सुब्बाराव आजादी के सिपाही थे लेकिन वे उन सिपाहियों में नहीं थे जिनकी लड़ाई 15 अगस्त 1947 को पूरी हो गई.
मध्यप्रदेश के चंबल के इलाकों में घूमते हुए सुब्बाराव के मन में युवाओं की रचनात्मक वृत्ति को उभार देने की एक दूसरी पहल आकार लेने लगी और उसमें से लंबी अवधि के, बड़ी संख्या वाले श्रम-शिविरों का सिलसिला शुरू हुआ. सैकड़ों-हजारों की संख्या में देश भर से युवाओं को संयोजित कर शिविरों में लाना और श्रम के गीत गाते हुए खेत, बांध, सड़क, छोटे घर, बंजर को आबाद करना और भाषा के धागों से युवाओं की भिन्नता को बांधना उनका जीवन-व्रत बन गया! यह सिलसिला कुछ ऐसा चला कि देश-विदेश सभी जगहों पर उनके मुरीद बनते चले गए. वे चलते-फिरते प्रशिक्षण शिविर बन गए. ऐसे अनगिनत युवा शिविर चलाए सुब्बाराव ने. देश के कई अशांत क्षेत्रों को ध्यान में रख कर, वे चुनौतीपूर्ण स्थिति में शिविरों का आयोजन करने लगे.
चंबल डाकुओं का अड्डा माना जाता था. एक से एक नामी डाकू गैंग वहां से लूट मार का अपना अभियान चलाते थे और फिर इन बेहड़ों में आ कर छिप जाते थे. सरकार करोड़ों रुपए खर्च करने और खासा बड़ा पुलिस-बल लगाने के बाद भी कुछ खास नहीं कर पाती थी. फिर कुछ कहीं से कोई लहर उठी और डाकुओं की एक टोली ने संत विनोबा भावे के सम्मुख अपनी बंदूकें रख कर कहा- हम अपने किए का प्रायश्चित करते हैं और नागरिक जीवन में लौटना चाहते हैं. यह डाकुओं का ऐसा समर्पण था जिसने देश-दुनिया के समाजशास्त्रियों को कुछ नया देखने समझने पर मजबूर कर दिया. विनोबा का रोपा आत्मग्लानि का यह पौधा विकसित हो कर पहुंचा जयप्रकाश नारायण के पास और फिर तो कुछ ऐसा हुआ कि 400 से ज्यादा डाकुओं ने जयप्रकाश के चरणों में अपनी बंदूकें डाल कर, डाकू-जीवन से मुंह मोड़ लिया.
इनमें ऐसे डाकू भी थे जिन पर सरकार ने लाखों रुपयों के इनाम घोषित कर रखे थे. इस सार्वजनिक दस्यु-समर्पण से अपराध-शास्त्र का एक नया पन्ना ही लिखा गया. जय प्रकाशज ने कहा- ये डाकू नहीं, हमारी अन्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था से बगावत करने वाले लेकिन भटक गए लोग हैं जिन्हें गले लगाएंगे हम तो ये रास्ते पर लौट सकेंगे. बागी समर्पण के इस अद्भुत काम में सुब्बाराव की अहम भूमिका रही. चंबल के क्षेत्र में ही, जौरा में सुब्बाराव का अपना आश्रम था जो इस दस्यु-समर्पण का एक केंद्र था.
सुब्बाराव ने बहुत कुछ किया लेकिन अपनी धज कभी नहीं बदली. हाफ पेंट और शर्ट पहने, हंसमुख सुब्बाराव बहुत सर्दी होती तो पूरे बांह की गर्म शर्ट में मिलते थे. अपने विश्वासों में अटल लेकिन अपने व्यवहार में विनीत व सरल सुब्बाराव गांधी विद्यालय के अप्रतिम छात्र थे. वे आज नहीं हैं क्योंकि कल उन्होंने विदा मांग ली. लेकिन उनका विद्यालय आज भी खुला है और नए सुब्बारावों को बुला रहा है.
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)