पोषण संबंधी योजनाओं के अंबार में बड़ा होता भुखमरी का पहाड़

कुपोषण को शून्य में नहीं देखा जा सकता. कुपोषण से जुड़े अन्य कारकों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है.

WrittenBy:Rohin Kumar
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शाम के पौने सात बजे अब्दुल कलाम (32) वापस घर लौटे हैं. वह त्रिलोकपुरी क्षेत्र में एक दर्जी की दुकान में काम करते हैं. पत्नी आयशा (28) एक तरफ खाना बना रही हैं, दूसरी तरफ उनका ध्यान टीवी पर भी लगा है. टीवी पर बहस छिड़ी है, “राजधानी में 3 बच्चियों की मौत का जिम्मेदार कौन?”

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मंगलवार, 24 जुलाई को मानसी (8), शिखा (4) और पारो (2) नाम की तीन बच्चियों की मौत कथित रूप से भुखमरी से हो गई. लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के अनुसार तीनों बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित थे. उनके पेट में अन्न का एक भी दाना नहीं था. पुलिस ने इस बात को स्थापित करने के लिए दोबारा से पोस्टमॉर्टम करवाया. दूसरी बार, मेडिकल बोर्ड ने भी मौत का कारण कुपोषण और भुखमरी ही बताया. यह हादसा अब्दुल के कमरे के ठीक सामने वाले कमरे में हुआ है. अब उस कमरे पर ताला लटक रहा है.

शनिवार, 21 जुलाई को मंगल नाम का व्यक्ति अपनी पत्नी बीना और तीन बच्चियों जिनका जिक्र ऊपर आया है, के साथ मंडावली की एक इमारत में रहने आए थे. पहले यह परिवार मंडावली के साकेत ब्लॉक में रहता था. कई महीनों से ये किराया नहीं दे सके थे इसलिए मकान मालिक ने वहां का कमरा खाली करवा लिया था. बेघर मंगल के परिवार को नारायण नाम के एक दोस्त ने अपने कमरे में जगह दी.

दरअसल मंडावली के पंडित चौक पर स्थित यह दो मंजिला इमारत भगत सिंह (60) और उनकी पत्नी सुदेश (55) के नाम पर है. बाहर से यह इमारत की तरह दिखती जरूर है पर अंदर की स्थितियां देखकर इसे चॉल कहना उचित होगा. पहले और निचले तल को मिलाकर इमारत में कुल 30 कमरे हैं. डब्बानुमा कमरों का साइज 10 बाइ 10 से ज्यादा नहीं है.

इसी इमारत के ग्राउंड फ्लोर पर एक कमरा नारायण दास ने किराये पर ले रखा था. भगत सिंह के अनुसार, “नारायण करीब एक साल से यहीं पर रह रहा था.”

मंगलवार की शाम जब नारायण अपने कमरे में लौटा तो उसने बच्चियों को बेहोश पाया. फर्श पर बच्चियों की उल्टी पसरी पड़ी थी. नारायण ने फौरन इसकी सूचना चॉल की मालकिन सुदेश को दी. सुदेश और नारायण तीनों बच्चियों को लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल ले गए. यहां डॉक्टरों ने तीनों बच्चियों को मृत घोषित कर दिया.

“काश हमें मालूम होता कि बच्चे भूखे हैं तो हम लोग दो रोटी कम खाते, कम से कम आंखों के सामने कोई मरता तो नहीं,” आयशा बहुत दुखी होकर कहती हैं.

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कमरा जहां बीना अपने तीन बच्चियों के साथ रहती थी

मंगल रिक्शा चलाता है. पत्नी बीना मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है. रविवार की सुबह वह काम ढूंढने की बात कहकर घर से निकला था और रविवार देर शाम (स्टोरी लिखे जाने तक) तक नहीं लौटा. पत्नी बीना ने ही मीडिया को बताया, मंगल कई-कई दिनों तक पहले भी घर नहीं लौटता था. फिलहाल पुलिस उसे ढूंढ़ने में लगी है.

साकेत ब्लॉक के लोगों के अनुसार, मंगल 15 साल पहले पश्चिम बंगाल के मिदनापुर से दिल्ली आया था. करीब 10 साल पहले बीना से उसकी शादी हुई और उसे वह दिल्ली ले आया. शुरू से ही परिवार बहुत गुरबत की जिंदगी बिता रहा था.

“मंगल ने परिवार चलाने के लिए अनेकों तरह के काम किए. उसने होटल में रसोइया का काम किया. कचौड़ी-सब्जी की रेहड़ी भी लगाई. कोई भी धंधा उसे फला नहीं. बाद में वह मंडावली में ही एक सेठ का रिक्शा भाड़े पर चलाने लगा,” अनवर ने बताया.

लगभग पांच साल पहले मंगल को रेहड़ी लगाने में अनवर ने भी मदद की थी. पड़ोसियों का दावा है कि कई बार वे मंगल की लड़कियों को खाना दिया करते थे. मां की मानसिक हालत ठीक नहीं थी जिसके कारण वह बच्चियों का ख्याल भी नहीं रख पाती थी.

आयशा और आसपास के कमरों के रहने वाली औरतें बताती हैं, बीना और उनके बच्चे कमरे से बाहर निकलते ही नहीं थे. दिनभर उनका दरवाजा अंदर से बंद रहता था. “बच्चियां पांच-सात मिनट के लिए कमरे से बाहर निकलती थीं. फिर कमरे में चली जाती थीं. कभी पता ही नहीं लगा ये लोग भूखे हैं. गरीब जरूर हैं हम लोग, निर्दयी थोड़े ही हैं जो खाना नहीं देते,” पड़ोसी सरिता ने कहा.

ग्रामीण आबादी और शहरी गरीबी

अब्दुल और आयशा को चॉल में रहते हुए पांच साल से ज्यादा का वक्त बीत गया है. एक छोटे से कमरे में पांच लोगों का परिवार रहता हैं. औसतन यहां एक कमरे में 7 से 8 लोग रहते हैं. कमरों में बाहर की रोशनी नहीं पड़ती. दिनभर बल्ब ऑन रखना पड़ता है. एक तरफ छोटी सी खिड़की है. क्रॉस वेंटिलेशन न होने की सूरत में कमरे में हवा आना असंभव ही है.

कमरे में ही चूल्हा जलता है. दरवाजे के साथ ही एक खुली नाली बहती है, यह बर्तन धोने की जगह भी है. प्रति कमरे का किराया है 2500 रुपये. बिजली का बिल 8 रुपये प्रति यूनिट के हिसाब से लिया जाता है. अभी अब्दुल के कमरे में पंखा नहीं चल रहा क्योंकि बारिश की वजह से छत का पानी दीवारों से रिसता है. उससे कई बार दीवार में करंट आ जाती है.

अब्दुल की महीने की आमदनी महज 9 हजार रुपये है. वह बताते हैं, “2500 रुपया किराया और बिजली और पानी का खर्चा मिलाकर 3500 रुपये हो ही जाता है. उसमें बच्चों को पढ़ाना और परिवार चलाने में बहुत दिक्कत होती है.”

अर्थशास्त्र और पितृसत्ता का एक अजीब नमूना मंडावली में देखने को मिला. महिलाएं और बच्चे ‘स्वेच्छा’ से दिनभर पंखा नहीं चलाते क्योंकि दिन में मर्द काम पर जाते हैं. औरतें कमरे के बाहर ही रहती हैं. वहां थोड़ी हवा आती है. शाम को जब पति लौटते हैं तो पंखे चलते हैं. इसे आयशा बिजली का बिल बचाने का एक तरीका बताती हैं.

आयशा कहती हैं, “हमारे पास उतना ही पैसा होता है जितने में महीना किसी तरह कट जाए. घर चलाने के लिए कुछ कटौती तो करना ही पड़ता है.”

निचले तल पर 30 कमरें हैं और लगभग 150 लोगों के लिए सिर्फ 3 शौचालय है. शौचालय बदबू और गंदगी से भभकते रहते हैं. शौचालय के बाहर ही थोड़ी सी जगह है जहां नहाने की व्यवस्था है. मर्दों के काम पर चले जाने के बाद औरतें नहाती हैं. कुछ औरतें कमरे के बाहर साड़ी का घेरा देकर नहाती हैं.

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कमरे के बाहर बर्तन साफ करतीं आयशा

शौचालयों की नियमित सफाई का जिम्मा यहां रहने वाले परिवारों पर ही है. आठ दिनों के अंतराल पर प्रत्येक परिवार की सफाई की बारी आती है. पीने की पानी के लिए सिर्फ तीन नल लगे हैं. ऊपर के तल की भी यही हालत है, वहां भी पानी के तीन नल और तीन शौचालय हैं. टंकी का पानी ही पीने और दूसरे सभी कामों के लिए उपयोग किया जाता है.

चॉल के मालिक भगत सिंह न्यूज़लॉन्ड्री को यह न बता सके कि टंकी की सफाई कितने दिनों पर होती है. चॉल निवासी संतोष (35) ने बताया कि टंकी की सफाई पिछले साल नवंबर में हुई थी.

मानसी, शिखा और पारो की मृत्यु के बाद यहां निवासियों को उम्मीद है कि प्रशासन का ध्यान उनकी ओर भी जाएगा. “अब देखो यहां मंत्री आ रहे हैं, मीडियावाले आ रहे हैं. आप लोग हमारे बारे में भी तो लिखोगे. टीवी पर हमारे चॉल की तस्वीरें चल रही है, बहस हो रही है. कुछ तो बेहतर होना चाहिए,” सरिता ने कहा.

चॉल में रहने वाले नब्बे फीसदी लोग विस्थापित मजदूर हैं. बेहतर जीवन का सपना लिए वे शहरों की ओर चल दिए. यहां भी वे रोजगार की अनिश्चितताओं से घिरे हैं. दिहाड़ी मजदूरी का स्वरूप वही रह गया. शहरों में आमदनी बढ़ी जरूर लेकिन किराये और बाकी खर्च भी उसी अनुपात में बढ़ गए.

चॉल घूमने के बाद स्मार्ट सिटी के वादे ठगने वाले लगते हैं. ग्रामीण आबादी का शहरी गरीबी में तब्दील होना शहरी नियोजन (अर्बन प्लानिंग) की तमाम वादों की पोल खोलती है. कुपोषण को शून्य में नहीं देखा जा सकता जबतक कुपोषण से जुड़े कारकों (मसलन स्वच्छता, पीने का साफ पानी, शौचालय, सूरज की रौशनी, हवा, निशुल्क स्वास्थ्य सुविधा आदि) का समाधान नहीं किया जा सकेगा. जिस तरह से चॉल में लोग रह रहे हैं, वह अमानवीय है. मंडावली चॉल शहरी गरीबी को समझने के लिए एक केस स्टडी होनी चाहिए.

सरकारी लीपापोती और योजनाओं का पेंच

कुपोषण से बच्चियों की मौत के मामले में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने मजिस्ट्रेट जांच का आदेश दिया था. मजिस्ट्रेट जांच की प्रारंभिक जांच के अनुसार, मंगल ने 23 जुलाई की शाम को बच्चियों को गर्म पानी में कोई अनजान दवा दी थी.  हालांकि रिपोर्ट यह भी बताती है कि जिन परिस्थितियों में परिवार रह रहा था, बच्चियों का पोषण का स्तर अच्छा नहीं था.

लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट ने मीडिया को बताया, “बच्चियों के शरीर में चर्बी (फैट) की जरा भी मात्रा नहीं रह गई थी. पेट, मूत्राशय (ब्लैडर) और मलाशय (रेक्टम) बिल्कुल खाली थे. ऐसा लगता है बच्चियों ने पिछले 7-8 दिन से कुछ भी नहीं खाया था.”

पुलिस ने अब तक कोई एफआईआर दर्ज नहीं की है. मंडावली थाने के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “अब तक पुलिस को कुछ भी संदेहास्पद नहीं मिला है. अगर आगे भी कुछ नहीं मिला तो पुलिस 174 सीआरपीसी के तहत कार्रवाई करेगी.”

भारत में कुपोषण की विकराल समस्या से निजात पाने के लिए कई तरह की योजनाएं हैं. इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेस (आईसीडीएस), नेशनल हेल्थ मिशन (एनएचएम), मीड डे मील स्कीम, इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना- केन्द्र सरकार की ये योजनाएं सीधे तौर पर बच्चियों और मां के पोषण सुधार से जुड़ी हैं.

इसके अलावा जन वितरण प्रणाली (पीडीएस), नेशनल फूड सिक्योरिटी मिशन, मनरेगा, नेशनल रूरल ड्रिंकिंग वॉटर प्रोग्राम – ये योजनाओं का भी एक लक्ष्य पोषण के अलग-अलग आयामों की पूर्ति करना है. ये योजनाएं केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा संचालित की जाती हैं. दिसंबर 2014 में इन योजनाओं का जिक्र तत्कालिन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने लोकसभा को दिए एक लिखित जबाव में किया था. वह “कुपोषण दूर करने के लिए सरकार द्वारा उठाए कदमों” की व्याख्या कर रहे थे.

योजनाओं की भरमार के बावजूद मार्च 2017 में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के आंकड़े भयावह तस्वीर पेश करते हैं. पांच साल से कम उम्र के 38 प्रतिशत बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण का शिकार हैं. अर्बन हंगर एंड मालन्यूट्रिशन स्टडी के मुताबिक शहरों में दिल्ली की स्थिति सबसे बदतर है. पांच में से चार बच्चे कुपोषित हैं.

सरिता के पति सतबीर (27) अपने भतीजे बबलू को हमें दिखाते हैं. बबलू (5) पिछले एक सप्ताह से बीमार है. उसे निजी दवा की दुकान से सतबीर ने बुखार की गोली लाकर दी थी. बुखार उतर गया लेकिन वह खाने के साथ ही उल्टी कर देता है. सतबीर को लगता है बबलू को बरसात में इंस्फेक्शन हो गया है. उन्होंने शिकायत किया कि पास के सरकारी अस्पताल में डॉक्टर ही नहीं आते. यह महीने का अंत है और उनके पास बबलू का इलाज कराने भर के पैसे नहीं हैं. वह एक तारीख को तनख्वाह मिलने का इंतजार कर रहे हैं. फिर बबलू को प्राइवेट क्लिनिक में दिखवाया जाएगा.

सरिता कहती है, “यहां जो बच्चे दिख रहे हैं, इनकी कौन सी सेहत बेहतर है? हमारी जांच करवा लो, हमारे शरीर में पचासों दिक्कतें निकल आएगी. गरीब के बच्चियों को दूध, फल, दाल नसीब नहीं होता!”

सरिता की बात यकीन करने लायक है. इस रिपोर्टर ने अब्दुल के परिवार को खाते देखा था. उनकी थाली में आलू की सादी सब्जी और रोटी थी. अब्दुल ने खाने में बारे में कहा, “हमारी इतनी हैसियत नहीं है कि हर दिन खाने में हरी सब्जी संभव हो सके.”

बताया जा रहा है कि मंगल के परिवार के पास राशन कार्ड नहीं था. इसका मतलब है, उन्हें सरकारी दाम पर अनाज मुहैया नहीं हो रही थी. यह बात चॉल निवासियों को अज़ीब लगती है. सतबीर के मुताबिक, मंडावली के इस चॉल में किसी के भी पास राशन कार्ड नहीं है. वह कहते हैं, “राशन कार्ड बनाने वाले कर्मचारी दिल्ली का एड्रेस प्रूव मांगते हैं. यहां लोग बिहार, यूपी, राजस्थान जैसे पड़ोसी राज्यों से आकर बसे हैं. हमारे पास गांव के पते का आधार कार्ड है इसीलिए राशन कार्ड नहीं बनता है.” गौरतलब है कि आधार कार्ड सिर्फ एक ही बन सकता है और उसकी अहमियत सब जगह बराबर होती है.

आईसीडीएस की योजना के तहत आंगनबाड़ी केन्द्र को कुपोषित बच्चियों के पोषण की देखरेख करनी होती है. मंडावली आंगनबाड़ी में मृत बच्चियों में से सबसे बड़ी मानसी (8) का नाम वर्ष 2013-14 के लाभार्थियों में दर्ज था. शिखा (4) और पारो (2) का नाम दर्ज नहीं था.

सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की बारीकियों के संदर्भ में एक आंगनबाड़ी सहायिका समझाती हैं, “यहां सभी लोग दूसरे राज्यों से आकर बसे हैं. वे रेंट पर रहते हैं. रेंट पर रहने की वजह से ये लोग एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट होते रहते हैं. जिसके कारण इनतक लाभ नहीं पहुंच पाता है. आंगनबाड़ी केन्द्र हर ढाई-तीन महीने पर क्षेत्र का सर्वेक्षण करते हैं. उसमें कुपोषित बच्चियों की जानकारी मिलती है. अगर इसी बीच परिवार कहीं और चला गया तो यह जिम्मेदारी उस क्षेत्र के आंगनबाड़ी में आएगा.”

आंगनबाड़ी कर्मचारी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि आंगनबाड़ी ने पिछले कुछ वर्षों से सर्वेक्षण नहीं करवाया है. सिर्फ सूची अपडेट होती है. इस पर स्वत: ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि मानसी की छोटी बहनों शिखा और पारो का नाम लाभार्थियों में दर्ज भी नहीं हो सका होगा.

सरकारी योजनाओं और प्रशासकीय लापरवाही की बेइंतहा दास्तानों में मंडावली की तीन बच्चियों का नाम हमेशा के लिए दर्ज हो गया है. पर उससे भी ज्यादा दुखद है कि मंडावली चॉल में बसे अन्य परिवार जो वहां पांच साल से भी अधिक समय से रह रहे हैं, उनके पास न राशन कार्ड है, न बच्चे आंगनबाड़ी कार्यक्रमों और अन्य कुपोषण मुक्ति कार्यक्रमों के लाभार्थी हैं.

समाज की गैरबराबरी और वर्ग चेतनाओं का अंतर इतना बड़ा है कि दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट में आधार कार्ड के संबंध में निजता के अधिकार पर जिरह चल रही है. दूसरी ओर वही आधार कार्ड जीवन के मूल अधिकार का भी संरक्षण कर पाने में अक्षम साबित हो रही है.

(दिल्ली के मंडावली क्षेत्र में तीन बच्चियों की मौत से संबंधित न्यूज़लॉन्ड्री की ग्राउंड रिपोर्ट का दूसरा भाग यहां पढ़ें.)

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