मंत्रालय के अधिकारी भी इस एडवाइजरी से अनजान थे लेकिन भुगतान संकट का हंगामा मचने पर मंत्रालय की वेबसाइट से इस एडवाइजरी को चुपचाप हटा लिया गया है.
टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के नितिन धाकतोड़े ने वर्ष 2017-18 में तेलंगाना में इस संबंध में एक अध्ययन किया है. अपनी रिपोर्ट ‘कॉस्ट इन मनरेगा वर्क्स एंड सोशल ऑडिट’ में वे बताते हैं कि हालांकि सरकार द्वारा मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी 202 रुपये प्रतिदिन है, लेकिन पिछड़ा वर्ग मजदूरों को औसतन 172 रुपये, अनुसूचित जाति के मजदूरों को 155 रुपये तथा धार्मिक अल्पसंख्यक मजदूरों को औसतन केवल 123 रुपये प्रतिदिन ही मजदूरी मिली. तेलंगाना के बाथ मंडल की सोनाला पंचायत में मजदूरों को औसतन केवल 153 रुपये प्रतिदिन ही मजदूरी मिली और कुछ मजदूरों को तो केवल 86 रुपये ही मजदूरी मिली. समाज के जातिक्रम में जो जितना नीचे था, वह मजदूरी से उतना ही ज्यादा वंचित था.
साफ है कि यह रिपोर्ट पंचायतों में जातिगत प्रभाव को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है, लेकिन यह वंचना किसी राज्य के किसी पंचायत तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका विस्तार पूरे देश के सभी पंचायतों तक है. प्रख्यात अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के अध्ययन के अनुसार झारखंड राज्य में मनरेगा कार्यों में एसटी-एससी समुदाय के लोगों की भागीदारी लगातार घट रही है. वर्ष 2015-16 में इन दोनों समुदायों की भागीदारी 51.20 फीसद थी, जो घटकर वर्ष 2019-20 में महज 35.79 फीसद रह गयी. मोदी सरकार की यह एडवाइजरी और फंड आवंटन नीति इस वंचना को और बढ़ाएगी.
दलित मानवाधिकारों पर राष्ट्रीय अभियान के विश्लेषण के अनुसार अनुसूचित जाति के लिए वर्ष 2014-19 के बीच सरकारी खर्च केवल 3.1 लाख करोड़ रुपये ही था, जबकि इस समुदाय के लिए कुल 6.2 लाख करोड़ रुपये ही आवंटित किये गये थे. इसी प्रकार, इसी समयावधि के लिए अनुसूचित जनजाति के लिए आवंटित 3.28 लाख करोड़ रुपये के विरुद्ध केवल दो लाख करोड़ रुपये ही खर्च किये गये. यह है केंद्रीय स्तर पर अजा-जजा उपयोजना की स्थिति!
इसलिए यह दावा कि यह एडवाइजरी दलित-आदिवासी समुदाय के हित में है, बेहद बचकाना है. संभावना यही ज्यादा है कि श्रेणीगत आवंटन के बाद फंड की कमी का रोना रोकर या फिर जान-बूझकर गैर-कानूनी तरीके से इन तबकों के मजदूरों को रोजगार से वंचित करने का खेल खेला जाएगा.
पिछले वर्ष मोदी सरकार को मनरेगा के लिए 1,11,500 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े. कोरोना महामारी और इसके कारण गांवों में अपने घर वापस पहुंचे करोड़ों अतिरिक्त लोगों को काम देने की जरूरत होने के बावजूद इस वित्त वर्ष में केवल 73000 करोड़ रुपये ही आवंटित किये गये हैं. आज भी जरूरतमंद ग्रामीण परिवारों को न्यूनतम 100 दिनों की जगह औसतन केवल 46 दिन ही काम मिल रहा है. ऐसे में श्रेणीकृत आवंटन इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाएगा और किस श्रेणी के मजदूर को काम मिलेगा, यह इस बात से तय होगा कि किस श्रेणी के लिए फंड का आवंटन है. यह भारत के ग्रामीण समाज में जातिगत असमानता को बढ़ाएगा तथा यह इस कानून की आधारभूत संकल्पना– सार्वभौमिक रोजगार गारंटी- के भी खिलाफ है, लेकिन मोदी सरकार तो ऐसा ही चाहती है, जो हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए एक छोटा-सा मनुवादी कदम ही है.
इस एडवाइजरी से आगे अब मनरेगा की विदाई का ही रास्ता खुलता है- कानूनन न सही, लेकिन व्यावहारिक रूप से ही. इसके बाद रोजगार गारंटी कानून सवर्णों के नियंत्रण से ही संचालित होगा और दलित-आदिवासी समुदायों के लिए न रहेगा फंड, न मिलेगा रोजगार!
लेखक छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष हैं.
(साभार- जनपथ)