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एनएल चर्चा 194: ममता बनर्जी का विपक्षी मोर्चा, मीडिया कमीशन और कोरोना का ओमीक्रोन वैरिएंट

हिंदी पॉडकास्ट जहां हम हफ़्ते भर के बवालों और सवालों पर चर्चा करते हैं.

     
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एनएल चर्चा के इस अंक में संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत, कोरोना के ओमीक्रोन वैरिएंट के खतरे, ममता बनर्जी की शिवसेना और एनसीपी नेताओं से मुलाकात, प्रशांत किशोर का कांग्रेस पर वार, संसद में कृषि कानूनों की वापसी, सुधा भारद्वाज की ज़मानत को एएनआई की चुनौती, स्टैंड अप कमेडियन मुनव्वर फारूकी के बाद कुणाल कामरा के कार्यक्रम निरस्त होने की घटना पर विशेष तौर से चर्चा हुई.

चर्चा में इस हफ्ते बतौर मेहमान पत्रकार और लेखक पीयूष बबेले शामिल हुए. इसके अलावा न्यूज़लॉन्ड्री के एसोसिएट एडिटर मेघनाद एस और सह संपादक शार्दूल कात्यायन भी चर्चा में शामिल हुए. चर्चा का संचालन कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने किया.

2024 लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र ममता बनर्जी की सक्रियता पर चर्चा करते हुए अतुल सवाल करते हैं, "क्या ममता बनर्जी किसी ऐसे थर्ड फ्रंट की कल्पना कर रही हैं जिसमें कांग्रेस को नहीं शामिल किया जाएगा? क्या कांग्रेस देश की राजनीति में इतनी अप्रासंगिक हो चुकी है? ममता बनर्जी या अन्य क्षेत्रीय दलों के नेता क्या कांग्रेस के बिना ही नरेंद्र मोदी को चुनौती देने का सपना देख रहे हैं या देख सकते हैं?”

इन सवालों के आगे अतुल अपनी राय रखते हुए कहते हैं, “ममता जो भी कर रही हैं वह कांग्रेस के ऊपर एक तरह से शुरुआती दबाव बनाने का काम कर रही हैं जिसमें कांग्रेस की भूमिका बिग ब्रदर वाली न होकर बराबरी वाले दल की होगी. यूपीए पर उन्होंने इसी रणनीति से निशाना साधा है क्योंकि यूपीए में कांग्रेस बिग ब्रदर रहा है. साथ ही किसी भी संभांवित विपक्षी मोर्चे के नेतृत्व का मसला भी वो कांग्रेस के हाथों नहीं छोड़ना चाहती हैं.”

अतुल के सवालों का जवाब देते हुए पीयूष कहते हैं, “जिस तरह की शानदार जीत ममता बनर्जी को मिली है उसके बाद वे इस तरह न सोचें तो यह बात आश्चर्यजनक होगी. जब 2007 में मायावती उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बनी थीं तब भी यही कहा गया था कि अब दिल्ली की तरफ उनका रुख है. बीच में नीतीश कुमार भी काफी उभर कर आए थे जब वे भाजपा के साथ नहीं थे. तब यह कहा जा रहा था कि वे भी एक चेहरा हो सकते हैं, फिर महाराष्ट्र में भी जब शरद पवार ने भाजपा के मुंह से निवाला छीन कर सरकार बना लिया तब शरद पवार को लेकर भी यही कहा गया.”

पीयूष आगे कहते है, “ममता बनर्जी अभी हाल में जीत कर आई हैं तो उनकी बात हो रही है. फ़र्क़ इतना है कि बाक़ी नेताओं ने अपने मुंह से नहीं कहा था कि वह दिल्ली की सत्ता पर काबिज होंगे, जबकि ममता बनर्जी खुद अपना दावा पेश कर रही हैं. यदि आप देश के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो मोदी सरकार किसी भी तरीके से सत्ता में बने रहना चाहती है. कांग्रेस पार्टी भाजपा को हराकर सत्ता में आना चाहती है जबकि ममता बनर्जी या जो थर्ड फ्रंट है वह अपने लिए विपक्ष की जगह पुख्ता करना चाहता है.”

ममता बनर्जी की सक्रियता पर मेघनाद कहते हैं, "मुझे लगता है कि क्षेत्रीय दलों को राष्ट्रीय नेतृत्व में थोड़ा और मौक़ा मिलना चाहिए. जैसा कि महाराष्ट्र में और पश्चिम बंगाल में हुआ. क्षेत्रीय दल वहां सत्ता में हैं तो एक तरह से यह भी नज़र आ रहा है कि विपक्ष या बीजेपी के सामने एक क्षेत्रीय नेतृत्व होना बहुत ज़रूरी है. क्योंकि जो क्षेत्रीय दल हैं वे क्षेत्रीय भाषाओं, वहां की संस्कृतियों और वहां के लोगों की ज़रूरतों को समझते हुए बुनियादी रूप से कारगर साबित हो सकते हैं. राज्य की सरकारों में इसलिए लोग क्षेत्रीय दलों को प्राथमिकता देते हैं.”

मेघनाद आगे कहते हैं, "अब जो ममता बनर्जी के बयान आ रहे हैं वह एक तरह से खाली स्थान को भरने का प्रयास कर रही हैं क्योंकि सालों से भारत में विपक्ष का खालीपन रहा है. 2014 के बाद से यह दिखाई देने लगा है.”

इसी विषय पर टिप्पणी करते हुए शार्दूल कहते हैं, "विपक्ष की यह बात ठीक है कि जो बिसात बैठनी है उसमें विपक्ष को खड़ा होना पड़ेगा लेकिन यह बात भी बिल्कुल साफ है कि फ़िलहाल तो कांग्रेस कहीं नहीं जा रही और यह बात ममता भी अच्छी तरह जानती हैं. चाहे वह बंगाल के चुनाव जीत गई हों. हम ममता की बात कर रहे हैं, स्टालिन की क्यों नहीं, वह तमिलनाडु में काफी अच्छे ढंग से सत्ता का संचालन कर रहे हैं? तो राज्य की राजनीति हमेशा से अलग रही है उसे राष्ट्रीय स्तर पर ट्रांसलेट कर पाना इतना आसान नहीं होता."

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