उत्तराखंड में कुमाऊं और गढ़वाल की सीमा पर बसा गैरसैंण राज्य बनने के दो दशक बाद भी स्थाई राजधानी बनने का इंतजार कर रहा है.
खड़ी है “ग्रीष्मकालीन राजधानी” की इमारत
कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में 2012 में यहां एक विधानसभा सत्र आयोजित किया गया और 2014 में भवन निर्माण कार्य शुरू हुआ. राज्य सरकार में सूत्र बताते हैं कि गैरसैंण से करीब 12 किलोमीटर दूर भराड़ीसैंण में हुए निर्माण में अब तक 100 करोड़ से अधिक खर्च हो चुका है. साल 2021-22 के बजट में उत्तराखंड सरकार ने गैरसैंण राजधानी के विकास के लिए 350 करोड़ रुपये की घोषणा की. यहां अब तक विधानसभा भवन और एमएलए हॉस्टल बना है. इस ओर जाने वाली सड़क का चौड़ीकरण किया जा रहा है और यहां सचिवालय और वीआईपी कार पार्किंग का काम चल रहा है.
मार्च 2020 में बीजेपी की त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया. उत्तराखंड की गढ़वाल सीट से सांसद (गैरसैंण इसी संसदीय क्षेत्र में पड़ता है) और पूर्व मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत कांग्रेस पर राजधानी के नाम पर “वारे-न्यारे” (भ्रष्टाचार) करने के आरोप लगाते हैं.
तीरथ सिंह रावत ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, “बीजेपी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने की बात कही थी. हमने वह वादा पूरा किया है और एक शुरुआत की है. कांग्रेस ने तो कुछ नहीं किया. सिर्फ विधानसभा का भवन बना दिया जिसके लिए धनराशि का प्रावधान अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के वक्त किया गया था जब राज्य बनाया गया.”
उधर कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत कहते हैं कि उनकी पार्टी की सरकार बनी तो गैरसैंण स्थाई राजधानी बनेगी. रावत ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, “हमने ही गैरसैंण में विधायक निवास, मंत्रियों के निवास और अन्य ढांचा खड़ा किया है. अगर 2017 में हम जीतते तो हमने जनता से वादा किया था कि 2020 तक राजधानी के गैरसैंण स्थानान्तरित कर दिया जायेगा. राजधानी को बनाने का जो काम शुरू हुआ है उसे पूरा किया जाएगा. देहरादून अस्थाई राजधानी है और गैरसैंण में ही स्थाई राजधानी बनेगी.”
क्या राजधानी से बदलेंगे हालात
पहाड़ में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं की परेशानी है. यहां 10,000 लोगों पर सिर्फ एक डॉक्टर है. डब्लूएचओ के मानकों के हिसाब से 1000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए. मामूली स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए लोगों को पहाड़ी कस्बों से कई किलोमीटर का कठिन रास्ता पार कर इलाज के लिए हल्द्वानी, हरिद्वार या देहरादून जैसे शहरों में आना पड़ता है. इसी तरह स्कूली शिक्षा की कमी पहाड़ी जिलों में दिखती है. कोरोना के दौरान उत्तराखंड उन राज्यों में रहा जहां डिजिटल डिवाइट का असर सबसे अधिक दिखा. एक सर्वे के मुताबिक 82% बच्चे ऑनलाइन कक्षाओं से वंचित रहे. आज भी राज्य के दुर्गम हिस्सों में बच्चों को स्कूल जाने के लिए 10 से 20 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है.
इस कारण यह तर्क दिया जाता रहा कि एक स्थाई पहाड़ी राजधानी हालात बदल सकती है वहीं स्थानीय लोगों को यह 20 साल से चला आ रहा चुनावी जुमला ही लगता है. गैरसैंण में 55 साल के वासुदेव सिंह को नहीं लगता कि यह पहाड़ी कस्बा कभी स्थाई राजधानी बन पाएगा.
वह कहते हैं, “राज्य बने 20 साल हो गए. आप 20 साल बाद आइएगा. लोगों के यही हाल मिलेंगे. यह राजधानी केवल नेताओं और अफसरों की है.”
पत्रकार राजीव पांडे सवाल करते हैं कि क्या गैरसैंण में बनी स्थाई राजधानी दिल्ली से संचालित नहीं होगी. वह कहते हैं, “प्रतीकों से दशा नहीं बदलती. पहाड़ी राजधानी एक प्रतीक ही है वरना गैरसैंण के लिए आंदोलन चलाने वाली पार्टियों और नेताओं अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड की जनता ने क्यों नकारा?”
“ग्रीष्मकालीन राजधानी एक औपनिवेशिक सोच”
छोटी पार्टियां और सामाजिक संगठन गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने पर अधिक मुखर और आक्रामक हैं.
कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के सदस्य और कर्णप्रयाग सीट से चुनाव लड़ रहे इंद्रेश मैखुरी कहते हैं गैरसैंण को राजधानी बनाना राज्य की अवधारणा से जुड़ा है. मैखुरी ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, “हम ये मानते हैं कि राजधानी को लेकर ग्रीष्मकाल और शीतकाल वाली अवधारणा एक औपनिवेशिक सोच है. यह औपनिवेशिक खुमारी उन लोगों के सिर पर मंडराती रहती है जिनकी सोच लोकतंत्र में रहते हुए भी सामंती है. गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन नहीं बल्कि स्थाई राजधानी होना चाहिए लेकिन बीजेपी और कांग्रेस की सरकारों की मंशा तो देहरादून में नए विधानसभा और सचिवालय परिसर खड़ा करने की है.”
वैसे जन संगठनों की ओर से गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए कई यात्राएं और प्रयास होते रहे हैं. अक्टूबर 2018 में गैरसैंण संघर्ष समिति ने राज्य के कुमाऊं में पंचेश्वर से गढ़वाल के उत्तरकाशी तक यात्रा की.
इस समिति के सदस्य रहे और सामाजिक कार्यकर्ता चारु तिवारी कहते हैं, “राज्य के नीति नियंताओं और खासकर दो बड़ी पार्टियों (कांग्रेस-बीजेपी) को विकेन्द्रीकरण की समझ नहीं है और वह सुविधाभोगी राजनीति के आदी हो चुके हैं. इन्हें न तो हिमालय की समझ है और न ही ये पहाड़ चढ़ना चाहते हैं. गैरसैंण कुमाऊं-गढ़वाल क्षेत्र की एकता और विकास के जनवादी मॉडल को आगे बढ़ाने के लिए ये जरूरी है. इसलिये प्रतीकात्मक होते हुए भी गैरसैंण जरूरी है क्योंकि संघर्षों में प्रतीक भी महत्व रखते हैं.”