सोनी सोरी: पुलिस और नक्सलियों को गलत साबित करने में लग गए 11 साल

आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी 11 साल बाद सभी आरोपों से बरी हो गई हैं. उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में अपने इन 11 सालों का दर्द बयां किया है.

WrittenBy:प्रतीक गोयल
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दिल्ली पहुंच कर कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों ने सोरी की जमानत दिलवाने की कोशिश की लेकिन 4 अक्टूबर 2011 को दिल्ली पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. वह कहती हैं, "उस दिन मैं एक सामाज सेवी संस्था में रुकी थी, लेकिन उन लोगों को डर था कि मेरी वजह से उनकी संस्था का नाम बदनाम न हो तो उन्होंने मुझे वहां से जाने के लिए कहा. मैं भी परेशान हो गई क्योंकि जमानत भी नहीं हो पाई थी. मैंने सोचा वापस छत्तीसगढ़ लौट जाती हूं. मैं ऑटो पकड़कर रेलवे स्टेशन की ओर निकली लेकिन आधे रास्ते में ही पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया."

गिरफ्तारी के बाद सोरी को साकेत कोर्ट में पेश किया गया और फिर उसके बाद उन्हें तीन दिन के लिए तिहाड़ जेल भेज दिया गया था. लेकिन फिर बाद में छत्तीसगढ़ पुलिस ने अदालत में उनकी हिरासत के आवेदन पेश किए और अदालत के आदेश पर उन्हें छत्तीसगढ़ पुलिस के हवाले कर दिया गया.

छत्तीसगढ़ आने के बाद सोरी के साथ दंतेवाड़ा पुलिस थाने में अमानवीय बर्ताव किया गया. उनके साथ बर्बरता करते हुए दबाव बनाया जा रहा था कि वो कबूल करें कि वो नक्सलियों के साथ मिली हुई हैं. उन पर कोरे कागज पर दस्तखत करने का दबाव बनाया गया था. उन पर हिमांश कुमार, मेधा पाटकर, स्वामी अग्निवेश, कविता श्रीवास्तव, प्रशांत भूषण जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों को शहरी नक्सल कहने का दबाव बनाया गया. लेकिन पुलिस लॉकअप में अमानवीय टार्चर झेलने के बाद भी उन्होंने कोई झूठे बयान नहीं दिए. उनके गुप्तांगों में पत्थर डाले गए. इस बात का जिक्र बाद में मेडिकल रिपोर्ट में भी आया था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कलकत्ता के एनआरएस अस्पताल में उनका इलाज हुआ था जहां डॉक्टरों ने उनके गुप्तांगो से पत्थर निकाले थे.

सोरी उसके बाद लगभग एक साल रायपुर जेल में रहीं और डेढ़ साल जगदलपुर जेल में रहीं. वह कहती हैं, "मुझे जेल में भी प्रताड़ित किया जाता था. वह लोग मेरे सारे कपड़े उतरवा कर घंटो घंटो बिठा कर रखते थे और महिला पुलिस बेहूदा हरकते करती थीं. ऐसा अक्सर पेशी के पहले किया जाता था. एक बार रायपुर जेल में पेशी पर ले जाने से पहले पुलिस ने मेरे कपड़े इतनी बार उतरवाए कि मैंने विरोध में कह दिया था कि मैं अदालत अब बिना कपड़ो के जाऊंगी और जज साहब से शिकायत करुंगी. उस दिन के बाद से फिर उन्होंने मेरे कपड़े नहीं उतरवाए. ज़ुल्म सहते-सहते हिम्मत आने लगी थी मुझमें. जेल में मुझे कुछ गोलियां (दवाई) भी दी जाती थी. एक समय में मुझे 12 गोलियां दी जाती थीं, पता नहीं वो कौनसी गोलियां थीं लेकिन उसकी वजह से एक नशा सा रहता था.

जगदलपुर जेल में सोनी के साथ उनके पति भी थे. वह कहती हैं, "उनसे मेरी जेल में मुलाकात होती थी. पुलिस मेरे पति को बहुत मारती थी. उनको इतना मारा था कि वो अपाहिज हो गए थे. वो उन पर दबाव बनती थीं कि मैं कबूल करूं कि मैं नक्सलियों की साथी हूं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं-वकीलों को नक्सली बताते हुए बयान दूं. शारीरिक और मानसिक रूप से मेरे पति को पुलिस ने बहुत प्रताड़ित किया. जेल से निकलने के कुछ समय बाद उनकी मौत हो गई. मार की वजह से उनका शरीर खत्म हो गया था. उनके अंतिम संस्कार में शरीक होने की भी इज़ाज़त मुझे नहीं दी गई थी.

गौरतलब है कि अक्टूबर 2011 में सोनी सोरी की गिरफ्तारी के बाद उन पर कुल मिलाकर 6 मुकदमे दायर किए थे. उन पर कुवाकोंडा पुलिस थाने में हमला, सरकारी इमारत में धमाका करने, कांग्रेस नेता अवधेश गौतम के घर पर हमला करने, नेरली घाट में गाड़ियों में आग लगाने, एस्सार प्लांट के निकट पुलिस पर हमला करने जैसे मुकदमे दायर कर दिए थे. साल 2013 तक इन 6 में से 5 मुकदमो में उन्हें दंतेवाड़ा की जिला अदालत ने बरी कर दिया था. साल 2014 में, एस्सार-नक्सली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें स्थायी जमानत दे दी थी और 15 मार्च 2022 को उन पर बचे हुए आखिरी मुकदमे में भी वो बरी हो गईं हैं, जो अस्सल में उन पर सबसे पहले लगाया गया था.

साल 2014 में जमानत पर छूटने के बाद से वह बस्तर में पुलिस और नक्सलियों द्वारा की जा रहीं ज्यादतियों का शिकार हो रहे आदिवासियों के लिए लड़ती आ रही हैं. एस्सार नक्सली मामले में उनके भतीजे लिंगाराम कोडोपी भी बरी हो गए. लिंगाराम को भी पुलिस ने गिरफ्तारी के बाद इतना मारा था कि उनका शरीर में अब भी अकसर दर्द रहता है और शरीर के कुछ हिस्सों से कभी-कभी खून का रिसाव होता है.

सोनी सोरी कहती हैं, "बस्तर में ऐसे बहुत से आदिवासी हैं जो झूठे मामलो में जेलों में बंद हैं. उस इंसान की पूरी जिंदगी पिछड़ जाती है जिसे निर्दोष होने के बाद भी जेल में जाना पड़ता है, पुलिस के अत्याचार को सहन करना पड़ता है. बस्तर में आदिवासियों का शोषण जारी है और जब तक जान है मैं इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाती रहूंगी. दिल्ली जैसे बड़े शहरों में बैठकर लोग नक्सलवाद पर किताबे लिखते हैं, आदिवासियों के नाम पर एक्टिविज्म करते हैं, विदेशों में उनके चर्चे भी होते हैं, मेरी ऐसे उन सब लोगों से गुजारिश है कि वो बस्तर में रहकर आदिवासियों के हकों के लिए लड़ें, क्योंकि जमीनी स्तर पर काम करके ही कुछ हो पाएगा."

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