शेषाद्री है. मीनाक्षी ही स्वाति है. चूंकि, स्वाति और उसकी मां सिंगल मदर हैं, इसलिए फ़िल्म में आसपास के लोग उनसे संबंध नहीं रखते हैं, उन्हें हिकारत भरी नज़र से देखते हैं. स्वाति एक बेहद ही आत्मविश्वासी और दृढ़ता के साथ जीने वाली लड़की थी, जिस कारण भी उसे नापसंद किया जाता था.

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फ़िल्म में जब मीनाक्षी की खुद की शादी की उम्र होती है, तो उसे इस बात की चिंता हो जाती है कि शादी के बाद, उसकी मां का साथ कौन देगा ? इसी चिंता के दौरान उसकी मुलाक़ात शशि कपूर से होती है, जो एक बेहद ही सुलझे हुए विदुर व्यक्ति होते हैं. उनकी भी एक बेटी होती है. वह किरदार माधुरी दीक्षित ने निभाया था. मीनाक्षी काफी कोशिश के बाद पहले शशि कपूर फिर शर्मिला टैगोर को कनविंस करती हैं और उनकी शादी करवाती हैं. अपनी मां को शादी के लिए तैयार करने के दौरान मीनाक्षी उनसे कहती हैं– ‘मैंने अपनी मां को कभी भी एक मुकम्मल जीवन जीते नहीं देखा है, उसे बीच रात में अकेले खिड़की के पास बैठे हुए, करवटें बदलते हुए और कई-कई ग्लास पानी पीते हुए देखा है. मैंने उसे कभी किसी के साथ हंसते-बोलते, अपनी मन की बात बांटते, आईने में खुद को निहारते, चटक रंग की साड़ी पहनते और बड़ी लाल बिंदी लगाते हुए नहीं देखा है. मैंने उन्हें हमेशा से एकाकी जीवन जीते हुए ही देखा है, उन्हें ऐसे देखते हुए मेरे लिए एक शादीशुदा जीवन जीना मुश्किल हो जाएगा.’

और, अंत में शर्मिला टैगोर और शशि कपूर के किरदार की अधेड़ उम्र में उनकी बेटियां शादी करवा देती हैं. इस फ़िल्म को उस समय कई अवार्ड भी दिए गए क्योंकि इसने समाज से जुड़े एक बड़े मुद्दे को उठाया था.

32 साल बाद, एक बार फ़िर से बिना किसी शोर-शराबे के एक फ़िल्म आयी है, जिसने बड़ी ही बारीक तरीके से, समाज की उस सोच पर हमला किया है जिसके बारे में आमतौर पर हम बात करना भी नहीं जानते, चाहना तो दूर की बात है. इस फ़िल्म का नाम है, बधाई हो. फिल्म के मुख़्य कलाकारों में आयुष्मान ख़ुराना, नीना गुप्ता, गजराज राव, सुरेख़ा सीकरी और सान्या मल्होत्रा और शीबा चढ़्ढा हैं.

सेक्स हमारे समाज का वर्जित शब्द है. अगर किसी कुंवारी लड़की के सेक्सुअल संबंध हैं तो वो शादी के लायक नहीं है, उसका कैरेक्टर सही नहीं है. अगर वो 50 के पार की औरत है और इस उम्र में भी वो अपने पति के साथ सेक्सुअली एक्टिव है तो वो बेशर्म है, उसे गंगा में नहाकर खुद को शुद्ध करना चाहिए. तो सवाल ये है कि महिलाओं को अपने सेक्सुअल अधिकारों का इस्तेमाल किस उम्र में करना चाहिए? या फ़िर किन हालातों में?

ये सवाल इसलिए क्योंकि अब तो लड़कियों के लिए शादी की सही उम्र क्या होनी चाहिए, यह कन्सेप्ट भी काफी हद तक बदल चुका है, करियर-पढ़ाई और नौकरी के चक्कर में ये डेडलाइन बढ़कर 35 से 40 के लेपेटे में पहुंच चुकी है. जो बायोलॉजिकल तौर पर प्रजनन के लिए सही उम्र नहीं कही जा सकती है. इसका एक कारण हमारी बदलती हुई लाइफ़ स्टाईल भी है.

तो क्या महिलाओं को सिर्फ़ उसी उम्र तक अपने पार्टनर के साथ यौन संबंध रखने चाहिए, जब तक कि वे बच्चे पैदा करने लायक हों? यानि, उन्हीं शारीरिक संबंधों को सामाजिक मान्यता दी जाएगी जहां रिप्रोडक्शन का उद्देश्य शामिल हो. जहां ये उद्देश्य पूरा नहीं होता है, वो संबंध न सिर्फ अस्वीकार्य होंगे बल्कि उसका मज़ाक भी उड़ाया जाएगा, नीचा दिखाया जाएगा और अगर मुमकिन हो तो उनका बहिष्कार किया जाएगा.

फ़िल्म में ऐसी एक नहीं, कई सामाजिक वर्जनाओं, स्टीरियोटाइप और घिसी-पिटी मान्याताओं का एक-साथ विसर्जन किया गया है. हालांकि, कुछ समय पहले ही इसी विषय को एक अन्य फ़िल्म में भी छुआ गया था, लेकिन उसका तरीका थोड़ा सा अलग था. फ़िल्म थी लिप्स्टिक अंडर माई बुरक़ा.

सेक्सुअल फ्रीडम सिर्फ़ उन महिलाओं या कपल को क्यों मिले जो महानगरों की चकाचौंध भरी जिंदगी जी रहे हैं. जिनका जीवन आजकल की परिभाषाओं के मुताबिक बहुत कठिन और एकाकी है- उन महिलाओं–पुरुषों और कपल को क्यों यह अधिकार न मिले जो किसी छोटे शहर, कस्बे और गांव में अपने बच्चों से दूर, एकाकी जीवन जी रहे हैं. एक शब्द में कहें तो हमारे माता–पिता को क्यों नहीं? हमारे चाचा-चाची, मामा-मामी को क्यों नहीं? हमारा समाज सेक्स या यौन क्रिया को एक बॉक्से में बंद योजना बनाने पर आमादा है.

क्या जो अधेड़ औरतें घर में रहती हैं, जिनके दिन और रात परिवार की देख-रेख में कटते हैं, जो जागरण और जगराते में जाती हैं, जो बूढ़ी सास या ससुर का ख़्याल रखती हैं, जो ढीले-ढाले नाईटी और सलवार-कुर्ते पहनती हैं– उन्हें अपने पति या पार्टनर्स के साथ अंतरंग संबंध स्थापित करने का अधिकार नहीं है?

फ़िल्म में इस विषय से जुड़े पाखंड (हिपोक्रिसी) पर भी तीखा हमला किया गया है.  नीना गुप्ता के किरदार प्रियंवदा की सास सुरेख़ा सीकरी उसके लिपस्टिक लगाने पर आपत्ति करती है, जब घर और पड़ोस की महिलाएं प्रियंवदा को देखकर तो उसका मज़ाक उड़ाती हैं– लेकिन, उन्हीं औरतों के पति, प्रियंवदा के पति यानि गजराव राव को देखकर रश्क़ करते हैं कि वे इस उम्र में भी पिता बनने की काबलियत रखते हैं.

जब आयुष्मान की अपर मिडिल क्लास, वाइन पीने वाली विधवा सास गुस्से में कह जाती है– ‘ठीक है, पैशनेट मोमेंट में ये सब हो जाता है लेकिन प्रीकॉशन क्यों नहीं लिया,’ या जिसकी तस्दीक उसकी बेटी अपने ब्वॉयफ्रेंड से कहते हुए करती है कि– ‘अगर उसकी मां प्रेग्नेंट हो जाती तो ये ज़्यादा दिक्कत की बात होती, क्योंकि उसके तो पापा भी नहीं है.’

फ़िल्म में प्रियंवदा यानि नीना गुप्ता और उनके बेटे नकुल की गर्लफ्रेंड रेनी यानि सान्या मल्होत्रा को छोड़कर, एक भी किरदार ऐसा नहीं था जिसे इस प्रेग्नेंसी से दिक्कत नहीं थी. लेकिन, जिस किरदार को लोगों की परेशानी से बिल्कुल भी परेशानी नहीं थी वो थी प्रियंवदा. उसके लिए न ये शर्म की बात थी कि उसके अपने पति के साथ आत्मीय शारीरिक संबंध है, न ही इस बात से कि वो पचास की उम्र में मां बनने वाली हैं.

इसी तरह रेनी को भी कोई दिक्कत नहीं थी, जो एक पढ़ी लिखी मॉडर्न लड़की होने के नाते इस बात को समझती थी कि अगर उसकी मां की शारीरिक ज़रूरत हो सकती है तो उसकी सास की भी है. उसने अपनी हाई-प्रोफाईल मां और मिडिल क्लास वाली सास में फर्क़ नहीं किया. क्योंकि उसे इस बात का बखूबी अंदाजा है कि चाहे वो हो, उसकी मां हो या उसकी होने वाली सास, सेक्सुअल नीड सबकी एक समान थी. जब उस ज़रूरत ने इन महिलाओं के सोशल स्टेट्स में फर्क़ नहीं किया तो हम या समाज ऐसे क्यों करे?

हम आज भी गांव-देहात में जाएंगे तो पाएंगे कि कई-कई घरों में सास और बहु के बच्चों की उम्र में ज्य़ादा फर्क़ नहीं होता है, कई बार तो बहू के बच्चे, सास के बच्चों से बड़े भी होते हैं. अगर एक माता-पिता की पांच संतानें हैं तो कई दफ़ा पहली और आख़िरी बच्चे के उम्र के बीच 20-22 साल का फर्क़ पाया जाता है. ये सब कुछ बहुत ही सामान्य रहा है.

कई शोध में ये पाया गया है कि गांव-देहात की महिलाओं का यौनिक जीवन शहर की महिलाओं की तुलना में ज्य़ादा एक्टिव रहा है. कम उम्र में शादी होने के कारण वे छोटी उम्र से ही सेक्सुअल कॉन्टैक्ट में आ जाती हैं और ज़्यादा लंबे समय के लिए एक्टिव रहती हैं. ये आंकड़े भी तब हैं जब हमारे गांवों में रहने वाले परिवारों के पुरुष सदस्य अक्सर, काम-काज की खोज में शहरों में आ जाते हैं. मतलब साफ़ है– शारीरिक संबंधों को लेकर हमारे गांवों में स्वीकार्यता, शहरों से ज़्यादा है और वहां महिलाओं की संख्या भी कम नहीं है.

फिर से फ़िल्म स्वाति की तरफ़ चलते हैं– जिसकी नायिका अपनी मां को एक मुकम्मल ज़िंदगी देना चाहती थी. ज़ाहिर है उसमें प्रेमपूर्ण यौनिक संबंध भी शामिल था. बधाई हो फ़िल्म में जब आयुष्मान का किरदार कहता है- ‘क्या ये मम्मी–पापा के करने की चीज़ है’. और रेनी की मां कहती है कि– ‘ये कैसे हो सकता है’

इस पर रेनी कहती है- ‘ठीक वैसे ही जैसे होता होगा!’ ठीक वैसे ही जैसे किसी भी कम उम्र के जोड़ों के बीच संबंध स्थापित होते हैं, वैसे ही हमारे माता–पिता के बीच भी होता है, इसमें न कुछ नया है. न कुछ असामान्य. और हां, इसके लिए हर पचास पार के पुरुष का, आयुष्मान के पिता गजराव राव की तरह– न तो कवि हृदय होने की ज़रूरत है, न ही बारिश होने का इंतज़ार करने की, ये दो लोगों के बीच एक मुकम्मल रिश्ता होने का प्रतीक है– जिसे हमें पूरी इज्ज़त और संवेदनशीलता के साथ स्वीकार कर लेना चाहिए.

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