सेंट्रल विस्टा: आखिर विश्वस्तरीय निर्माण कितना 'विश्वस्तरीय' है?

यह परियोजना 'विश्वस्तरीय' होने के महत्वपूर्ण मानको के ही खिलाफ है.

WrittenBy:अल्पना किशोर
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मौजूदा शासन के 'नए भारत' के नज़रिए से सेंट्रल विस्टा योजना उनके मूल्यों का साकार रूप है. हर कीमत पर जारी निर्माण और त्वरित निर्णय इस नए भारत की प्राथमिकताओं को दिखाते हैं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण हैं श्रेष्ठता और कार्य कुशलता. देश की इस नई परिकल्पना में 'नया भारत' केवल एक शान से खड़ा विजेता नहीं बल्कि दुनिया के लिए एक विश्वगुरु है.

इसलिए "राष्ट्रीय महत्व की एक परियोजना" होने के नाते, इसके ऊपर उम्मीदों का भारी बोझ है.

इससे "देश का गौरव" बढ़ने की उम्मीदें हैं और "हमारे देश के विराट लोकतांत्रिक लक्ष्यों को साकार कर", 'आत्मनिर्भर भारत' बनाने की चेष्टा है.

एक किंवदंति इन सब महत्वाकांक्षाओं को अपने में समाहित करती है, जिसे हर वेब पेज पर देखा जा सकता है और प्रशासन के हर एक अंग के द्वारा उसे बोला जाता है, केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी से लेकर आर्किटेक्ट विमल पटेल और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक इसका बखान करते हैं. वह किंवदंती है "वर्ल्ड क्लास" यानी विश्वस्तरीय.

इसका अर्थ है कि सेंट्रल विस्टा का आकलन केवल भारत ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किया जाएगा, क्योंकि वह विश्वस्तरीय मानको को पूरा करेगा.

लेकिन प्रशासनिक बयानों के अलावा डिजाइन, आर्किटेक्चर और शहरी योजना को लेकर विश्वस्तरीय की वास्तविक अवधारणा क्या है? अच्छी पार्किंग या ज्यादा जगह? क्या गूगल जैसे जिम और कैफे? क्या तकनीकी क्षमता, सर्वोत्तम सामग्री या भवन के अंदर स्मार्ट निर्माण? क्या यह ट्रैफिक का प्रबंधन और स्वचालन है? या यह कुछ और है?

राजों-रजवाड़ों के सामंती युग में, आर्किटेक्चर यानी बड़े वास्तु निर्माण एक साहसिक उपक्रम थे. उसकी दृश्यता और भव्यता के पीछे एक राजसी उद्देश्य था, नागरिकों को यह दिखाना की शक्ति और सत्ता कहां पर है. अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया सेंट्रल विस्टा भी उसी श्रेणी में आता है.

लेकिन इसके कुछ ही समय बाद आर्किटेक्चर में एक बड़ा उलटफेर हुआ जो नए युग के आगाज का संकेत था. अब सत्ता जनता के हाथ में थी. इसी प्रगतिशील सोच के चलते, स्वतंत्र व जनतांत्रिक भारत के चुने हुए प्रतिनिधियों ने 50 के दशक में सेंट्रल विस्टा के आधे से ज्यादा प्लॉट जनता को आवंटित किए. इससे हमारी राजधानी का केंद्र एकछत्र सत्ता के ठाठ से बदलकर जनता की जगह में बदल गया.

अगर हम आज की दुनिया में "विश्वस्तरीय" का मतलब समझने के लिए समकालीन विश्वस्तरीय आर्किटेक्चर पर नजर डालें, तो उसका पहला आवश्यक मूल्य स्पष्ट है.

जनतंत्र आज भी 70 साल पहले की तरह आधुनिकता का एक महत्वपूर्ण अंग है. जनता तक पहुंच, खुलापन, विकेंद्रीकरण और सत्ता का लोकतांत्रिकरण ही आज के आधुनिक आर्किटेक्चर के मूल्य हैं, जो कि दुनिया की सबसे अच्छी इमारतों के केंद्र में है.

अब इमारतें सत्ता या किसी वर्ग व्यवस्था का प्रतिबिंब नहीं हैं जो सामान्य लोगों को उसमें घुसने से रोकें, और अपनी श्रेष्ठता को कुछ थोड़े से ताकतवर लोगों के लिए चारदिवारी के भीतर छुपा कर रखें. 70 साल पहले भारत सरकार ने वही किया, विश्वस्तरीय आर्किटेक्चर को खोलकर आम लोगों तक पहुंचा दिया. जनता के लिए पहले बंद दरवाजों को खोलकर.

2021 के प्रित्जकर वास्तुकला पुरस्कार (जिसे आर्किटेक्चर का नोबेल माना जाता है) के विजेता आर्किटेक्ट लेकेटन और वास्सल, अच्छे आर्किटेक्चर को "हर किसी की स्वतंत्रता में इजाफा करने वाले निर्माण" से परिभाषित करते हैं. उसे प्रदर्शनात्मक या आलीशान नहीं होना चाहिए, बल्कि वह कुछ जाना पहचाना, उपयोगी और सुंदर होना चाहिए." उनके पुरस्कार का प्रशस्ति पत्र, उनके आर्किटेक्चर की "जनतांत्रिक आत्मा" की सराहना करता है.

इसी तरह, 2020 में यूरोपियन संसद में जगह बढ़ाने के लिए रखी गई अंतरराष्ट्रीय डिजाइन प्रतियोगिता में केवल सांसदों के लिए "काम करने की सर्वश्रेष्ठ जगह" की बात नहीं कही गई, बल्कि "संसद को जनता के लिए खुला रहने, उनसे बात करने" की भी बात रखी गई. इसके साथ बातचीत के लिए आम जगहों को रखने की भी मांग हुई क्योंकि "जनप्रतिनिधियों की संसद, जनता की संसद है."

जरूरतें राजसी हों या जनतांत्रिक, आर्किटेक्चर अपने को युग की जरूरतों को समझकर व उनके हिसाब से अपने को ढालकर ही समकालीन बन पाता है.

इस तरह से आज के समय में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मूल्य, दुनिया की सबसे बड़ी चिंता- जलवायु परिवर्तन के प्रति सजग रहना है. मौजूदा आर्किटेक्चर की दुनिया में, भवन निर्माण का पर्यावरण मूल्यों पर खरा उतरना भी एक अहम जरूरत है.

अनुकूल पुनर्प्रयोग इसका तकनीकी नाम है और दुनिया की हर अच्छी आर्किटेक्चरल कंपनी जानती है कि वे इनको ध्यान में रखें बिना कोई प्रस्ताव नहीं पेश कर सकते.

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नौरोजी नगर और नेताजी नगर के पुनर्विकास के लिए 14,000 से 17,000 पेड़ काटे गए

हमारे टूटे हुए नेताजी नगर और नौरोजी नगर जहां पर 14,000 से 17,000 पेड़ काटे गए और घर तोड़े गए, उनसे अलग लेकेटन व वास्सल के पुरस्कृत प्रोजेक्ट ने फ्रांस में एक मौजूदा रिहाइशी ब्लाक को "कभी ना तोड़ने" के उसूल का पालन करते हुए, बिना कुछ तोड़े या पुनर्निर्माण किये, उस जगह को सावधानीपूर्वक बढ़ाया.

लेकेटन व वास्सल परियोजना का मूल सार्वजनिक आवास
आवास परियोजनाओं में 530 अपार्टमेंट का परिवर्तन
पुरानी इमारतों का विस्तार
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उनका प्रित्जकर प्रशस्ति पत्र कहता है कि भवन निर्माण की गुणवत्ता और पर्यावरण जिम्मेदारी में कोई टकराव नहीं है. दोनों को ही संवेदनशीलता के साथ विचार करके पूरा किया जा सकता है. यूरोपीय संसद की प्रतियोगिता की सूचना में भी उसके डिजाइन को "पर्यावरण संबंधी निर्माण कार्यों के लिए उदाहरण" पेश करने की बात प्राथमिकता देकर कही गई है.

इसलिए श्रेष्ठता की हर स्थिति में, जनतंत्र और पर्यावरण से जुड़ी प्राथमिकता ही आवश्यक मूल्य बनकर उभरती है.

इस लिहाज से मौजूदा विश्व स्तरीय आर्किटेक्चर में जन केंद्रित दृष्टिकोण ही सबसे बेहतरीन उपाय है. यह आम लोगों को वीआईपी मानता है. दूसरी ओर उनका प्रित्जकर प्रमाण पत्र कहता है कि "हमारे समय की पर्यावरणीय आपात स्थिति का जवाब देना, और कम से कम कार्बन फुटप्रिंट छोड़ना है." आज की दुनिया में, जहां भी इस तरह की निगरानी संस्थाएं सही तरीके से काम करती हैं वहां एक ऐसी सीमारेखा तय की जाती है जिनसे कभी कोई समझौता नहीं हो सकता.

आम जगहों की कीमत पर अपव्ययी निर्माण, या हरियाली और आम जगहों को बर्बाद करने वाली संवेदनहीन, बड़ी मात्रा में कार्बन पैदा करने वाली योजनाओं का तो सवाल ही नहीं उठता. नगर निगमों से सहमति मिलना या पुरस्कार मिलना, अगर पिछड़ा हुआ नहीं तो अज्ञानता तो माना ही जाएगा.

इन मानदंडों पर सेंट्रल विस्टा कैसा उतरता है?

सेंट्रल विस्टा, पिछले 50 सालों में भारत का सबसे बड़ा और ऐसा नगरीय प्रोजेक्ट है जिसके साथ सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है. यह प्रोजेक्ट उपरोक्त मानदंडों पर कैसा उतरता है?

जनतंत्र और पर्यावरण से जुड़ी वास्तविकताओं के नजरिए से एक सच्चे विश्वस्तरीय आर्किटेक्चर और सेंट्रल विस्टा के पुनर्निर्माण के बीच का फासला, पाटने लायक दिखाई नहीं पड़ता. इस परियोजना से यह दोनों ही चीजें गायब हैं.

यह परियोजना लोकतांत्रिक लक्ष्य और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का वादा करती है, इसलिए आइए पहले जनतंत्र को ही लेते हैं.

सेंट्रल विस्टा का मूल सिद्धांत जन केंद्रित होने के बजाय सत्ता-केंद्रित है. उसके मुख्य विचारों की 21वीं सदी में कोई जगह नहीं है, जो निम्नलिखित हैं:

  • अत्यधिक केंद्रीकरण, जिससे हर नगरीय योजना बनाने वाला हर कीमत पर बचता है.

  • ऐसा प्रांगण जो आसपास के शहरी इलाके के साथ मिलता न हो.

  • समानता के जनतांत्रिक युग में, ताकतवर लोगों के लिए जगह का उपयोग बर्बादी की हद तक किया जाना.

  • एक डिजिटल युग में काम करते समय भौगोलिक नजदीकियां.

  • जनता के लिए उपलब्ध न होना.

यह विचार आज के अंतरराष्ट्रीय डिजाइन के नजरिए से एक बड़ी अड़चन की तरह दिखाई देते हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश यही सच है.

इसके लिए किले की तरह बनी सचिवालय की इमारत को ही देखें, जहां पर करीब 50,000 नौकरशाह ऊंची दीवारों के पीछे रहेंगे और बाकी दुनिया को अंदर आने की रोक रहेगी तो ये खुद को किसी सुनसान टापू पर पाएंगे.

सरकार, सरकारी और अर्ध सरकारी जमीनों में साझा दखल, जनता और सरकार के बीच समझौतों की संभावनाएं खुली रखता था. यह 60 के दशक की बड़ी सोच से जुड़ा था, जिसमें व्यर्थ प्रशासनिक क्रियाकलापों की जगह को खाली कर उसे जनता के लिए संरक्षित करना था जहां लोग अपनी मर्जी से आ-जा सकें.

जब नए सचिवालय की इमारतें पुरानी सरकारी इमारतों की जगह लेंगी, उनकी वजह से यहां पर जनता की आवाजाही कम हो जाएगी क्योंकि उसके उपयोग की श्रेणी पूरी तरह से बदलकर "सरकारी इस्तेमाल" के लिए कर दी जाएगी. लोग अपने आप ही उस इलाके में आना बंद कर देंगे जो विशुद्ध सरकारी एनक्लेव बन जाएगा.

आर्किटेक्ट नारायण मूर्ति कहते हैं, "यहां ऐसे किसी शहरी परिदृश्य की योजना नहीं है जिसमें नागरिक किसी तरह शामिल हों. पूरी दुनिया में सरकारी इमारतों की बाउंड्री दीवार नहीं होती, उनमें दूर तक देखा जा सकता है. बकिंघम पैलेस, व्हाइटहॉल या व्हाइइट हाउस, इन सभी इमारतों में रेलिंग लगी हैं जिससे आप अंदर देख सकते हैं और वह इलाका साझा है. वाशिंगटन में मॉल सरकारी इमारतों के साथ खड़ा है जिससे नागरिकों की उपस्थिति बनी रहती है. अगर आपको जनता की जगह लेनी पड़े, तो फिर आप को सुरक्षा के दूसरे तरीके ढूंढ़ने पड़ते हैं. लेकिन ऐसा करना ही क्यों?"

वे पूछते हैं, "तो इस नजर से निकला हुआ यह 'नया भारत' क्या है? अपारदर्शी और स्वकेंद्रित इमारतों का एक मूर्खतापूर्ण ढेर, जो 'नए भारत' के नागरिक को नम्रतापूर्वक बाहर कर देगा."

इन इमारतों की बनावट को ही देखें जिनमें ऊर्जा का समीकरण उल्टा है. इमारत के सबसे बेहतरीन हिस्से नौकरशाहों के लिए हैं, वहीं दूसरी ओर सेंट्रल विस्टा के नाम पर करीब 6,000 पेड़ों की बलि चढ़ने का अनुमान है. इसमें सबसे पहले एक "मान्यता प्राप्त वन" का नाश हुआ (केवल आईजीएनसीए के अंदर ही 2,000 के करीब पेड़ थे, इसकी जानकारी दूसरे भाग में). जनता से छीनी हुई हरियाली केवल गिने-चुने संभ्रांत लोगों तक सीमित रह जाएगी. वे नौकरशाह और नेता होंगे जिन्हें इमारत के अंदर हरे-भरे अहाते का लुत्फ उठाने का मौका मिलेगा, आस पास से गुजरते हुए नागरिकों को केवल इमारतों की ऊंची दीवारें दिखाई देंगी.

सड़क से दिखाई देने वाला मोनो-ब्लॉक
भीतरी आंगन का दृश्य

आज की कई इमारतें अंदर की ओर बनी हुई हैं, और उनमें 3 से 5 माले कम होने के साथ-साथ जमीन के स्तर पर ही प्रवेश द्वार है. यह सब इलाके साझा इस्तेमाल होते हैं जिससे हरियाली और खुला आकाश साथ में सब लोग इस्तेमाल कर सकते हैं जो जनता के लिए भी खुला है. फोटो नीचे संलग्न है.

विज्ञान भवन 1950 के दशक में बनाया गया था
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अब यह सब हमेशा के लिए बंद हो जाएगा. नीचे दिए प्लान को देखें.

विशाल नईं इमारतें

इन इमारतों के आकार को देखें. यह विश्वस्तरीय आर्किटेक्चर के मूल्यों के विपरीत है जहां नागरिक से वीआईपी की तरह बर्ताव होता है. 4.58 लाख वर्ग मीटर जगह को तोड़कर 17.08 लाख वर्ग मीटर यानी पहले से 4 गुना ज्यादा जगह, उतने ही कर्मचारियों के लिए बनाई जाएगी. अंतरराष्ट्रीय या स्थानीय, हर हिसाब से यह जनता की कीमत पर हैरान कर देने वाला, जरूरत से ज्यादा बड़ा निर्माण है, जहां इस आलीशान उद्देश्य के लिए जनता के इस्तेमाल की 100 एकड़ भूमि ले ली गई.

'विश्वस्तरीय' की एक भिन्न परिभाषा

जाहिर है कि इस परियोजना के लिए यहां "विश्वस्तरीय" का एक अलग मतलब है.

प्रधानमंत्री मोदी "स्मार्ट सोल्यूशन्स" और "एफिशिएंसी" शब्दों को तकनीकी क्षमता और व्यवस्थित आंतरिक हिस्सों के लिए अदल बदल कर इस्तेमाल करते हैं. यहां पर एफिशिएंसी यानी कार्यकुशलता को सबसे अच्छे सिस्टम और सामग्री खरीदना भर माना जाता है.

इसलिए सचिवालय की इमारतों में सबसे बढ़िया एचवीएसी सिस्टम, ध्वनि सिस्टम, ट्रेवलेटर, बैठने की जगह, अंडरग्राउंड रेल और स्वचालित एंट्री, सर्वोत्तम मार्बल और ग्रेनाइट, सुनियोजित कर्मचारियों का आवागमन, आपके पद के हिसाब से आपका दफ्तर, कैफे और जिम आदि सिलिकॉन वैली का स्वाद लेने के लिए होंगे.

लेकिन सबसे नई तकनीकों को सतही तौर पर लगा लेने से यह परियोजना विश्वस्तरीय नहीं बनी रह सकती, क्योंकि यह इसको परिभाषित करने वाली मूल भावनाओं का ही विरोध करती है, जनतंत्र और निरंतरता यानी सस्टेनेबिलिटी.

विश्वस्तरीय का मतलब बड़े, आने-जाने की रोक वाली व्यवस्था और कार्यकुशलता के बुलबुले खड़े करना नहीं है, जहां पर अंदर व्यवस्था बनाए रखने के लिए बाहर जनता की पहुंच को काट दिया जाए. उसका सही में मतलब होता है जनता के जीवन में बदलाव लाकर पूरे वातावरण को ही बदलना, केवल कुछ गिने-चुने संभ्रांत लोगों का ही नहीं. अगर बाहर हालात तीसरे दर्जे के हैं, अंदर विश्वस्तरीय होने के कोई मायने नहीं हैं.

इस परियोजना की "विश्वस्तरीय" परिभाषा, वादा तो नई सोच का करती है लेकिन देती वही पुरानी सोच है. उदाहरण के लिए, यह हाईटेक डिजिटल तकनीक खड़ा करती है लेकिन सरकारी मुलाजिमों पर एक दूसरे के बगल में बैठने का नियम लागू करती है. वह भी पेगसस के जमाने में.

निश्चय ही विश्वस्तरीय तकनीक का उद्देश्य नगण्य हो जाएगा अगर सरकार अभी भी पुराने तरीकों से गलियारों में मिलकर काम करती है और दस्तावेजों का आदान-प्रदान लाल फाइलों से होता है? इसका अर्थ है कि उनके सिस्टम को बेहतर करने की जरूरत है न की इमारतों को. आज 21वीं सदी के कामकाजी वातावरण में यह सब आवश्यक नहीं है.

आर्किटेक्ट मूर्ति कहते हैं, "1961 से सरकार एक सोची-समझी पॉलिसी के अंतर्गत विकेंद्रीकरण करती रही है. सारी दुनिया में यही हो रहा है और इसका कारण है क्योंकि यह एक तर्किक कदम है. चीन और साउथ कोरिया अपने सरकारी प्रशासन को अपनी राजधानियों के बाहर ले जा रहे हैं. हम ही इकलौते ऐसे लोग हैं जो सरकार को शहर के बीच में ला रहे हैं."

भूमि क्षमता का विचार

इन सब विरोधाभासी दिशाओं का जवाब शायद भूमि क्षमता के विचार में छुपा हुआ है, जिसे इस परियोजना के लिए चुने गए आर्किटेक्ट पटेल ने कई बार कहा है और वह जमीन को किसी रियल एस्टेट डेवलपर की भांति एक "महंगे संसाधन' के रूप में देखते हैं, जिसका अधिक से अधिक उपयोग होना चाहिए. वे उसे जनता की एक पूंजी की तरह नहीं देखते जिसकी सुरक्षा और इस्तेमाल सबके भले के लिए होना चाहिए.

इस वजह से वह एफएआर का उचित आकलन जमीन के मूल्य के हिसाब से करते हैं, न की जरूरत या उपयोगिता के हिसाब से.

उनका कहना है, "अगर आपके पास जमीन है तो आप जमीन की कीमत के हिसाब से निर्णय लेंगे. यह महंगी जमीन है- तो इसका इस्तेमाल उसकी क्षमता के हिसाब से करना चाहिए. या फिर यह जमीन महंगी नहीं है, तब उस पर बहुत ज्यादा ऊपर के मालों में जगह देने की जरूरत नहीं.

वे आगे कहते हैं, "जब सरकारी निर्णय लिए जाते हैं तब कमोबेश जमीन की कीमत को नहीं देखा जाता जिससे वह इस महंगे संसाधन का उपयोग कुशलता से नहीं कर पाते, और पहले ऐसा ही हुआ था. यह परियोजना उस स्थिति को पलट रही है. जमीन कीमती है! हमें उसका इस्तेमाल ठीक से करना चाहिए. परियोजना यही काम कर रही है. उन इमारतों को गिरा देते हैं जो जमीन को कुशलतापूर्वक इस्तेमाल नहीं कर रही. इतना ही नहीं जमीन इतनी कीमती है कि इमारतें गिरा कर और वह खर्चा उठा कर उसके ऊपर और कई मंजिलें बनाना सही है.

मौजूद सेंट्रल विस्टा के चारों ओर बहुत सारी खाली जमीन है
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एक क्लोज-अप

लेकिन क्या यह देश में सबसे अनमोल हेरिटेज इलाके की परिभाषा हो जाएगी? इस परिभाषा से तो इंडिया गेट भी कार्यकुशल भूमि उपयोग की श्रेणी में नहीं आता.

आर्किटेक्ट माधव रमन कहते हैं, "एक संवैधानिक लोकतंत्र में, पूंजी को एक ट्रस्ट में रखा जाता है क्योंकि वह प्रशासन देता है. सरकारी जमीन की कीमत निकालने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि उसे बेचने की कभी मंशा होती ही नहीं. एक ही सरकार सेंट्रल विस्टा और द्वारका दोनों ही जगह जमीन रख सकती है. क्या इसका मतलब है कि सरकार को द्वारका में निर्माण नहीं करना चाहिए और केवल दिल्ली के केंद्रीय इलाकों में यह होना चाहिए क्योंकि वहां जमीन की कीमत ज्यादा है? सेंट्रल विस्टा के 20,000 करोड़ होने का क्या फायदा अगर आपको झुग्गियों और गड्ढे वाली सड़कों और टूटे-फूटे इंफ्रास्ट्रक्चर से निकलकर वहां जाना पड़े?"

अगर ज्यादा मंजिलों की जरूरत ही न हो तो? महंगी जमीन पर जबरदस्ती क्यों ज्यादा मंजिलें होनी चाहिए, खास तौर पर तब जब उसको आईजीएनसीए, राष्ट्रीय संग्रहालय और राष्ट्रीय अभिलेखागार के नाते जनता की जमीन घोषित किया गया है. उसका हमेशा की तरह ऐसे ही आनंद क्यों नहीं उठाया जा सकता, जनता की जमीन जनता के लिए, चाहे वहां मेला हो, आराम हो, संस्कृति हो या फिर आईजीएनसीए के अंदर 2000 पेड़ों का सुंदर सा वन?

इससे इतर, ट्रस्ट में रखी हुई जनता की भूमि का क्या हुआ? 1947 में नई-नई बनी सरकार जिसके पास संसाधनों की कमी थी, उसने कई मंत्रालयों को सार्वजनिक जगहों पर तृतीय विश्व युद्ध के बैरक में बनाया था. पटेल उन्हें 'अकुशल' और 'हाॅचपाॅच' बताते हैं. वे हैरानी से कहते हैं, "आपके पास इतनी सारी जमीन है और छोटी-छोटी इमारते हैं."

रमन इस बात से सहमत नहीं. वे कहते हैं, "स्वतंत्रता के बाद ऐतिहासिक रूप से प्रशासन ने हमेशा उपयोगिता और मितव्ययी आधुनिकता पर जोर दिया. कभी भी प्रशासन ने जितना चाहिए था उससे ज्यादा नहीं बनाया. सेंट्रल विस्टा के पारंपरिक मूल्य और एक राष्ट्रीय जगह के तौर पर इसकी शुचिता के कारण, यहां पर भवन निर्माण पर नियंत्रण एक चिंता रही है. इन्हें सरकारी कमेटियों ने 1962, 1975 और 2009 में समझदारी पूर्वक जोर देकर किया, जिससे कि इस जगह की उपयोगिता का इस्तेमाल पूरे देश के लिए हो. अलग-अलग आर्किटेक्ट ने अलग-अलग समय पर यहां कई इमारतें बनाईं. इसलिए यह 'हॉचपॉच नहीं बल्कि संरक्षण, परिश्रम, मितव्ययिता, विविधता और क्रमिक तरीके से बनी हैं."

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सार्वजनिक भूमि एक ऐसी पूंजी है जो सबसे बड़े ट्रस्टों में रखी जाती है. कोई भी विश्वस्तरीय आर्किटेक्ट जानबूझकर उसकी संप्रभुता को कम नहीं आंकेगा, क्योंकि आज के विश्वस्तरीय आर्किटेक्चर की परिभाषा साम्राज्यवाद नहीं लोकतंत्र है. इसीलिए उन बैरकों की जमीनें जनता के इस्तेमाल के लिए वापस कर देनी चाहिए जिन पर मंत्रालय का कब्जा था क्योंकि अब उन्हें उनका स्थान मिल गया है.

लेकिन वह सोच, जो सेंट्रल विस्टा को एक कॉन्प्लेक्स की तरह देखती है वह जनता के हिस्से की जमीन का सम्मान कर ही नहीं सकती. सरकार के द्वारा जमीन को जनता के लिए एक ट्रस्ट में थामे रहने की कोई समझ नहीं है- जोकि खासतौर से उन लोगों में एक खतरनाक संदेश है जिन्हें भारत की राजधानी की जमीनों का कायापलट करने के लिए कहा गया है.

इसी कारण सत्ता को लगता है कि वह अपने को मिले जनता के समर्थन का इस्तेमाल, इस विश्वास को तोड़ने और जनता की 100 एकड़ जमीन हड़पने के लिए कर सकती है. इसीलिए वह सेंट्रल विस्टा को उसी उद्देश्य पर ले आई है जो उद्देश्य अंग्रेजों का था, नागरिकों को यह दिखाना कि सत्ता और शक्ति कहां पर है.

***

22 नवंबर को, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस मत से सहमति जताई कि सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट राज्य की नीति का मसला है और इसमें न्यायिक हस्तक्षेप की जरुरत नहीं है. कोर्ट ने इस मामले को लेकर दायर एक याचिका को खारिज कर दिया था.

यह चार हिस्सों वाली सीरीज का पहला पार्ट है.

इस खबर को अंग्रेजी में यहां पढ़ सकते है.

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