अथक मेहनत और समर्पण के लिए जानी जाने वाली भारतीय सेना अब रिकॉर्ड समय में मुंबई के एलफिंस्टन स्टेशन का ओवरब्रिज बनाएगी. पर इसके कुछ और निहितार्थ भी हैं.
ऊंचे, निर्जन पहाड़ी इलाकों में पर्यटकों द्वारा फैलाई गई गंदगी साफ करने के बाद अब भारतीय सेना का अगला मिशन मुंबई के कुछ रेलवे स्टेशनों का फुट ओवरब्रिज बनाना है. वैसे तो यह काम भारतीय रेलवे का था.
जिन तीन रेलवे स्टेशनों पर सैन्य जवानों को लगाया जाना है उसमें शामिल है एलिफिंस्टन रोड (29 सिंतबर को यहां मची भगदड़ में 23 लोगों की जान चली गई थी), अंबिवली और कारी रोड स्टेशन.
इन तीनों रेलवे पुलों को रिकॉर्ड तीन महीने में बनाने का लक्ष्य तय किया गया है- इसके लिए पूर्वनिर्मित ढांचा, परिश्रम और ढृढ़निश्चय की जरूरत होगी- जो हमारी भारतीय सैन्य क्षमता की पहचान है.
तुलना के लिए, रेलवे द्वारा भी दो अन्य फुट ओवरब्रिज एलिफिंस्टन स्टेशन पर बनाए जाने प्रस्तावित हैं जिसे अगले एक साल में पूरा किया जाना है. अभी तक, तकरीबन डेढ़ साल लाल फीताशाही में बर्बाद हो चुका है जबकि योजना 2015 में ही पास की जा चुकी है.
यह हैरानी वाली घोषणा मंगलवार को मुंबई में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस द्वारा की गई. इस मौके पर देश की प्रथम रक्षा मंत्री निर्मला सितारमन और रेल मंत्री पियूष गोयल मौजूद थे.
इस कदम को रेल मंत्रालय ‘विशिष्ट मामला’ बता रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि खासकर पुल निर्माण भारतीय रेलवे की जिम्मेदारियों का हिस्सा है और रेलवे की छवि खराब होने की आशंका है. विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले समय में सेना की रेलवे या अन्य सरकारी सेवाओं में भागीदारी बढ़ेगी.
“वर्षों से रेलवे व अन्य सरकारी विभागों में व्याप्त लाल फीताशाही, सुस्ती और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार से बचने के लिए रेलवे के काम में सेना को लगाने का फैसला लिया गया है. लंबे समय से ये दोनों दिक्कतें रेलवे और अन्य सरकारी कामकाज में बाधा बनती आ रही थीं.” सरकार के एक अंदरूनी ने हमें बताया.
“सेना के पास उच्च स्तर की दक्षता और तकनीकी विशेषज्ञता होती है. हम हर विभाग में पिछड़ जाते हैं,” नाम न बताने की शर्त पर रेलवे के एक उच्च अधिकारी ने बताया.
इस फैसले का बचाव करते हुए पश्चिमी रेलवे के प्रभागीय रेल प्रबंधक, मुकुल जैन ने बताया, “सबसे पहले, फैसला हमारे कार्यलय ने नहीं रेलवे बोर्ड ने लिया है. इन रेलवे स्टेशनों का भार कम करने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत थी. चुंकि सेना को टेंडर प्रक्रिया से हो कर नहीं गुजरना पड़ता, जो कि हमारे लिए जरूरी है, और उनकी तकनीक भी बहुत आधुनिक है, पुलों को तीन महीने में बनाया जा सकता है.”
“सेना हमें तकनीकी बारीकियां और मानवशक्ति मुहैया कराएंगी, रेलवे फंड देगा. अभी पुलों को बनाने का खर्च और अन्य विवरण मालूम नहीं है,” उन्होंने जोड़ा. एलिफिंस्टन का एक रेलवे पुल बनाने का खर्च लगभग 16 करोड़ रुपए है.
ढेर सारे लोगों की हिस्सेदारी, सरकारी अधिकारियों की सुस्ती का नतीजा होता है कि टेंडर की प्रक्रिया के कारण किसी भी योजना को छह से साल भर तक अन्य कारणों से देर हो ही जाती है.
“आज के समय में यह एक चुनौती है कि कैसे इन नागरिक संस्थाएं, केंद्र और राज्य की सरकारें इन बाधाओं से पार पाती हैं,” ऑल इंडिया पैसेंजर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सुभाष गुप्ता ने कहा.
यह संभवत: पहली बार है जब शांति के समय में सेना के जवानों को नागरिक क्षेत्रों में उनकी विशेषज्ञता से अलग किसी काम पर लगाया गया है. हालांकि सीमावर्ती और तनावपूर्ण क्षेत्रों में सेना को पुल व सड़क बनाने के काम में लगाया जाता रहा है.
गुप्ता इस बात पर जोर देते हैं कि सेना को पुल बनाने में लगाना इस बात को दर्शाता है रेलवे के अधिकारी कैसे और कितने अप्रभावी हो चुके हैं. राजनीतिक स्तर पर यह बातें भी उठनी शुरू हो गई हैं कि सरकार सेना का राजनीतिकरण कर रही है और उसे सिविल क्षेत्रों में अनायास ही घुसाने का काम कर रही हैं.
“सरकार ने अप्रत्यक्ष रूप से रेलवे की विशेषज्ञता और क्षमताओं पर भरोसा खो दिया है. अगर रेलवे के अभियंता काम करने में सक्षम नहीं हैं तो उन्हें हटा दिया जाना चाहिए और सेना के अधिकारियों को उनकी जगह पर बिठा दिया जाना चाहिए,” उन्होंने कहा तंज करते हुए कहा.