आधी रात हो चुकी थी, दंतेवाड़ा पुलिस थाने के एक कमरे में मौजूद एक बड़े पुलिस अधिकारी वहां मौजूद दो महिला पुलिसकर्मियों को नसीहत देते हुए कह रहे थे, "आज यहां जो भी होगा इस बात की किसी को भनक नहीं लगनी चाहिए, वर्ना तुम्हारी नौकरी चली जाएगी." इतना कहने के बाद महिला पुलिस को उस कमरे से बाहर जाने का हुक्म दे दिया गया. उनके जाने के बाद वहां मौजूद कुछ पुलिस वालों ने कमरे में मौजूद एक 37 साल की महिला को गंदी-गंदी गालियां देते हुए मारना शुरू किया.
फिर कुछ देर बाद वो पुलिस वाले उसे बिजली के झटके देने लगे. काफी देर तक इस तरह का टार्चर करने के बाद पुलिस वालों ने जबरदस्ती उस महिला के कपड़े उतार दिए. उस महिला को पूरी तरह निवस्त्र करने के बाद पुलिस वाले भद्दी -भद्दी बातें कहने लगे और उसे एक दीवार के सहारे खड़ा कर दिया. जब वह महिला अपने दोनों हाथों से अपना शरीर ढकने की कोशिश कर रही थी, तो पुलिस वाले उनके पास मौजूद बंदूकों से उसके हाथों को हटाते हुए उसकी छाती पर बंदूक की नलियों से मारने लगे और कहने लगे, "हाथ नीचे रखो."
मौके पर मौजूद बड़ा पुलिस अधिकारी गालियां देते हुए कह रहा था, "तेरा शरीर देखकर तो नहीं लगता कि तू इतना सेक्स कर सकती है, कैसे तू नक्सलियों को खुश रखती है, तू बुलाती है ना नक्सलियों को अपने घर. लेकिन शरीर देखकर तो नहीं लगता कि तू उनको खुश कर पाती होगी. शरीर के दम पर आश्रम (आदिवासी बच्चों का हॉस्टल) बचाने की बात करती है. एक दिन में कितने लोगों के साथ करती हो. कुछ देर बाद 4-5 पुलिसवालों ने उस महिला के सामने खुद के कपड़े उतारने शुरू कर दिए. वो उनके सामने गिड़गिड़ा कर रहम की गुहार लगा रही थी. फिर उन लोगों ने उसे जमीन पर पटक कर, उसके दोनों हाथ और पैर पकड़े और उसके गुप्तांगो में पत्थर डाल दिए. कुछ ही देर में वो महिला दर्द से बेहोश हो गई.
यह किसी फिल्म या वेबसीरीज की पटकथा नहीं है, बल्कि एक भयानक हकीकत है जो 9 अक्टूबर 2011 की रात को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में हुई थी. आज 11 साल बाद जिस मामले के तहत पुलिस ने उस महिला को इस तरह प्रताड़ित किया था, उसी मामले में 15 मार्च 2022 को दंतेवाड़ा की एक विशेष अदालत ने उसे बेगुनाह पाते हुए बाइज़्ज़त बरी कर दिया. यह महिला कोई और नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ की जानीमानी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी है और जिस बड़े अधिकारी की शह पर उनके साथ यह बर्बरता हुई थी उसका नाम अंकित गर्ग था, जो उस वक्त दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक थे और अब छतीसगढ़ पुलिस में डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल के पद पर हैं.
सितंबर 2011 में सोनी सोरी और उनके भांजे लिंगाराम कोडोपी पर दंतेवाड़ा पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया था कि एस्सार कंपनी की ओर से उन्होंने नक्सलियों तक 15 लाख रूपए पहुंचाए थे. इसके पहले उन पर नक्सलवाद या अन्य किसी अपराध से जुड़ा कोई भी मुकदमा दायर नहीं था. आज 11 साल बाद इस मामले में वो बाइज़्ज़त बरी हो गईं. आइए समझते हैं कि कैसे एक झूठे मुकदमे और पुलिसिया अत्याचार ने आदिवासी बच्चों के हॉस्टल को संभालने वाली एक मामूली शिक्षिका को आदिवासियों के लिए लड़ने वाली सबसे मुखर आवाज बना दिया.
सोनी सोरी साल 2014 के बाद से अब गीदम में रहती हैं. दंतेवाड़ा, बीजापुर, जगदलपुर, सुकमा या यूं कह लीजिए कि बस्तर संभाग के ग्रामीण इलाकों में जब भी किसी आदिवासी को पुलिस या नक्सलियों द्वारा प्रताड़ित किया जाता है तो सोनी सोरी उसकी मदद के लिए जरूर आगे आती हैं. बस्तर में हजारों की तादाद में निर्दोष आदिवासियों को नक्सली घोषित कर जेलों में कैद किया गया है. नक्सल हिंसा को खत्म करने के नाम पर कई निर्दोषों की हत्याएं भी हुई हैं. जहां एक तरफ उन पर पुलिस और सुरक्षाबल द्वारा अत्याचार होते हैं वहीं दूसरी और नक्सली उन्हें शक की निगाह से देखते हुए पुलिस मुखबिर करार कर बेरहमी से मौत के घाट उतार देते हैं. ऐसे दमन के माहौल में सोनी सोरी पिछले 8-9 सालों से उनके हकों के लड़ाई लड़ती आ रही हैं.
लेकिन एक दौर था जब उनका एक खुशहाल पारिवारिक जीवन था. यह बात साल 2007-08 की है. उन दिनों वो दंतेवाड़ा की कुवाकोंडा तहसील के जबेली गांव में आदिवासी बच्चों के लिए बनाए गए एक हॉस्टल की अधीक्षिका थीं. उनके तीन बच्चे थे और उनके पति अनिल फुटाने भी जिंदा थे. यह वो दौर था जब नक्सलियों का उस क्षेत्र में दबदबा बढ़ता जा रहा था. नक्सलियों द्वारा कई कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की हत्याएं कर दी गई थी और इलाके में स्कूल, हॉस्टल जैसे शैक्षणिक संस्थानों को वो ध्वस्त कर रहे थे. ऐसे ही एक दिन नक्सलियों ने फरमान जारी किया कि सभी हॉस्टल अधीक्षक उनसे आकर जनअदालत में मिलें. यह फरमान सोनी सोरी तक भी पहुंचा था और वो बहुत सहम गई थीं.
न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत के दौरान उस वक्त को वो याद करती हुई कहती हैं, "मैं उस वक्त जबेली के नवीन सयुंक्त आश्रम की अधीक्षक थी. वहां लड़के-लड़की दोनों पढ़ते थे. नक्सलियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था और वह बहुत से स्कूलों को तोड़ रहे थे. मार्च के महीने में उन्होंने जबेली के पास के जंगलों में बुलाया तो पहले तो मैं बहुत डर गई थी. फिर जबेली पंचायत के लोगों ने मुझसे कहा कि नक्सली अगर बुलाते हैं तो जाना पड़ता ही हैं और अगर मुझे उस इलाके में काम जारी रखना है तो जाना भी होगा और ऐसे डरने से काम नहीं चलेगा. लेकिन जब मैं गांव के 3-4 लोगों के साथ वहां पहुंची तो मेरे अलावा अन्य कोई भी हॉस्टल अधीक्षक वहां नहीं आया था. मैं बहुत डरी हुई थी. वहां जनसभा शुरू थी, लगभग 5,000 गांव वाले वहां मौजूद थे. वो पहला मौका था जब मैंने नक्सलियों को आमने-सामने देखा था. मैं लगभग तीन घंटे उस जनसभा में थी. नक्सलियों ने मुझसे कहा कि वो मेरा हॉस्टल और उस इलाके में आने वाले सारे हॉस्टलों को तोड़ देंगे. मैंने बहुत डरते-डरते उनसे पूछा कि वो ऐसा क्यों करना चाहते हैं. उनका जवाब था कि सुरक्षाबल, स्कूलों और हॉस्टलों में आकर रुकते हैं और आदिवासियों को परेशान करते हैं इसीलिए वो उन्हें तोड़ना चाहते हैं."
वह आगे कहती हैं, "मेरी हिम्मत तो नहीं हो रही थी. लेकिन कुछ समय बाद बहुत हिम्मत बटोर कर मैंने उनसे कहा कि वो उनका हॉस्टल न तोड़ें वरना बहुत से आदिवासी बच्चे मुश्किल में आ जाएंगे. मेरे हॉस्टल में बहुत से बच्चे ऐसे थे जो सलवा जुडुम हिंसा का शिकार थे. उनके पास ऐसे हॉस्टलों के अलावा और कोई ठिकाना नहीं था. कुछ देर आपस में चर्चा करने के बाद नक्सलियों ने मुझसे से कहा कि वह मेरा हॉस्टल नहीं तोड़ेंगे बशर्ते पुलिस और सुरक्षाबल वहां कभी नहीं ठहरने चाहिए. उन्होंने यह भी कहा था कि अगर एक बार भी पुलिस वाले हॉस्टल में रुके तो मुझे जनसभा में अधमरा होने तक पीटा जाएगा या फिर मौत के घाट उतार दिया जाएगा. मेरे साथ जो गांव के लोग थे वो भी डर गए थे, वो मुझसे कह रहे थे कि मैं कैसे पुलिस को स्कूल और हॉस्टलों में रुकने से मना करुंगी.
इस वाकिए के बाद नक्सलियों ने सोरी का हॉस्टल तो नहीं तोड़ा लेकिन पुलिस ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया था. वो जब भी जबेली से अपने घर समेली आना जाना करती थीं, तब पुलिस उन्हें रास्ते में रोक कर पूछती थी कि कैसे उन्होंने नक्सलियों से अपनी आश्रमशाला को बचाया जबकि बाकी आश्रमशाला नक्सलियों ने तोड़ दी हैं. पुलिस वाले सोरी से कहने लगे थे कि उनके नक्सलियों से गहरे संबंध और उनके बारे में काफी जानकारी है. वह उनसे कहते कि उन्हें पुलिस के लिए नक्सलियों की मुखबिरी करनी चाहिए .
साल 2010 में नक्सलियों ने कांग्रेस नेता अवधेश गौतम के घर पर हमला कर दिया था जिसमे दो लोगों की मौत हो गई थी. इस मामले में पुलिस ने सोरी के पति अनिल फुटाने को भी गिरफ्तार कर लिया था. गौरतलब है कि तीन साल बाद अदालत ने उन्हें बाइज़्ज़त बरी कर दिया था. लेकिन जब वो जेल से रिहा हुए तब तक उनके आधे शरीर (कमर के नीचे का हिस्सा) को लकवा मार चुका था और रिहा होने के कुछ दिन बाद ही उनकी मौत हो गई थी.
सोरी कहती हैं, "मैं जहां भी जाती थी पुलिस मुझे रोक लेती थी. वो मुझ पर इलजाम लगाते थे कि मेरे नक्सलियों से करीबी संबंध हैं. वो मुझसे कहते थे कि मुझे पुलिस का मुखबिर बनना होगा वरना जैसे मेरे पति को जेल में डाला है वैसे ही वो मुझे भी जेल में डाल देंगे. मैं उन्हें हमेशा समझाती थी कि मेरा नक्सलियों से कोई संबंध नहीं है लेकिन वो मुझे फिर भी परेशान करते रहते थे; साल 2011 में उन्होंने मुझ पर एस्सार की तरफ से नक्सलियों को पैसे पहुंचाने का केस दर्ज करवा ही दिया."
उन दिनों उनके जीवन में चल रही उथल-पुथल के बारे में वह कहती हैं, "मेरे पति को पुलिस ने 2010 में गिरफ्तार किया था. उनको जेल में पुलिस बहुत मारती थी. जब भी मैं उनसे मिलने जाती थी तो वो रोते हुए जेल में उनके साथ हो रहे टार्चर के बारे में बताते थे. जहां एक तरफ पुलिस ने मेरे पति को जेल में बंद कर रखा था, वहीं जून 2011 में नक्सलियों ने बड़ेबिड़मा स्थित मेरे पिता मुंद्राराम सोरी के घर पर हमला बोल दिया था. उनके घर में तोड़-फोड़ करने के बाद उनके पैरों में गोली मार दी थी. वो बच गए थे और दंतेवाड़ा के महारानी अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. मेरे तीन छोटे बच्चे भी थे उनकी देख-रेख भी करनी थी. "
वह आगे कहती हैं, "मेरे पिता पर हुए हमले की शिकायत दर्ज कराने के लिए 9 सितंबर 2011 को मैं और मेरे भतीजे लिंगाराम कोडोपी, अपने वकील से आवेदन लिखवाने के लिए दंतेवाड़ा आए थे. वकील से आवदेन लिखवाने के बाद हमने कुवाकोंडा पुलिस थाने में आवेदन दिया और फिर हम दोनों मेरी मां से मिलने पालनार पहुंचे. मेरी मां ने समोसे खाने की इच्छा जाहिर की तो लिंगा बाजार से समोसे लेने गया. जब वह लौट रहा था तो सादे कपड़ों में पुलिस वाले उसे जबरदस्ती अपने साथ ले जाने लगे. हमने उन्हें बहुत रोकने की कोशिश की लेकिन वो लिंगा को जबरदस्ती अपने साथ उठा ले गए. हम पुलिस के पीछे भी गए लेकिन बहुत पीछे रहे गए. हम नकुलनार और पालनार पुलिस थाने भी गए लेकिन हमें किसी ने कुछ नहीं बताया."
उस दिन लिंगा की तलाश करने के बाद, सोरी शाम को जबेली स्तिथ हॉस्टल में आईं और वहां बच्चों से मिलने के बाद समेली स्थित अपने घर लौट गईं. अगले दिन वह फिर लिंगाराम को तलाशने निकलीं, जब वो पालनार पहुंची तो उनके छोटे भाई ने तत्काल उनके पिता से फोन पर बात करने के लिए कहा. जब उन्होंने अपने पिता को फोन किया तो वो बहुत घबराए हुए थे. वह सोरी से कहीं भाग जाने के लिए कह रहे थे, उनके पिता ने बताया कि एक पुलिस वाले ने उन्हें जानकारी दी है कि पुलिस सोरी को गिरफ्तार करने वाली है. सोरी को तब तक पता ही नहीं था कि पुलिस ने उन पर और लिंगाराम पर नक्सलियों को पैसे पहुंचाने का मामला दर्ज कर लिया था.
सोरी कहती हैं, "मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि पुलिस मुझे क्यों गिरफ्तार करना चाहती है. इसके बाद में वहां से जबेली हॉस्टल पर आई, फिर वहां से जब मैं समेली अपने घर जा रही थी, तब कुछ गाय चराने वाले बच्चे भाग रहे थे. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या हुआ तो वो बोले कि बहुत सारे पुलिस वाले उनकी तरफ आ रहे हैं. यह सुनते ही मैं वापस जबेली की तरफ लौटने लगी, मैं हॉस्टल नहीं गई लेकिन वहां से गुजरते हुए जंगल में चली गई. मुझे डर लग रहा था कि इतनी सारी पुलिस क्यों आ रही है. मैं तो हॉस्टल नहीं गई लेकिन पुलिस ने हॉस्टल पर धावा बोल दिया था."
वह आगे कहती हैं, "पुलिस ने हॉस्टल से निकलकर जंगल का रुख किया और जिस इलाके में मैं छुपी थी वहां कुछ देर तक वो अंधाधुन फायरिंग करते रहे. मेरी किस्मत थी कि मुझे गोली नहीं लगी. मुझे आज भी वो जगह याद है. सुबह पांच बजे तक मैं वहीं जंगल में छुपी रही और फिर 15 किमी पैदल चलकर अपने पैतृक गांव बड़ेबिड़मा पहुंची. बड़ेबिड़मा के हमारे घर को भी नक्सलियों ने तहस नहस कर दिया था. सुबह हॉस्टल के चपरासी मुझे ढूंढ़ते हुए गांव पहुंचे, उन्होंने बताया कि पुलिस ने उन्हें बहुत पीटा है, बहुत से बच्चों के साथ भी मारपीट की, सलवा जुडुम हिंसा के शिकार तकरीबन 50 बच्चे डर के मारे जंगल में भाग गए थे."
गौरतलब है कि बड़ेबिड़मा में वो 11 सिंतबर को पहुंची थीं. तब तक अखबारों में उनके बारे में खबरें आने लगी थीं कि वो एस्सार ग्रुप की तरफ से नक्सिलयों को पैसे पहुंचाती हैं. 3-4 दिन बाद नक्सलियों ने ग्रामीण इलाके में बैठक बुलाई और कहा कि सोनी सोरी उनके नाम पर पैसे खा रही है. उन्होंने एलान किया कि सोरी को जनअदालत में पेश किया जाए और जो भी उन्हें पनाह देगा उसे नक्सली सजा देंगे. इस वाकिए के बाद सोरी जिनके घर में छिप कर रह रही थीं उन्होंने सोरी को वहां से तुरंत निकल जाने की सलाह दी क्योंकि पुलिस और नक्सली दोनों से उनकी जान को खतरा था.
सोरी कहती हैं, "मैं बुरी तरह फंस गई थी. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. फिर मैंने दिल्ली में समाजसेवी हिमांशु कुमार से मदद मांगी. उन्होंने मुझसे किसी भी तरह से दिल्ली पहुंचने के लिए कहा, लेकिन मुझे नहीं पता था कि मैं वहां कैसे पहुंचू. उस रात मैं उस घर से निकलकर गांव के दूसरे पारा (मोहल्ले) में पहुंची. वहां एक बुज़ुर्ग विधवा महिला ने मुझे पनाह दी, मैं दिनभर घर में बंद रहती थी और सिर्फ रात को ही बाहर निकलती थी. मैंने खाना-पीना भी बिलकुल कम कर दिया था, जिससे दिन में शौच न जाना पड़े. फिर 3-4 दिन बाद कुछ लोगों को पता चला तो उन्होंने उस बुज़ुर्ग महिला को डराना शुरू किया कि पुलिस और माओवादी उसे मार देंगे. एक दिन जब उस महिला ने रोते हुए मुझे इस बारे में बताया तो मैंने वहां से निकलने का फैसला लिया.
इस वाकिए के बाद सोरी रात को तकरीबन दो बजे उस बुज़ुर्ग महिला के घर से निकल गईं. वह कहती हैं, "कुछ 4-5 लोगों ने मेरी वहां से निकलने में मदद की. कोरीरास नाला कंधे तक भरा हुआ था लेकिन उन लोगों की मदद से मैंने वो नाला पार किया. नाला पार करने के बाद एक मोटरसाइकल पर मैं तकरीबन चार बजे एक रिश्तेदार के घर मुखपाल गांव पहुंची. वहां जाकर मैंने पूरी आदिवासी वेशभूषा पहनी और फिर सुकमा की तरफ मोटरसाइकल पर निकली. सुकमा पहुंचने के बाद एक गाड़ी में बैठकर मैं ओडिशा के मलकानगिरी होते हुए विशाखापट्नम पहुंची, रास्ते में दो जगह पुलिस वालों ने रोका लेकिन जाने दिया. विशाखापट्नम पहुंच कर एक दिन मैंने स्टेशन पर ही बिताया. स्टेशन पर भी जब पुलिस दिखती थी तो मैं अखबार से अपना मुंह छुपाने की कोशिश करती थी. बहुत डर लग रहा था. अगले दिन मैं ट्रैन पकड़ कर दिल्ली के लिए रवाना हो गई. उस दिन मैं जीवन में पहली बार ट्रैन में बैठी थी"