'पक्ष'कारिता: पत्रकारों पर हमला हिंदी अखबारों के लिए खबर क्‍यों नहीं है?

कानपुर में हमले का शिकार हुए दोनों रिपोर्टरों की खबर को खुद उन्‍हीं के अखबार दैनिक जागरण ने नहीं छापा.

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बीते शुक्रवार 11 फरवरी की रात दैनिक जागरण कानपुर के खेल संवाददाता अंकुश शुक्‍ला अपने चीफ रिपोर्टर दिग्विजय के संग काम से वापस घर लौट रहे थे. रास्‍ते में एक इनोवा कार ने उनकी बाइक को टक्‍कर मार दी. उन्‍होंने विरोध किया, तो उनके ऊपर इनोवा चढ़ाने की कोशिश की गई. उसके बाद असलहों से लैस कोई दर्जन भर लोगों ने दोनों को लाठी डंडे और लात-घूंसों से जमकर पीटा. फिर वे लैपटॉप और सोने की चेन लूटकर फरार हो गए. पूरी घटना सीसीटीवी में कैद हुई. बाल-बाल दोनों की जान बची.

इस घटना के ठीक तीसरे दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कानपुर पहुंचे. भारतीय जनता पार्टी की एक चुनावी रैली में 14 फरवरी को उन्‍होंने माफियाओं से मुक्ति के लिए समाजवादी पार्टी को वोट न देने का आह्वान करते हुए पत्रकारों पर हमले के 'कई' वीडियो की याद जनता को दिलाई और हमलावरों को ''इनके गुंडों'' कह कर संबोधित किया (वीडियो नीचे).

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''इनके'' से उनका आशय समाजवादी पार्टी से ही था. वैसे, मोदी ने किसी पत्रकार का नाम नहीं लिया इसलिए पक्‍के तौर से नहीं कहा जा सकता कि वे किस वीडियो का जि़क्र कर रहे थे लेकिन नवभारत टाइम्‍स के पत्रकार प्रवीण मोहता की मानें तो उनका आशय कानपुर में 11 फरवरी की रात दैनिक जागरण के दो पत्रकारों पर हुए हमले से ही था.

अगर यह वाकई सच है, तो सवाल उठता है कि इस केस में उन्‍होंने समाजवादी पार्टी की संलिप्‍तता कैसे सूंघ ली जबकि पुलिस का ऐसा कोई आधिकारिक बयान अब तक नहीं आया है. अगर उनका आशय कानपुर हमले से नहीं था बल्कि किसी और केस से था, तब भी सवाल उठता है कि क्‍या पत्रकारों पर हमले का मामला अब कानून व्‍यवस्‍था की दृष्टि से नहीं बल्कि हमला करने वाले की राजनीतिक सम्‍बद्धता के चश्‍मे से देखा जाएगा? अगर ऐसा ही है, तब तो ''उनके गुंडों'' की शिनाख्‍त भी करनी पड़ेगी और भाजपा यहां पक्‍का फंस जाएगी. कैसे?

इस पर आने से पहले यह जानना जरूरी है कि इसी सभा में यूपी के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ ने समाजवादी को 'तमंचावादी' करार देते हुए तंज किया था. उन्‍होंने कहा कि कानपुर में तमंचे के कारखाने हुआ करते थे जबकि भाजपा ने यहां डिफेंस कॉरिडोर बनवा दिया है. जब वे यह बयान दे रहे थे उस वक्‍त ट्विटर पर एक वीडियो लहरा रहा था जिसमें अंकुश शुक्‍ला को तमंचे की बट से मारे जाने का दृश्‍य था.

हो सकता है कि कानपुर में 11 फरवरी की रात लहराया ये तमंचा 2017 से पहले का रहा हो, लेकिन दैनिक जागरण में छपी तमंचे के कारखाने पर छापे की खबर (नीचे ट्वीट) का क्‍या करें जिसे समाजवादी पार्टी की एक प्रवक्‍ता ने सरेआम चिपका दिया है! तमंचे का कारखाना पकड़ा गया मने तमंचा तो अब भी बन ही रहा है! बस फर्क इतना आया है कि तमंचे का कारखाना कानपुर से लखनऊ शिफ्ट हो चुका है! और खबर खुद जागरण ने छापी है, तो सरकार लेफ्ट-राइट भी नहीं कर सकती!

वैसे अकेले कानपुर ही क्‍यों, अभी पिछले ही महीने गणतंत्र दिवस के दिन सहारनपुर में एक पत्रकार सुधीर सैनी को दिनदहाड़े सड़क पर पीट कर जान से मार दिया गया था. सुधीर दैनिक शाह टाइम्‍स में काम करते थे. वे भी शुक्‍ला की तरह बाइक से जा रहे थे और एक चारपहिया गाड़ी में सवार तीन लोगों ने उन पर हमला किया था. यह उत्‍तर प्रदेश में 2022 में पत्रकार हत्‍या का पहला केस है, जिस पर जिनेवा के प्रेस एम्‍बलम कैम्‍पेन ने 13 फरवरी को एक औपचारिक बयान जारी किया है.

क्‍या मोदी उसी कानपुरिया आत्‍मविश्‍वास से कह सकते हैं कि सुधीर सैनी की हत्‍या ''इनके गुंडों'' ने की? क्‍या इस हत्‍या को कानून व्‍यवस्‍था से इतर किसी और चश्‍मे से दिखाकर योगी सरकार की नाकामी को छुपाया जा सकता है?

क्‍या ही दिलचस्‍प मामला है कि कानपुर में हमले का शिकार हुए दोनों रिपोर्टरों की खबर को खुद उन्‍हीं के अखबार दैनिक जागरण ने नहीं छापा, लेकिन हमले के एक दिन पहले कानपुर जागरण ने जो छापा (नीचे ट्वीट), क्‍या उसे किसी और चश्‍मे से जनता को दिखाने की सहूलियत मोदी के पास है (जो लगातार योगी को यूपी के लिए 'उपयोगी' ठहराते नहीं अघा रहे)?

अब ये तो संजय गुप्‍ता ही जानें कि वे योगीराज में ऐसी दर्दनाक घटनाओं को क्‍यों छाप रहे हैं, लेकिन योगी और मोदी दोनों को कुछ नहीं तो कम से कम दैनिक जागरण पढ़ना ही चाहिए.

लॉ एंड ऑर्डर का सफेद झूठ

जागरण में प्रकाशित नृशंस अन्‍याय की ऐसी घटना योगीराज में आम है. हाथरस से उन्‍नाव तक ऐसी भयावह घटनाएं अखबारों में छपती रही हैं. इसके बावजूद जब इस देश का प्रधानमंत्री खुद कथित माफियाराज के खिलाफ अपनी चुनावी बंदूक पीड़ित पत्रकारों के कंधे पर रखकर चला रहा हो, तब यह बताना ज़रूरी हो जाता है कि योगीराज में 2017 से लेकर अब तक कुल 12 पत्रकार इस सूबे में मारे जा चुके हैं. और यह सब योगी आदित्‍यनाथ के कठोर कानूनी राज में घटा है. मोदीजी बेहतर बता सकते हैं कि इन 12 पत्रकारों को ''किनके'' गुंडों ने मारा है.

पांच साल में इन 12 पत्रकारों की हत्‍या की खबर आपको हिंदी के अखबार कतई नहीं देंगे. वे यह भी नहीं बताएंगे कि पांच साल के 'दंगामुक्‍त' योगीराज में पत्रकारों पर हमले के कुल 138 मामले दर्ज किए गए जिनमें पत्रकारों पर मुकदमे, उनकी गिरफ्तारी, हिरासत, जासूसी और धमकी के मामलों की संख्‍या 78 है. ऐसा नहीं है कि योगीजी की कानून व्‍यवस्‍था शुरू से ऐसी चुस्‍त-दुरुस्‍त थी. मार्च 2020 में कोरोना के चलते लगाए गए लॉकडाउन के बाद बीते महामारी के दो वर्ष अकेले 78 फीसदी हमलों के लिए जिम्‍मेदार रहे. मतलब लोग जब घरों में कैद थे, बाहर पुलिस का डंडा आवारा हो गया था.

2019 में पत्रकारों पर हुए कुल हमलों (19) से अचानक 2020 में 250 गुना उछाल देखा गया. यह उछाल 2021 में मामूली बढ़ोतरी के साथ जारी रहा. 2017 और 2018 में केवल दो-दो केस से तुलना करें तो पत्रकारों पर हमले में करीब हजार गुना उछाल दिखाई देता है.

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ये आंकड़े बीते 9 फरवरी को पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति (CAAJ) ने उत्‍तर प्रदेश पीयूसीएल (पीपुल्‍स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़) के साथ मिलकर जारी किए हैं. करीब 80 पन्‍ने की इस रिपोर्ट का शीर्षक है ''मीडिया की घेराबंदी: उत्‍तर प्रदेश में मीडिया के दमन की दास्‍तान''.

अब तक यह रिपोर्ट अंग्रेजी, हिंदी, बांग्‍ला, पंजाबी के करीब दर्जन भर मीडिया मंचों पर छप चुकी है, लेकिन हिंदी के किसी भी बड़े अखबार ने इसे छापने की ज़हमत नहीं उठाई है. हां, अंकुश शुक्‍ला और दिग्विजय पर हमले की खबर जाने कैसे कानपुर के अमर उजाला और हिंदुस्‍तान ने छाप दी (वो भी बिना नाम लिए), वरना जागरण तो खुद के मुलाजिमों से ही गद्दारी कर गया.

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हो सकता है स्‍थानीय प्रतिद्वंद्विता के चलते यह खबर अमर उजाला और हिंदुस्‍तान में छप गई हो, वरना एक पत्रकार को मनुष्‍य मानने की न्‍यूनतम नैतिकता भी इन अखबारों के पास नहीं बची है. इस देश के प्रधानमंत्री को जिस तरह पत्रकारों के ऊपर हमला कानून व्‍यवस्‍था की नाकामी के बजाय ''किसी की गुंडई'' का मामला लगता है ठीक उसी तर्ज पर हिंदी के अखबारों को एक पत्रकार गुंडा या दबंग लग सकता है. इसकी वजह बस इतनी है कि पत्रकारों के उत्‍पीड़न पर पत्रकार खुद पीड़ित पत्रकार का पक्ष नहीं लेते हैं बल्कि पुलिस के बयान के आधार पर खबर लिख देते हैं.

इसका सबसे ताजा उदाहरण गाजियाबाद से समाचार पोर्टल जनज्‍वार चलाने वाले पत्रकार अजय प्रकाश मिश्र का है जिनके ऊपर चुनाव कवरेज के दौरान 7 फरवरी 2022 को उत्‍तराखंड के उधमसिंह नगर में एक आरटीओ अधिकारी ने एफआईआर करवा दी. सड़क पर व्‍यावसायिक नंबर वाले वाहनों को जबरन रुकवा कर चुनावी ड्यूटी में लगाने जैसी एक रेगुलर कार्रवाई मुकदमे तक कैसे पहुंच गई, इसे समझना हो तो स्‍थानीय अखबारों में अगले दिन छपी खबर को देखा जा सकता है जिसमें पत्रकारों को पत्रकार तक नहीं लिखा गया है, बल्कि 'तीन व्‍यक्ति' और 'दबंग' लिखा गया है. हिंदुस्‍तान, अमर उजाला और दैनिक जागरण तीनों की खबरों में लिखा है कि तीन व्‍यक्तियों ने परिवहन अधिकारी के साथ दुर्व्‍यवहार किया.

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अखबारों में काम करने वाले पत्रकार अब घटनाओं को प्रशासन और मालिकान की नजर से देखने और लिखने लगे हैं, यह जानते हुए कि वह सफेद झूठ होगा. यही वजह है कि जागरण कानपुर के संपादक जितेंद्र शुक्‍ला अपने ही चीफ रिपोर्टर और खेल रिपोर्टर की खबर नहीं छाप सके, तो अजय प्रकाश की मदद के लिए निजी रूप से आगे आए हिंदुस्‍तान के स्‍थानीय संपादक खुद अपने अखबार में पत्रकार को पत्रकार नहीं लिखवा सके.

सत्‍ता के केंद्र का अंधेर

जाहिर है, ऐसे दबाव में पांच साल के राज में पत्रकारों पर हुए हमलों का आंकड़ा छापना खुद अखबारों की सेहत के लिए हानिकारक साबित हो सकता था. इसलिए किसी ने भी काज और पीयूसीएल की रिपोर्ट नहीं छापी. योगी आदित्‍यनाथ के शासनकाल में कानून व्‍यवस्‍था की वास्‍तविक स्थिति को समझना हो तो यह रिपोर्ट पढ़ी जानी चाहिए.

न्‍यूज़क्लिक के पत्रकार साथी पीयूष शर्मा ने बड़ी मेहनत से पत्रकारों पर हमले के आंकड़ों को उत्‍तर प्रदेश के मानचित्र में जिलावार फिट करके एक अहम तस्‍वीर उभारी है. इसे समझा जाना चाहिए.

इस नक्‍शे पर नजर डालते ही एक तथ्‍य साफ हो जाता है- पत्रकारों पर हमलों की सघनता सबसे ज्‍यादा तीन क्षेत्रों में है. एक क्षेत्र राजधानी लखनऊ और उसके आसपास के इलाके मसलन कानपुर, बाराबंकी, फतेहपुर, सीतापुर और उन्‍नाव है. दूसरा क्षेत्र बनारस और उसके आसपास के जिले जैसे मिर्जापुर, सोनभद्र, संत रविदास नगर आदि हैं. इन दोनों क्षेत्रों को प्रतापगढ़, इलाहाबाद और कौशाम्‍बी जोड़ कर एक पट्टी निर्मित करते हैं. इस तरह हम पाते हैं कि उत्‍तर प्रदेश में पत्रकारों पर हमले की एक लंबी पट्टी शाहजहांपुर-पीलीभीत यानी तराई से शुरू होकर पूर्वांचल तक आती है. यही पट्टी आगे बिजनौर, सहारनपुर और मुरादाबाद से जुड़ते हुए नोएडा तक पहुंचती है. हमलों की सघनता वाला तीसरा क्षेत्र विस्‍तारित राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र का है जिसमें गौतमबुद्ध नगर, गाजियाबाद, अलीगढ़, मेरठ आदि जिले शामिल हैं.

हमला सघन तीनों इलाके राजनीतिक रूप से संवेदनशील हैं और सत्‍ता का केंद्र भी हैं. बनारस से नरेंद्र मोदी खुद सांसद हैं. लखनऊ सूबे की राजधानी है. नोएडा आदि दिल्‍ली का विस्‍तार हैं. यह संयोग नहीं है कि रिपोर्ट में दर्ज कुल 138 प्रकरणों में 78 यानी आधे से ज्‍यादा केस कानूनी हैं जिनमें राज्‍य की पुलिस की प्रत्‍यक्ष भूमिका है. इसका मतलब सीधा सा यह निकलता है कि जहां-जहां सत्‍ता की हनक है वहां-वहां पत्रकारों का दमन किया गया है. इसमें पत्रकारों के ऊपर महामारी अधिनियम के तहत नोटिस से लेकर राजद्रोह तक के मुकदमे शामिल हैं. शिकार किए गए पत्रकारों का दायरा भी काफी बड़ा है, जिनमें कुछ तो राष्‍ट्रीय मीडिया संस्‍थानों के संपादक तक हैं, मसलन मृणाल पांडे से लेकर जफर आगा, विनोद के. जोस, अनंत नाथ, राजदीप सरदेसाई और सिद्धार्थ वरदराजन.

हत्‍या के बाद यदि संख्‍या और गंभीरता के मामले में देखें तो कानूनी मुकदमों और नोटिस के मामले 2020 और 2021 में खासकर सबसे संगीन रहे हैं. उत्‍तर प्रदेश का ऐसा कोई जिला नहीं बचा होगा जहां पत्रकारों को खबर करने के बदले मुकदमा न झेलना पड़ा हो. जरूरी नहीं कि खबर बहुत बड़ी और खोजी ही हो- सामान्‍य चिकित्‍सीय लापरवाही की खबर से लेकर क्‍वारंटीन सेंटर के कुप्रबंधन और पीपीई किट की अनुपलब्‍धता जैसे मामूली मामलों पर भी सरकार की ओर से एफआईआर दर्ज की गई हैं. मिड डे मील नमक रोटी परोसे जाने, लॉकडाउन में मुसहर समुदाय के बच्‍चों के घास खाने से लेकर स्‍कूल में बच्‍चों से पोछा लगवाने जैसी खबरों पर बाकायदा प्रतिशोधात्‍मक रवैया अपनाते हुए मुकदमे किए गए.

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अखबारों की जवाबदेही

नरेंद्र मोदी की मानें तो जिस सत्‍ता ने यह हरकत की है, वह ऐसा कर के यूपी के जिलों को 'माफियागंज' बनने से रोक रही है. मुख्‍यमंत्री की मानें तो यह 'आतंकमुक्‍त और दंगामुक्‍त' यूपी की छवि है, यही विकास है. बेशक, पिछली कोई भी सरकार दिल्‍ली के संपादकों का गिरेबान नहीं पकड़ सकी थी. ऐसा विकास तो भाजपा के राज में ही हुआ है. इसकी वजह बहुत साफ है. हिंदी के अखबारों ने खुद को अखबार और अपने कलमनवीसों को पत्रकार मानना छोड़ दिया है. जब अखबार अपने ही मार खाए पत्रकारों को यतीम छोड़ दें, तब सत्‍ता उनका मनचाहा इस्‍तेमाल करेगी ही.

कानपुर देहात की रैली में मोदी ने एक और बात कही थी- पत्रकार पर हमला इसलिए हुआ क्‍योंकि उसने सच लिखा. ऐसा कह कर उन्‍होंने न सिर्फ उत्‍पीड़ित पत्रकार को बल्कि उसके लिखे सच को भी अपने झूठ के हक में जनता के बीच सरेआम बेच दिया. साथ ही उन तमाम लोगों के पैरों के नीचे से कालीन खींच ली जो पत्रकारों पर हमले के खिलाफ बोलते रहे हैं. वे जानते हैं कि वे ऐसा कह कर आसानी से निकल सकते हैं और अगले दिन कोई भी हिंदी अखबार इस बयान का जिक्र तक नहीं करेगा क्‍योंकि इस देश में पत्रकारिता का सच सत्‍ता के झूठ तले कब का दबाया जा चुका है.

''इनके गुंडे'' अपनी जगह, ''उनका राज'' अपनी जगह, लेकिन दोषारोपण की राजनीति से इतर ऐसा लगता है कि पत्रकारों पर हमले का पहला भागी अखबारों को ही ठहराया जाना चाहिए. अखबार अब भी लिखना शुरू कर दें तो शायद हमले थम जाएं.

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